Book Title: Digambar Jain Sahitya me Vikar
Author(s): Vidyanandmuni
Publisher: Jain Vidyarthi Sabha Delhi

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Page 49
________________ ४० जीव महा मसत्य अभिप्राय का सेवन करने वाला मिथ्यादृष्टि है ।" पृ० ग्रन्थकार ने उक्त श्लोक में सत्य धर्मं का स्वरूप बतलाया है कि 'मु क्या तो अमृत समान स्वपरहितकारी वचन कहें अथवा मौन रक्खें ।' का जी इस सुन्दर अर्थ को बिगाड़ कर मनमाना कुछ और ही अनर्थ लिख क भ्रम फैला रहे हैं । यदि सत्य हितकारी वारणी से अन्य जीवों का कल्याण न होता तो क्यों तो प्रर्हन्त भगवान की दिव्यवाणी होती, क्यों श्री कुन्दकुन्द आचार्य समयसार लिखते और क्यों श्राप प्रवचन करते हैं ? "सिद्धचक्र की पूजा करने से कुष्ठ रोग दूर हो जाता है - ऐसा कथन शास्त्र में निमित्त से आता है; उसे कोई यथार्थ ही मान ले तो वह मिध्यादृष्टि है ।" मो० प्र० किरणें सा० अ० भगवान की भावसहित पूजा जब परम्परा से मुक्ति देने वाली है तो कुष्ठ रोग दूर होना तो साधारण बात है । श्रीपाल का कुष्ठ भगवान के प्रक्षालित गन्धोधक से दूर हुआ ही था । इसमें मिथ्यात्व की क्या बात है ? क्या आपको इस ऐतिहासिक घटना पर विश्वास नहीं है ? "अनन्तबार शास्त्रपाठी हुआ, अनन्तवार भगवान के समवशरण में गया, अनन्तवार द्रव्यलिंग भी धारण किया; किन्तु स्वयं कौन है और पर कौन है, उसका यथार्थ ज्ञान करके पराधीन दृष्टि नहीं छोड़ी ।" - मोक्ष० प्र० की किरणें पृ० २७४ "अनन्तबार ऐसा श्रागम ज्ञान हुआ कि बाह्य में कोई भूल दिखाई न दें । अब तो आगम ज्ञान का भी ठिकाना नहीं है । जो आगम से विरुद्ध प्ररूपण करता है वह तो मिथ्यादृष्टि है ही ।" - मोक्ष० प्र० की किरणें सा० अ० पृ० २७६ कान जो भी जब अब तक अनन्त भव धारण कर चुके हैं त उनको आगम के विरुद्ध अब तो प्ररूपण न करना चाहिये, वे जो उपदेश दूसरों को देते हैं उसका आचरण स्वयं तो करें । "दुर्लभ है संसार में, एक यथारथ ज्ञान" Jain Education International -भूधरदास For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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