Book Title: Digambar Jain Sahitya me Vikar
Author(s): Vidyanandmuni
Publisher: Jain Vidyarthi Sabha Delhi

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Page 48
________________ ३६ बहुयइं पढियई मूढ पर तालू सुक्कड़ जेरण । एक्कु जि अक्खरु तं पढहु सिवपुरि गम्मइ जेरण ॥१६॥... अर्थ-इतना अधिक पढ़ा कि तालु सूख गया, पर रहा तू मूर्ख हो। उस एक ही अक्षर को पढ़ कि जिससे तू शिवपुरी जा सके। .. - अर्थ का अनर्थ श्री कान जी स्वामी ने ग्रन्थकार के सुन्दर भाव के स्थान पर स्वकपोल कल्पित कितना अनुचित अनर्थ किया है, उसका नमूना देखिये उत्तमशौच धर्म यत्परदारादिषु जन्तुषु निस्पृहहिंसक चेतः । दुर्भद्यान्तर्मलहृत्तदेव शोचं परं नान्यत् ॥१४॥ -पद्मनन्दि पंचविंशतिका (दश लक्षण धर्म) श्री कानजी स्वामी के प्रवचन, सोनगढ़ "सज्जन पुरुषों के परस्त्री सेवन का भाव होता ही नहीं। किन्तु वास्तव में तो शुभभाव भी परस्त्री है। शुभभाव से आत्मा को लाभ मानकर शुभपरिणति का संग करना, वह परस्त्रीगमन है । पृ० ३८-४० ग्रन्थकार ने तो अपने श्लोक में शौच धर्म का स्वरूप बनालाया कि 'परस्त्री आदि जीवों में नि:स्पृह होना, अहिंसक चित्त होना, सो अन्तरङ्ग दुर्भेद्य मन के मैल को दूर करने वाला शौच धर्म है ।" इस अर्थ का अनर्थ करके कानजी कहते हैं कि 'शुभभाव ही परस्त्री है।' परस्त्री त्याग के शुभभाव 'परस्त्री कैसे बन गये ? वह तो मन का ब्रह्मचर्य शुद्ध भाव उत्तम सत्य धर्म स्वपरहितमेव मुनिििमतममृतसमं सदैव सत्यं च । वक्तव्यं वचनमथ प्रतिधेयं धीधनमौनम् ॥११॥ पद्म० पंच. "मेरे शुभराग से या वाणी से मुझे या अन्य को लाभ हो, अथवा मैं निमित्त बनकर दूसरे को समझा दू-ऐसा जिसका अभिप्राय है वह Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org

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