Book Title: Digambar Jain Sahitya me Vikar
Author(s): Vidyanandmuni
Publisher: Jain Vidyarthi Sabha Delhi
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दि जैन साहित्य में विकार "पहले मैं मानता था कि मेरे विरोधी अज्ञान में हैं । आज मैं विरोधियों को प्यार करता हूँ, क्योंकि अब मैं अपने को विरोधियों की दृष्टि से भी देख सकता हूँ। मेरा बनेकान्तवाद, सत्य और अहिंसा, इन युगल सिद्धान्तों का ही परिणाम है।" -महात्मा गाँधी हरिजन, २१ जुलाई, १९४६ ई. विद्यानन्द मुनि Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वर्द्धमानाय नमः दि०जैन साहित्य में विकार। , लेखक पूज्य श्री १०८ विद्यानन्द जी मुनि प्रकाशक नेमिचन्द जैन 'विद्यार्थी' मंत्री-जैन विद्यार्थी सभा __ चांदनी चौक, दिल्ली माघवदी ५ शनिवार वीर सं० २४६० प्रथम वार मूल्य । १० नये पैसे । दिनांक ४ जनवरी १९६४ ००० १ ) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट् प्रेस, पहाड़ी धीरज, देहली। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक् दो शब्द मनुष्य अपने भावों को दो प्रकार से व्यक्त किया करता है१. वचन द्वारा तथा २. लेख द्वारा । हमको जो शब्द कानों द्वारा सुनाई देते हैं । वे यद्यपि जड़ पुद्गल द्रव्य की पर्याय रूप हैं किन्तु शब्द वर्गणायें मनुष्य के मुखान्तर्वर्ती जीभ, दन्त, ओठ, तालु, कण्ठ आदि के सम्पर्क से 'अ इ उ क ख' आदि अक्षरों के रूप में अथवा "देव, गुरु गाय" आदि विभिन्न प्रकार के शब्दों के रूप में या किसी अभिप्राय विशेष के प्रगट करने वाले शब्दों के समुदाय रूप वाक्यों (गाय एक उपयोगी पशु है आदि) के रूप में परिणमन किया करती हैं । उनको सुनने वाला व्यक्ति उस वक्ता (बोलने वाले) के हृदय की बात को समझ लेता है । इस तरह जड़ (निर्जीव) पौलिक शब्दों के माध्यम से आत्मा अपना भाव दूसरे सुमने वाले जीवों के सामने स्पष्ट रख देता है। सुनने वाले मनुष्य भी उन ही जड़ शब्दों के माध्यम से बोलने वाले के भावों को समझ लेते हैं । शब्द जड़ होते हैं इस कारण वे न तो स्वयं अपने निजी रूप में प्रामाणिक होते हैं और न अप्रामाणिक । शब्दों में प्रामाणिकता सत्यता यथार्थभाषित्व मनुष्य के आधार से प्राया करता है । तथा असत्य - भाषी, विश्वासघाती, छली, कपटी, मनुष्य के मुख द्वारा प्रगट हुए शब्द उस व्यक्ति को अप्रामाणिकता के आधार से असत्य अप्रामाणिक, विश्वास के अयोग्य हुआ करते हैं। यानी वक्ता की प्रामाणिकता से शब्दों में प्रामाणिकता आती है और वक्ता की अप्रामाणिकता से शब्दों में अप्रामाणिकता आया करती है । ( क ) Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ख) अर्हन्त भगवान की वाणी इसी कारण स्वतः (अपने प्राप) पूर्ण प्रमाण (सत्य-यथार्थ, विश्वस्य, श्रद्धेय) मानी जाती है, क्योंकि अर्हन्त भगवान पूर्ण ज्ञानी और पूर्ण वीतराग (कषाय-भावना-शून्य निर्मल, निर्विकार भाव वाले) होते हैं । इसी कारण ढाई हजार वर्ष बीत जाने पर भी सर्वज्ञ वीतराग भगवान् महावीर की (पार्ष ग्रन्थों में लिखित) वाणी पूर्ण प्रामाणिक मानी जा रही है। वक्ता लिखकर जो अपने भाव प्रगट करता है, उस विषय में भी ऐसी ही बात है। कागज या ताड़ पत्र आदि पर लिखा हुआ लेख या ग्रन्थ आत्मा से भिन्न जड़ पदार्थ है। कागज, ताड़पत्र, लेखनी, मसिपात्र (दवात) ये सब साधन ज्ञान-शून्य अचेतन पदार्थ हैं। कागज आदि पर लेखनी द्वारा विविध प्रकार के आकारों में लिखने वाले हाथ भी वास्तव में जड़ रूप पोद्गलिक शरीर के अंग हैं । फिर भी पर-पदार्थ रूप जड़ ग्रन्थ प्रामाणिक या अप्रामाणिक माने जाते हैं। उस प्रामाणिकता का आधार दुर्भावना-रहित स्व-परहितैषी आत्मा है । निर्जीव समयसार ग्रन्थ इसी कारण प्रामाणिक है कि विश्वहितैषी, स्वच्छ भावना वाले श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने उसको लिखा है। प्रचलित तोता मैना की कहानियाँ, अकबर वीरबल के लतीफे, वाममागियों के दुराचार-पोषक ग्रन्थ, नास्तिकता को पुष्ट करने वाले चार्वाकों के शास्त्र, एकान्तवाद की प्ररूपक पुस्तके, हिंसा विधान करने वाले ग्रन्थ; इसी कारण अप्रामाणिक हैं कि उनके लिखनेवाले व्यक्ति राग, द्वेष, मोह, अज्ञान, मिथ्या श्रद्धा, मिथ्या आचार आदि दुर्भावों से ग्रस्त हैं या थे उनके लिखे हुए ग्रन्थों ने संसार में हिंसा, व्यभिचार, कामवासना, मांस-भक्षण, मदिरापान, नास्तिकता आदि का प्रचार किया है। अतः सज्जन, सत् ज्ञानी, स्वपरहितैषी, जनसाधारण के उपकारक, निष्पक्ष (कदाग्रह, भ्रान्ति, संशय से मुक्त) विद्वान् ही प्रामाणिक ग्रन्थ लिख सकते हैं। