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देवों में किन्हीं के जातिस्मरण, किन्हीं के धर्मश्रवण किन्हीं के जिनमहिमादर्शन, और किन्हीं के देवऋद्धिदर्शन से सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है। यह व्यवस्था आनत कल्प से पूर्व तक जानना चाहिए। आनत, प्राणत आरण और अच्युत कल्प के देवों के देवऋद्धिदर्शन को छोड़ कर शेष तीन साधन पाये जाते हैं । नौ वेयक में निवास करने वाले देवों के सम्यग्दर्शन का साधन किन्हीं के जातिस्मरण और किन्हीं के धर्मश्रवण है। अनुदिश और अनुत्तरविमानों में रहने वाले देवों के यह कल्पना नहीं है, क्योंकि वहां सम्यग्दृष्टि जीव ही उत्पन्न होते हैं।
(सर्वार्थसिद्धौ-पृष्ठ २६-२७)
परिणमन वर्तनापरिणामक्रिया: परत्वापरत्वे च कालस्य ।।५-२२॥
वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व ये काल के उपकार हैं ॥२२॥
अर्थ-यद्यपि धर्मादिक द्रव्य अपनी नवीन पर्याय के उत्पन्न करने में स्वयं प्रवृत्त होते हैं तो भी वह बाह्य सहकारी कारण के बिना नहीं हो सकती इसलिए उसे प्रवर्ताने वाला काल है, ऐसा मानकर वर्तना काल का उपकार कहा है ।
-सर्वाथसिद्धि, पृष्ठ २६१ आचार्य कुन्दकुन्द की देन
-श्री प्रो० दलसुख मालवरिणया "यदि व्यवहार नय नहीं तो निश्चय भी नहीं। यदि संसार नहीं तो मोक्ष भी नहीं। संसार और मोक्ष जैसे परस्पर सापेक्ष हैं उसी प्रकार व्यवहार और निश्चय भी परस्पर सापेक्ष है।"
(पृष्ठ ४४)
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