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमको कोई भी ग्रन्थ लिखते समय अथवा किसी ग्रन्थ की टीका करते समय इस बात का विशेष ध्यान रखना आवश्यक है कि एक भी अक्षर परम प्रामाणिक जिनवाणी (जो कि श्री कुन्दकुन्द, उमा स्वामी, समन्तभद्र, पूज्यपाद, अकलंक देव, वीरसेन, विद्यानन्दि आदि आचार्यों के आर्ष ग्रन्थों में विद्यमान है) के विरुद्ध न हो। प्रत्येक शब्द उन आर्ष ग्रन्थों के अनुसार हो, ऐसा ध्यान रखकर गहरे अध्ययन के साथ जब हम कुछ सावधानी से लिखेंगे तब ही हमारा लिखा हआ लेख या ग्रन्थ प्रामाणिक होगा, स्व-पर-कल्याणकारी होगा और हमारी स्वच्छ कीति का दृढ़ स्तम्भ होगा। कुछ समय से ग्रन्थों की टीका करने या स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखने का ऐसा प्रवाह चल पड़ा है कि धड़ाधड़ नये-नये ग्रन्थ प्रकाशित तो हो रहे हैं, परन्तु उनमें मूल ग्रन्थकार के भावों को तोड़-मरोड़ कर बिगाड़ दिया जाता है, जिनवाणी के विरुद्ध अपनी भ्रान्त दुर्भावना का समावेश उनमें कर दिया जाता है। जो स्वतन्त्र पुस्तकें लिखी जाती हैं उनमें आर्ष-परम्परा का अनुकरण नहीं किया जाता, अपनी दूषित, कदाग्रही भावना को उन पुस्तकों में भर दिया जाता है । जिससे बे वास्तव में कल्याणकारी 'शास्त्र' न रहकर आत्म-घातक 'शस्त्र' बन गये हैं या बन जाते हैं, क्योंकि उनके पढ़ने, सुनने तथा अध्ययन करने से स्वसिद्धान्त के विषय में भ्रम-भावना जन्म लेती है। - ऐसे विकृत ग्रन्थों का पठन, पाठन, अवलोकन, स्वाध्याय, ग्रन्थभण्डारों में रखना निषिद्ध होना चाहिए जिससे भोले-भाले, सिद्धान्त से अपरिचित स्त्री-पुरुषों का अहित न होने पावे । __ 'कुन्ती' और 'कुत्ती' शब्द लिखने में या बोलने में एक बिन्दु मात्र का थोड़ा-सा अन्तर है, परन्तु उसके अभिप्राय में महान अन्तर है। कुन्ती पांडवों की माता का नाम है जब कि कुत्ती शब्द 'कुतिया' का वाचक है । एक शब्द की अशुद्धि से जब इतना महान् अन्तर पड़ जाता Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (घ) है तब आर्ष सिद्धान्त के विरुद्ध लिखे गये ग्रन्थों द्वारा तो भावों (अभिप्रायों) में महान् अनर्थकारी अन्तर पड़ जाता है। ऐसे अनर्थों से जन साधारण को बचाने की सद्भावना से मैंने यह छोटी सी पुस्तक लिखी है । दि० जैन साहित्य में इस समय जो विकार आ गया है तथा पा रहा है उसका परिज्ञान कराना ही इस पुस्तक का मूल ध्येय है । आशा है जनता इस पुस्तकसे महान लाभ प्राप्त करेगी। मैं भी अल्पज्ञ हूँ, अतः सावधानी रखते हुए भी मुझ से त्रुटि होना असम्भव नहीं है । विज्ञ पाठक यदि उन त्रुटियों को मेरे पास पहुँचाने का प्रयास करेंगे तो उन त्रुटियों को निकाल दिया जावेगा, साथ ही मैं उनका बहुत आभार भी मानूगा। ___ यहाँ पर मैं श्री ब्र० शीतलप्रसाद जी का उल्लेख कर देना आवश्यक समझता हूँ। यद्यपि उनके साथ मेरा प्रत्यक्ष परिचय नहीं हो पाया, अतः मैं उनके विषय में वैयक्तिक रूप से कुछ विशेष नहीं जानता परन्तु उनके द्वारा श्री कुन्दकुन्द आचार्य के ग्रन्थों पर लिखी गई उनकी हिन्दी भाषा टीकाओं का स्वाध्याय करने का मुझे जितना अवसर मिला है उससे यह बात जान सका हूँ कि उन्होंने अपनी टीकाओं में तथा मौलिक रचनाओं में जिनवाणी का निर्दोष रूप स्थिर रक्खा है, कहीं कोई विकार मुझे उनके ग्रन्थों में दृष्टिगोचर नहीं हुआ। मनुष्य अल्पज्ञता तथा कषायभाव के कारण अपने कलुषित एवं कल्पित निराधार भाव जब दूसरों के मस्तक में उतारना चाहता है जब मिथ्या-अभिमान उसको विकृत साहित्य लिखने की प्रेरणा करता है, उस दुरभिमान और दुराग्रह से लिखा गया ग्रन्थ या साहित्य उसकी चिरस्थायी अपकीर्ति का कारण तो बनता ही है किन्तु उसके साथ जनसाधारण को भी कुछ समय के लिये भ्रम में डालकर श्रद्धालु समाज में कलह और भ्रम का बीज बो देता है। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (च ) इसी कारण अपने ज्ञान का अभिमान, तपस्या का अभिमान और कीर्ति का प्रलोभन आत्मा को सत्पथ से भ्रष्ट करके अनेक अहितकारी अनर्थ फैलाता है । उन अनर्थों में विकृत साहित्यकी रचना भी एक है । भूतकाल में भी कुछ सिद्धान्त-विरुद्ध विकृत साहित्य लिखा गया था परन्तु दिगम्बर जैन समाज में वह स्थायी प्रामाणिक स्थान न पा सका । ऐसी ही बात वर्तमान के विकृत साहित्य के विषय में होगी, ऐसी मेरी दृढ़ आस्था है । हमने दि० जैन साहित्य में आये हुए विकार को दूर करने कराने की भावना से यह पुस्तक लिखी है, निन्दापरक भावना इस विषय मे हमारी लेशमात्र भी नहीं है, अतः बुद्धिमान पाठक उसको उसी रूप में जानने का यत्न करेंगे अन्यथा रूप न लेंग, ऐसी आशा है । श्रमण संस्कृति जैन संस्कृति का दूसरा नाम श्रमण संस्कृति है । 'श्रमरण' शब्द का अर्थ 'साधु' है । तदनुसार आद्य तीर्थंकर भगवान् ऋषभनाथ जैनसंस्कृति के प्रवर्तक तब ही बने जबकि उन्होंने समस्त आरम्भ परिग्रह, राजपाट, घर परिवार का त्याग करके अपना दिगम्बर वेष बनाया, और एक हजार वर्ष तक मौनभाव से तपस्या की, तब ही दे मोक्षपथ-प्रदर्शक या जैन संस्कृति का शिलान्यास करने वाले उपदेष्टा बने । छद्मस्थ ( अल्पज्ञ - अपूर्ण ज्ञानी) एवं सराग अवस्था में उन्होंने धर्म - उपदेश का एक वाक्य भी किसी को न कहा । अतएव जैनसंस्कृति का प्रारम्भ श्रमण भगवान ऋषभनाथ से हुआ । उनकी उस श्रमण परम्परा को उनके अनुवर्ती शिष्य श्रमणों ने तथा पश्चादुवर्ती श्रन्य २३ तीर्थंकरों ने अपनाया। इस तरह जैनसंस्कृति के प्रवर्तक कोई गृहस्थ नहीं हुए, न कोई चक्रवर्ती, मंडलेश्वर राजा या सेठ हुए, इसके प्रवर्तक तो सांसायिक कीचड़ से दूर निर्मल सच्चरित्र, ज्ञानी, ध्यानी, तपस्वी श्रमण (साधु) ही रहे हैं । जो व्यक्ति स्वयं विषय भोगों, शारीरिक राग में फँसा हो वह क्या आत्म शुद्धि का 'उपदेशक बन सकेगा। स्वयं इन्द्रियों का दास बनकर शरीर की सेवा करना और दूसरों को आत्मशुद्धि का उपदेश देना परस्पर विरुद्ध, निःसार, प्रभावहीन बात है । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( छ ) श्रमण श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र का आराधक होता है । उसको जिनवाणी पर अचल श्रद्धा होती है, उसे जैनसाहित्य का, संसार, मुक्ति, संसार के साधन, मुक्ति के साधन, आत्मा अनात्मा का हेय उपादेशका परिपक्व ज्ञान होता है और वह अन्तरङ्ग वहिरङ्ग तपश्चर्या का अभ्यासी होता है । जो व्यक्ति आध्यात्मिक ग्रन्थों में शुद्ध श्रात्मस्वरूप को पढ़कर अपने आपको सिद्ध समान शुद्ध-बुद्ध परमात्मा भ्रम से मान बैठे, वह क्या तो अपने कर्म रोग को पहचान पावेगा और क्या उस कर्मरोग से छूटने का यत्न करेगा । तथा क्या उसको जिनवाणी का श्रद्धान और ज्ञान होगा ? जिनवाणी की श्रद्धा और ज्ञान तो कर्मबन्ध तथा कर्ममोचन ( संवरनिर्जरा) के विधान की श्रद्धा एवं जानने में निहित हैं । उस श्रद्धा और ज्ञान का फल अन्तरंग बहिरंग तपस्या द्वारा कर्ममल से आत्मा का शोधन ( दूर करना) है । श्रमण का श्रम इस श्रद्धा ज्ञान और तपस्या में समाया हुआ ( निहित ) है | नाटक में राजा का ऐक्टिंग अभिनय करते समय कोई मनुष्य अपने आपको राजा समझ बैठे तो वह अपनी दरिद्रता की व्याधि से मुक्त नहीं हो सकता, इसी तरह शास्त्र में शुद्ध आत्मस्वरूप को पढ़कर कोई अपने आपको शुद्ध परमात्मा भ्रम से मान बैठे तो वह जन्म-मरण व्याधि से छूट नहीं सकता, इसके लिये तो उसे तपस्या का श्रय करना पड़ेगा । सोने की शुद्धि केवल कहने या समझ लेने से नहीं हुआ करती, उसके लिये तो अग्नि पर तपाने का, कठिन परिश्रम भी करना पड़ता है । ऐसे ही शुद्ध श्रद्धा और ज्ञान के साथ आत्मा को तपाने पर आत्मा कर्ममल से शुद्ध हुआ करता है । इस विधि में जितने वंश में कमी रहेगी, आत्मा भी उतने अंश में निर्मल न हो पावेगा । इस तरह भगवान ऋषभनाथ, भगवान महावीर एवं कुन्दकुन्द आचार्य की वाणी और तपस्या को आदर्श मानकर प्रत्येक श्रद्धालु धर्मात्मा स्त्री पुरुष को आगम अनुसार श्रद्धा ज्ञान और वचन - व्यापार ( उपदेश ) तथा लेखन करना ( लिखना चाहिये तथा यथाशक्ति चारित्र का आचरण करना चाहिये । विद्यानन्द मुनि Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ नमः सिद्धेभ्यः दि ० जैन साहित्य में विकार कुन्दकुन्दो गुरुर्जीयात्, कलावध्यात्मबोधकः । भव्याम्भोरुहमार्तण्डो मोहाज्ञाननिवारकः ॥ विश्ववन्द्य श्री जिनेन्द्र भगवान् के मुखकमल से प्रगट हुई जिनवाण समस्त जगत की कल्याणकारिणी माता है । उस जिनवाणी की सेवा हमारे पूर्वज महान विद्वान वीतराग ऋषियों- श्री धरसेन आचार्य, गुणधर, पुष्पदन्त, भूतबली, कुन्दकुन्द, उमास्वामी, समन्तभद्र, पूज्यपाद, अकलंक देव, विद्यानन्दि, वीरसेन, जिनसेन आदि ने की है । उन्होंने गुरु-परम्परा से प्राप्त जिनवाणी को अविकृत रूपसे ज्यों का त्यों अपने अमूल्य ग्रन्थों में निबद्ध कर दिया है । ग्रन्थ लिखते समय यही रहा कि - उनका ध्येय 'न्यूनमनतिरिक्त, यायातथ्यं विना च विपरीतात् ।' [ रत्नकरण्ड श्रावकाचार ] यानी — गुरुमुख से प्राप्त जिनवाणी को ग्रन्थ में लिखते समय न तो कुछ न्यूनता ( तत्वविवेचन में काट छाँट रूप से कमी) हो, न अधिकता ( अपनी कल्पना से कुछ और मिलावट ) हो, न कोई विपरीत बात लिखी जावे, जितना जैसा जाना गया है, वैसा उतना ही लिखा जावे | Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ ग्रन्थ लिखकर अन्त में उन्होंने अपनी छद्मस्थ अवस्था प्रगट करते हुए लघुता का भी प्रकाशन किया है और सम्भव त्रुटियों को सुधारने का निवेदन विज्ञ पाठकों से किया है | संस्कृत भाषा में सिद्धान्त के आद्य सूत्रकार श्री उमास्वामी तत्वार्थसूत्र ग्रन्थ के अन्त में लिखते हैं अक्षरमात्रपदस्वर होनं, व्यञ्जनसन्धिविवजित रेफम् । साधुभिरत्र मम क्षमितव्यं, को न विमुह्यति शास्त्रसमुद्र । अर्थ - इस तत्वार्थ सूत्र की रचना में यदि मैंने कहीं पर किसी अक्षर, किसी मात्रा, किसी पद, किसी स्वर की कमी की हो अथवा किसी व्यञ्जन, किसी सन्धि या रेफ के बिना कहीं कुछ लिख दिया हो, तो विज्ञ साधु जन मुझको क्षमा करें। इस कौन व्यक्ति गलती नहीं कर सकता ? प्रगाध शास्त्र समुद्र में सूत्रकार ने इस श्लोक द्वारा अपनी अल्पज्ञता को कितने सुन्दर ढंग से प्रकाशित किया है । श्री अमृतचन्द्र सूरि अपने प्रख्यात अहिंसा धर्म के विशद विवेचक ग्रन्थ पुरुषार्थ सिद्धि- -उपाय के अन्त में अपनी लघुता प्रगट करते हुए - लिखते हैं वर्णै: कृतानि चित्र, पदानि तु पदेः कृतानि वाक्यानि । वाक्यैः कृतं पवित्र शास्त्रमिदं न पुनरस्माभिः ॥२२६॥ 1 अर्थ – मैंने इस ग्रन्थ में कुछ भी नहीं किया । विचित्र वर्णों ( अक्षरों) से पद बने हैं और पदों से वाक्य बने हैं तथा वाक्यों द्वारा यह ग्रन्थ बना है । श्री पं० टोडरमल जी मोक्षमार्ग प्रकाशक नामक महाग्रन्थको लिखते हुए कहते हैं "मैं तो बहुत सावधानी रखोंगा। पर सावधानी करते भी कहीं सूक्ष्म अर्थ का श्रन्यथा वर्णन होय जाय तो विशेष बुद्धिमान होइ सो Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ संवारि करि शुद्ध करियो, यह मेरी प्रार्थना है ।' "" श्री पं० जयचन्द जी छाबड़ा अष्टपाहुड़ की भाषा टीका करते. हुए लिखते हैं -- "या में किछु बुद्धि की मंदतातें तथा प्रमाद के वशतें अर्थ श्रन्यथा लिखु तो बड़े बुद्धिमान मूल ग्रन्थ देखि शुद्ध करि वांचियो, मोकू अल्पबुद्धि जानि क्षमा कीजियो ।” "यहाँ इतना विशेष जानना जो काल-दोष हैं इस पंचम काल में अनेक पक्षपातकरि मतान्तर भये हैं तिनिकू भी मिथ्या जानि तिनका प्रसंग न करना, सर्वथा एकान्त का पक्षपात छोड़ि अनेकान्त रूप जिन वचन की शरण लेना ।" श्री पं० दौलतराम जी अपने सुन्दर पद्यग्रन्थ छहढाला के अन्त में कहते हैं लघुधी तथा प्रमाद तें, शब्द अर्थ की भूल । सुधी सुधार पढ़ो सदा, जो पावो भवकूल ॥ अर्थ -- प्रल्पबुद्धि के कारण तथा प्रमादवश यदि ( इस छहढाला ग्रन्थ के बनाने में ) कहीं पर शब्द या अर्थ की भूल हो गई हो तो संसार से पार होने के लिये बुद्धिमान पुरुष मेरी भूल को सुधार कर इस ग्रन्थ को पढ़ने की कृपा करें । इसी प्रकार अन्य ग्रन्थकारों ने भी सावधानी से महान ग्रन्थों की रचना करने के बाद अपनी लघुता प्रगट करके अपना सौजन्य दिखलाया है । परन्तु आज उस आदर्श पद्धति का अनुकरण नहीं रहा । आजकल के टीकाकार प्राचीन निर्दोष ग्रन्थों की हिन्दी, गुजराती आदि भाषाओं में टीका करते समय अपने पक्ष से ऐसा प्रयुक्त अनुचित गलत मैटर मिला देते हैं जिसका मूल श्लोक, पद्य या ग्रन्थ से मेल नहीं बैठता । ग्रन्थ या श्लोक का भाव विकृत हो जाता है और साधारण समझ वाली Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनता के हृदय में भ्रम बैठ जाता है । इस तरह वे व्यक्ति ग्रन्थ या श्लोक का अर्थ न करके महान अनर्थ करते हैं और जिनवाणी माता की अवज्ञा करके अनथ की परम्परा डालते हैं । इसके लिए मैं यहाँ कुछ उदाहरण पाठकों के सामने रखता हूँश्री समन्तभद्र आचार्य रचित रत्नकरण्ड श्रावकाचार एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है | इस ग्रन्थ पर श्री प्रभाचन्द्राचार्यकृत एक संस्कृत टीका है । तथा श्री पं० सदासुख जी की हिन्दी भाषा में एक अच्छी विस्तृत टीका है । इसके सिवाय श्री पं० पन्नालाल जी बाकलीवाल आदि विद्वानों के द्वारा लिखी गईं और भी अनेक साधारण टीकाएँ हिन्दी भाषा में प्रकाशित हो चुकी हैं । इसी रत्नकरण्ड श्रावकाचार ग्रन्थ पर भद्रपरिणामी, समन्तभद्र के अनन्यभक्त श्री पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने भी एक अच्छी टीका हिन्दी भाषा में लिखकर प्रकाशित की है । उस टीका सहित इस रत्न - करण्ड श्रावकाचार ग्रन्थ का नाम आपने 'समीचीन धर्मशास्त्र' रक्खा है । यह नाम आपने ग्रन्थ के दूसरे श्लोक के देशयामि 'समीचीनं धर्मकर्मनिबर्हणम्' पूर्वार्द्ध के 'समीचीन धर्म' इस शब्द के आधार पर रख दिया है । परन्तु ग्रन्थ का यदि प्रख्यात नाम 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' ही रखते तो अच्छा होता अस्तु । इस ग्रन्थ की भूमिका में श्री वासुदेव शरण अग्रवाल लिखित एक लेख भी प्रकाशित है । उसमें १७ वें पृष्ठ पर लिखा है सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातङ्गदेहजम् । देवा देवं विदुर्भस्म - गूढाङ्गारान्तरौजसम् ||२८|| अर्थ — धर्म से श्वान- -कुत्ता के सदृश नीचे पड़ा मनुष्य भी देव हो जाता है और पाप से देव भी श्वान बन जाता है । उक्त श्लोक का यह अर्थ गलत लिखा गया हैं । यह अर्थ २६ वें श्लोक Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ sarfr. देवोऽपि देवः श्वा जायते धर्मकिल्विषात् । कापि नाम भवेदन्या सम्पद्धर्माच्छरीरिणाम् ॥ के पूर्वार्द्ध का है । श्री मुख्तार जो प्रसिद्ध साहित्य-शोधक विद्वान हैं किसी भी ग्रन्थ की सूक्ष्म गलती को भी वे पकड़ लेते हैं, फिर भी वे अपने ग्रन्थ में यह त्रुटि कैसे छोड़ गये । साधारण व्यक्ति इस गलती द्वारा भ्रम में पड़ सकता है । इसी ग्रन्थ के ११२ वें पृष्ठ पर ग्रन्थकार श्री समन्तभद्र आचार्य का परिचय देते हुए आपने निम्नलिखित श्लोक लिखा है वन्द्यो भस्मकभस्मसात्कृतपटुः पद्मावतीदेवतादत्तोदात्त-पव स्वमन्त्रवधन- व्याहूत चन्द्रप्रभः । प्राचार्यस्त समन्तभद्रगरणभृद्य नेह काले कलौ, जैनं वर्त्म समन्तभद्रमभवद् भद्रं समन्तान्मुहुः ॥ पृष्ठ ६४ " इस पद्य में यह बतलाया गया है कि जो भस्मक रोग को भस्मसात् करने में चतुर हैं, पद्मावती नाम की दिव्य शक्ति के द्वारा जिन्हें उदात्त पद की प्राप्ति हुई; जिन्होंने अपने मन्त्र वचनों से (विम्ब रूप में ) चन्द्रप्रभ को बुलवा लिया और जिनके द्वारा यह कल्याणकारी जैन मार्ग (धर्म) इस कलि काल में सब ओर से भद्र रूप हुआ, वे गणनायक आचार्य समन्तभद्र पुनः पुनः वन्दना किये जाने के योग्य हैं ।" यहाँ पर श्री मुख्त्यार जी ने पद्य में आये 'पद्मावती देवता' शब्द का अर्थ ठीक नहीं किया । भगवान् पार्श्वनाथ की शासन देवी का नाम पद्मावती है। उसी देवी का उल्लेख उक्त पद्य में पद्यकार ने किया है । उस पद्मावती देवी का स्पष्ट उल्लेख न करके पं० जुगलकिशोर जी ने 'पद्मावती देवता' शब्द का अर्थ पलट दिया । 'पद्मावती देवी' को 'पद्मावती नाम को दिव्य शक्ति' लिख दिया है । 'दिव्य शक्ति' गुरणवाचक शब्द है जबकि पद्य में व्यक्तिवाचक संज्ञा है । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसी समीचीन धर्म-शास्त्र (रत्नकरण्डश्रावकाचार) के निम्नलिखित पद्यों की व्याख्या करते हुए श्री पं० जुगलकिशोर जी लिखते हैं दानं वैयावृत्यं धर्माय तपोधनाय गुणनिधये । अनपेक्षितोपचारोपक्रियमगृहाय विभवेन ।११०॥ व्यापत्तिव्यपनोद: पदयोः संवाहनं च गुणरागात् । वैयावत्यं यावानुपग्रहोऽन्योपि संयमिनाम् ॥११॥.. अर्थ-.........."और गौणता स उन तपस्वियों का भी समावेश है, जो भले ही पूर्णतः गृहत्यागी न हों, किन्तु गृहवास से उदास रहते हों। भले ही आरम्भ परिग्रह से पूरे विरक्त न हो, किन्तु कृषि, वाणिज्य तथा मिलों के संचालनादि जैसा कोई बड़ा आरम्भ तथा ऐसे महारम्भों में नौकरी का कार्य न करते हों और प्राय: आवश्यकता की पूर्ति जितना परिग्रह रखते हों। साथ ही विषयों में आसक्त न होकर जो संयम के साथ जीवन व्यतीत करते हुए ज्ञान की आराधना, शुभ भावों की साधना और नि:स्वार्थ भाव से लोकहित की दृष्टि को लिये हुये धार्मिक साहित्य की रचनादि रूप तपश्चर्या में रात-दिन लीन रहते हों।" पृष्ठ १४८-१४६ यहां पर श्री जुगलकिशोर जी मुख्त्यार ने वैयावृत्य करने के लिये संयमी मुनियों के समान साहित्य-सेवियोंको भी पात्र रूप से लिख दिया है जबकि मूल-ग्रन्थ में उनका उल्लेख नहीं है । टीकाकार को मूल ग्रन्थकार के उद्देश को बिगाड़ना उचित नहीं, ग्रन्थकार के शब्दों की व्याख्या टीकाकार विस्तृत कर सकता है, किन्तु उसकी सीमा से बाहर अपने पास से अन्य बातें लिखना उचित नहीं, क्योंकि इससे ग्रन्थकार के साहित्य में अवांछनीय विकार उत्पन्न होता है, जो कि साधारण जनता में भ्रम उत्पन्न करनेवाला बन जाता है । - इसके आगे आप क्षुल्लक श्रावक की व्याख्या में भी अपने उक्त नीति को अपनाते हुए लिखते हैं Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहतो मुनिवनमित्वा गुरूपकण्ठे व्रतानि परिगृह्य । भैक्ष्याशनस्तपस्यन्नुत्कृष्टश्चेलखण्डधरः ॥ १४७॥ " आजकल मुनिजन अनगारित्व धर्म को छोड़कर प्रायः मन्दिरों, मठों तथा गृहों में रहने लगे हैं ।" यहाँ पर श्री मुख्त्यार जी ने प्रकरण से बाहर और निराधार बात लिख कर टीका की सीमा का उल्लंघन किया है । प्राचीन काल में भी गृहस्थ श्रावक या राजा लोग घर परिवार त्यागी मुनियों को ठहरने के लिए पर्वतों में गुफायें, वसतिकाएँ तथा नगर के निकट वसतिकायें वनवाया करते थे, विहार करते हुए मुनिगण कुछ दिन तक वसतिकाथों में ठहर कर अन्यत्र विहार कर जाते थे, कभी-कभी मन्दिरों में भी कुछ दिन ठहर कर अन्यत्र चले जाते थे । दक्षिण प्रान्त में ऐसी सैकड़ों गुफाएँ अभी तक बनी हुई है, मदुरा के पास सैकड़ों गुफाएँ हैं । श्री धरसेन आचार्य गिरनार की चन्द्रक गुफा में रहते थे । प्राचीनकाल में मुनि-भक्त नाई और कुम्हार ने सम्मिलित रूप से अपने नगर के निकट एक वसतिका बनवाई थी । कुम्हार ने उस वसतिका में एक मुनि महाराज को ठहरा दिया था, उसका साथी नाई दिगम्बर मुनि द्वेषी था उसने उम वसतिका में से मुनि महाराज को निकाल दिया । इस बात पर वे दोनों परस्पर लड़ पड़े और मर कर वे वन में सिंह और सूअर हुए । ग्रन्थकार ने इसी रत्नकरण्ड श्रावकाचार के ११७वें श्लोक में पूर्वभव में मुनियों के लिए वसतिका बनवाने वाले उस मुनि भक्त सूकर का दृष्टान्त आवास दान के विषय में दिया है । जिनेन्द्र-भक्त सेठ की वह कथा भी प्रसिद्ध है जिसने क्षुल्लक के कपट वेषधारी चोर को सच्चा क्षुल्लक समझ कर अपने घर के चैत्यालय में ठहराया था । इस कथा का उल्लेख भी समन्तभद्राचार्य ने उपगूहन अंग के दृष्टान्त रूप से २० वें श्लोक में किया है । इत्यादि प्रमारणों से सिद्ध होता है कि प्राचीन समय में भी गृहत्यागी मुनि गृहस्थों के बनबाये Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुए वसतिकाओं गृह चैत्यालयों (मकानों) में तथा मन्दिरों में ठहरा करते थे, तब आज भी मुनि यदि वसतिका रूप धर्मशालाओं या मन्दिरों में कुछ थोड़े समय के लिए ठहर जाते हैं। फिर वहाँ से विहार कर जाते हैं, उस धर्मशाला पर अपना स्वामित्व नहीं जमाते, न वहाँ सदा रहते हैं, मुनि-भक्त गृहस्थों द्वारा ठहराने की व्यवस्था अनुसार ही वहाँ ठहरते हैं तो इससे उनका अनगारित्व धर्म कैसे छूट गया। जब कि इस समय न तो मुनि-भक्त राजाओं का शासन है, न वन पर्वतों में मुनियों के ठहरने की सुव्यवस्था है। ___ श्री जुगल किशोर जी मुख्तार सरीखे वयोवृद्ध ज्ञानवृद्ध अनुभवी विद्वान भी मूल श्लोकों के भाव से स्खलित हो गये हैं, तो फिर सामान्य विद्वान यदि इससे भी अधिक स्खलित होकर साहित्य में विकार उत्पन्न करें, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। इसी प्रकार शुद्ध साहित्य में नईनई त्रुटियाँ उत्पन्न होकर मौलिक ग्रन्थ अपने टीकाकारों की कृपा से विकृत बन जाता है। _कविवर श्री पं० दौलतराम जी का छहढाला ग्रन्थ प्रसिद्ध है, उसके मूल रूप में तथा उसकी हिन्दी टीका में भी इस समय हेर-फेर की जा रही है । इस हेर फेर से कोमलमति साधारण जानकार स्त्री पुरुष भ्रम में पड़े बिना न रहेंगे। छहढाला की दूसरी ढाल में गृहीत मिथ्या ज्ञान का स्वरूप बतलाने वाला निम्नलिखित पद्य है एकान्तवाद दूषित समस्त, विषयादिक पोषक अप्रशस्त । कपिलादि-रचित श्रुत को अभ्यास, सोहै कुबोध बहुदेन त्रास ॥१३॥ श्री पं० दौलतराम जी का छहढाला 'सिंघई बन्धु, देवरी (सागर) (म० प्र०) द्वारा प्रकाशित हुआ है, श्री नेमचन्द्र जी पटोरिया द्वारा इसका सम्पादन हुआ है। इस छहढ़ाला में उपरिउक्त पद्य इस तरह छाप दया है Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकान्तवाव दक्षित समस्त, विषयादिक पोषक अप्रशस्त । रागी-कुमतिन-कृत-श्रुत को अभ्यास, सोहै कुबोध बहु देन त्रास ।१३ यहाँ तीसरे चरण को एक दम बदल डाला है। इस तरह मूल ग्रंथ में परिवर्तन करने का दुःसाहस किया गया है। __ एक अभी नया छहढाला सोनगढ़ के तत्वावधान में गुजराती टीका से हिन्दी में अनुवादित होकर प्रकाशित हपा हैं। प्रकाशक श्री सेठी दि० जैन ग्रन्थमाला, ६२ धनजी स्ट्रीट, बम्बई नं० २ है । पुस्तक मिलने का पता दि० जैन स्वाध्याय' मन्दिर ट्रस्ट, सोनगढ़ (सौराष्ट्र) है । छहढाला की गुजराती टीका किसने की है, यह ज्ञात नहीं हो सका परन्तु उसका हिन्दी अनुवाद श्री मगनलाल जी जैन ने किया है। इस नवीन हिन्दी टीका में सोनगढ़ की पद्धति को अपना कर अनेक अनर्थ किये गए हैं जो मूल ग्रन्य की भावमयी भावना से भिन्न प्रकार के हैं। मैं यहाँ नमूने के लिए उसकी दूसरी ढाल के उक्त पद्य को ही रखता हूँ। . इस १३ वें पद्य का अन्वयार्थ तो टीकाकार ने ग्रन्थ के अनुकूल ठीक किया है परन्तु भावार्थ अर्थ का अनर्थ करके गड़बड़ कर दिया है। टीकाकार अपने भावार्थ के छठे परिच्छेद में लिखता है__"दया दान महाब्रतादि के शुभभाव-जो कि पुण्यास्रव है उससे, तथा मुनि को आहार देने के शुभभाव से संसार परित (अल्प मर्यावित) होना बतलाये, तथा उपदेश देने के शुभभाव से धर्म होता है-आदि जिनमें विपरीत कथन हो वे शास्त्र एकान्त और अप्रशस्त होने के कारण कुशास्त्र हैंक्योंकि उनमें प्रयोजनभूत सात तत्त्वों को यथार्थता नहीं है। जहां एक तत्व को भूल हो वहाँ सातों तत्त्वों की भूल होती ही है, ऐसा समझना चाहिये।" ऐसा लिखकर सोनगढ़ के टीकाकार ने मूल ग्रन्थकार श्री दौलतराम जी के सरल सीधे अभिप्राय को ही बदल डाला है । ग्रन्थकार ने जेनेतर Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत असत, नित्य अनित्य आदि एकान्तवादियों के लिखित ग्रन्थों के अभ्यास को गृहीतमिथ्याज्ञान बतलाया है तबसोनगढ़के इस टीकाकार ने जिस ग्रन्थ की वह टीका कर रहा है उप छहढाला ग्रन्थ को ही कुशास्त्र ठहरा दिया । एवंच समस्त चरणानुयोग के ग्रन्थों को भी यहाँ तक श्री कुन्दकुन्द आचार्य के ग्रन्थों को भी कुशास्त्र बतलाने का साहस किया है । क्योंकि श्री पं० दौलतराम जी ने छहढाला की पहली ढाल में दया को श्रेयस्कर बताया है। ' कहें सीख गुरु करुणाधार ।" चौथी ढाल में मुनि आदि सुपात्रों को दान करने को तथा अणुब्रत पालन करने को श्रावक का धर्म बतलाया है। मुनि को भोजन देय फेरि निन करै अहारै।, त्रसहिंसा को त्याग वृथा थावर न संहार (अहिंसा असुब्रत). पर बधकार कठोर निन्ध नहिं वचन उचारै । (सत्य अशुब्रत), जल मृतिकाविन और नाहिं कछु गहै प्रदत्ता, निज वनिता बिन सकल नारि सों रहै विरत्ता। अपनी शक्ति विचारि परिग्रह थोरो राखे । (अचौर्य, ब्रह्मचर्य, परिग्रह-परिणाम अणुव्रत)। छठी ढाल में प्रारम्भ से ही महाब्रतों को मुनि-धर्म कहा हैषटकाय जोव न हनन तें सब विध दरब हिंसा टरी, (अहिंसा महाबत प्रादि ।) इस तरह टीकाकार ने स्वयं अपने लिखे अनुसार छहढाला को कुशास्त्र प्रमाणित करके उसकी टीका करते हुए स्व-पर कल्याण ! किया है। दया तथा अहिंसा जैनधर्म का मूल है । श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने दया और अहिंसा को अपने चारित्रपाहुड़ आदि ग्रन्थों में धर्म लिखा है जैसेकि 'धम्मो दयाविसुद्धो, हिंसारहिये धम्मे" आदि । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. अणुब्रतों महाब्रतों को चारित्र पाहुड़ में श्रावक धर्म, मुनिधर्म बतलाया है । रयणसार ग्रन्थ मे दान करना, पूजा करना श्रावक का मुख्य धर्म बतलाया है। "दाणं पूजा मुक्खं सावयधम्म, ण सावया तेण विणा" __ रमणसार में श्री कुन्दकुन्द आचार्य लिखते हैं"जो मुरिण भुत्तसेसं भुजइ, सो भुजए जिणुवद्दिठ्ठ। संसारसार सोक्ख, कमसो रिणव्वाणवर सोक्खं ॥२२॥" अर्थ-जो भव्य जीव मुनियों को भोजन कराने के पश्चात बचे हए भोजन को स्वयं खाता है, वह संसार के श्रेष्ठ सुखों को पाता हुआ क्रम से सर्वोत्तम मोक्ष के सुख को पाता है, ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है। तत्वार्थसूत्र, रत्नकरण्ड श्रावकाचार, मूलाचार, पुरुषार्थ सिद्धि-उपाय चारित्रसार आदि चरणानुयोग के समस्त ग्रन्थों में उक्त दान, दया, प्रसुब्रत, महाब्रत, मुनियों का आहारदान करने आदि ब्रतों का धर्म रूप से विधान है वह सब आर्ष विधान इस नये टीकाकार की टीकासे कुशास्त्र सिद्ध होता है । टीकाकार की दृष्टि से जैन धर्म शायद दया और अहिंसा धर्म रूप नहीं है। इस तरह टीकाकार ने ऐसा अनर्थ करके कोमल मति बच्चों को तथा छहढाला पढ़ने वाली स्त्रियों को पथभ्रष्ट करने का यत्न अपनी इस टीका में किया है । इसके सिवाय और भी बहुत से सिद्धान्त-विरुद्ध विषय टीकाकार ने इस टीका में अन्यत्र लिखे हैं। पुण्य त्याज्य है या नहीं श्री कुन्दकुन्द आचार्य विरचित परम आध्यात्मिक ग्रन्थ समयसार पर श्री अमृतचन्द्र सूरि, श्री जयसेन आचार्य ने प्रामाणिक संस्कृत टीकाएँ लिखी हैं तथा पं० जयचन्द्र जी छावड़ा ने हिन्दी भाषा में प्रामाणिक टीका लिखी है। उन सभी टीकाओं में टीकाकारों ने समयसार का भाव Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठीक सुरक्षित रक्खा है, परन्तु कानजी स्वामी ने जो अभी समयसार का प्रवचन किया है उसमें समयसार का महान अनर्थ किया है । यहाँ इस विषय के २-४ प्रमाण देते हैं - सुदपरिचिदाणुभूवा सव्वस्स वि काममोग बंधकहा । एयत्तस्सुबलंमो गवरि ए सुलहो विहत्तस्स ॥४॥ इस गाथा का सीधा सरल अर्थ यह है कि समस्त संसारी जीवों ने काम भोग तथा कर्म बंध की कथा सुनी है, वे उससे खूब परिचित हैं तथा वे काम विषय भोग उनके अनुभूत हैं, परन्तु उनको इससे भिन्न प्रात्मा के एकत्व की उपलब्धि सुलभ नहीं है। कान जी स्वामी जी इस गाथा पर प्रवचन करते हुए बीच में लिखते हैं "मनुष्य अनाज खाता है। उसकी विष्ठा भूड नामक प्राणी खाता है।" ___ "ज्ञानी ने पुण्य को जगत की धूल को विष्ठा समझ कर त्याग दिया है, उधर अज्ञानी जन पुण्य को उमंग से अच्छा मानकर आदर करता है। इस प्रकार ज्ञानियों के द्वारा छोड़ी गई पुण्य रूप विष्ठा जगत के अज्ञानी जीव खाते हैं।"पृष्ठ १२४-१२५ । ___“कोई किसी पर का कुछ नहीं कर सकता, किन्तु पर का जो होना है वह तो हुना ही करेगा। तब फिर दान, सेवा, उपकार आदि न करने का तो प्रश्न ही नहीं रहता । ज्ञानी के शुभ भाव होता है किन्तु उसमें उसका स्वामित्व नहीं होता।" पृष्ठ १२ । ___कान जी स्वामी का यह प्रवचन न तो मूल गाथा के अनुरूप है, न श्री अमृतचन्द सूरि तथा जयसेनाचार्य की संस्कृत टीका के अनुकूल है और न पं० जयचन्द्र जी की हिन्दी भाषा टीका के अनुसार हैं । पुण्य को विष्ठा को हीन उपमा स्वयं श्री कुन्दकुन्द आदि किसी भी प्राचार्य ग्रन्थकार ने नहीं दी। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्य के विषय में जब विश्लेषण करके विचार किया जावे तो पुण्य के तीन वाच्यार्थ सिद्ध होते हैं-१-पुण्य आचरण, २-पुण्य कर्म३-पुण्य फल । इनमें से पंच पापों का त्याग करके सम्यग्दृष्टि गृहस्थ के लिए अहिंसा सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रह-परिमाण रूप पाँच अणुब्रत और मुनियों के लिए महाबत पुण्य आचरण है । यह पुण्य' आवरण गृहस्थ तथा मुनि दोनों को अपने अपने पद-अनुसार ग्राह्य (ग्रहण करने योग्य) प्रत्येक 'शास्त्रकार ने बतलाया है । क्योंकि पापों की विरक्ति के कारण अणुब्रत महाब्रतों से असंयम-निरोध के कारण संवर तथा असंख्यातगुणी निर्जरा भी हुआ करती है। इसके सिवाय महाब्रती मुनि ही आत्मध्यानस्थ होकर सातिशय अप्रमत्त सातवां गुण-स्थान प्राप्त करते हैं, उसी सातिशय अप्रमत्त द्वारा अन्त मेंशु द्धोपयोगी चारित्र वाला पाठवें गुण-स्थान का पहला शुक्लध्यान प्राप्त करते हैं, जिससे अन्तमुहूर्त में मोहनीय कर्म का क्षय करके यथाख्यात चारित्र पा लेते हैं। तदनन्तर अन्तर्मुहूर्त में ज्ञानावरण दर्शनावरण और अन्तराय कर्म का नाश करके केवल ज्ञान पाकर अर्हन्त बन जाते हैं। - 'इस तरह अशुब्रती-पुण्य परम्परा से और सातिशय महाबती-पुण्य आचरण शुद्धोपयोग का साक्षात उपादान कारण है। ___तथा च-अब्रती श्रद्धालु श्रावक जो मांस भक्षण, मदिरापान, वेश्यागमन, शिकार खेलना, जुआ खेलना आदि दुर्व्यसनों का त्याग करके जो शुद्ध खान-पान, न्याय व्यवहार, दया, दान आदिक पुण्य करता है वह भी त्याज्य नहीं है। पुण्य अपरनाम सरागचारित्र या व्यवहारचारित्र है,उसे भी क्या ज्ञानी विष्ठा के समान समझ छोड़ सकता है ? सराग, विराग का मिश्रित परिणाम ही सम्यग्दृष्टि (वीतराग देव, निम्रन्थ गुरु और जिनवाणी के Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ श्रद्धालु उपासक) का पुण्य है । उस पुण्य के राग-अंश के कारण जहाँ शुभ कर्मों का बन्ध होता है वहां ही उसी पुण्य के विराग-अंश से कर्मो का संवर और कर्मो की निर्जरा भी होती है। २-सम्यग्दृष्टिको कर्म-बन्धरूप पुण्य यानी-शुभकर्म-आस्रव-शुभकर्म-बन्ध त्याज्य है, परन्तु जब तक सम्यग्दृष्टि जीव समस्त आरम्भ परिग्रह का त्याग करके मुनि नहीं बन जाता और मुनि होकर भी जब तक सातिशय अप्रमत्त आत्मधानी नहीं बनता तब तक वह शुक्लध्यानी नहीं बन सकता । शुक्लध्यान की शुद्ध उपयोगी दशा में भी दशवें गुणस्थान तक राग-अंश रहने से उसके पुण्य कर्म का बन्ध होता ही रहता है। इस तरह दशवें गुणस्थान तक पुण्य-बन्ध से छुटकारा नहीं मिलता। अतः पुण्य कर्म-बन्ध संसार का कारण होने से त्याज्य होने पर भी सहज में नहीं छूटता । __अभव्य जीव तथा दूरातिदूर भव्य जीव के तो योग्यता न होने से पुण्य कर्म-बन्ध कभी भी (अनन्त काल तक) नहीं छूटता । इसके सिवाय पुण्यकर्म प्रकृतियों में त्रिलोकवर्ती जीवों का संसार सागर से उद्धार कराने वाली, सबसे श्रेष्ठ पुण्य रूप तीर्थकर प्रकृति शास्त्रों में सोलह कारण भावनाओं द्वारा उपादेय बतलाई है। . इस तरह पुण्यकर्म-बन्ध सर्वथा त्याज्य नहीं है, पापबन्ध की अपेक्षा वह उपादेय भी है। पंचमकाल में भरतक्षेत्र के जीवोंको जब मोहनीय कर्म के क्षय करने की योग्यता नहीं है, मुक्ति प्राप्त करने का या शुक्लध्यान का निमित्त कारण भूत बज्रऋषभ नाराच संहनन नहीं होता तो उस दशा में तो पापकर्मबन्ध से बच कर पुण्य कर्म का उपार्जन लाचारी से भी उपादेय है । यदि इस पुण्यकर्मबन्ध को आज का मनुष्य छोड़ दे तो उसके पापकर्म का ही बन्ध होता रहेगा। . . ३-पुण्य कर्म के उदय से मनुष्य भव, उच्च कुल, सुन्दर स्वस्थ शरीर, अच्छा गुणी परिवार, गृहस्थाश्रम का संचालन सुविधा के साथ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ करने योग्य धन-सम्पत्ति का लाभ आदि सामग्री मिलती है। उस पुण्य कर्म के फल को भी न तो किसी ग्रन्थकार ने विष्ठा के समान त्याज्य कहा है, धन सम्पत्ति के सिवाय पुण्य कर्म के फल रूप मनुष्य भव, उच्च कुल, स्वस्थ सुन्दर शरीर, तीर्थंकर पद, तथा साता वेदनीय के उदय से प्राप्त मुनिदशा का भी साता रूप सुख किसी तरह त्याग नहीं किया जा सकता और न अब तक किसी भी ज्ञानी ने इस तरह के (मनुष्य भव आदि का) पुण्य फल का कभी त्याग ही किया है। - विरक्त सम्यग्दृष्टि गृहस्थ दशा में पुण्य कर्म के उदय से प्राप्त धन सम्पत्ति का दान रूप में त्याग किया करता है, परिग्रह का परिमाण रूप सीमित त्याग करता है । और परिवार पोषण के लिये समर्थ भाई पुत्र आदि के हो जाने पर घर वार से भी विरक्त होकर समस्त आरम्भ परिग्रह का त्याग करके मुनि बन जाता है परन्तु पुण्यकर्म के फल से प्राप्त अपने मनुष्य शरीर, उच्च कुल एवं स्वस्थ सुन्दर शरीर को तो मुनि-अवस्था में भी नहीं छोड़ सकता। __ कानजी स्वामी भावुकता-वश पुण्य को विष्ठा की हीन उपमा देकर दूसरों को जहां पुण्य त्याग देने का उपदेश दे रहे हैं वहां स्वयं उस पुण्य आचरण को कर रहें हैं, पूर्व-संचित पुण्य कर्म का फल रुचि के साथ उपभोग कर रहे हैं तथा भविष्य के लिये कर्म का बन्ध कर रहे हैं। इसके सिवाय वे उक्त तीनों प्रकारों में से किसी भी तरह के पुण्य का त्याग कर भी नहीं सकते । फिर भी वे पुण्य को त्याज्य कहते हैं ? पर-पदार्थ कानजी स्वामी के कथन अनुसार जब पर-पदार्थ किसी का कुछ भला नहीं कर सकता तो कान जी स्वामी प्रवचन किस लिये करते हैं ? ग्रन्थ किस लिये प्रकाशित कराते हैं ? और मन्दिर क्यों बनवाते हैं ? क्योंकि प्रवचन, ग्रन्थ प्रकाशन और मन्दिर प्रतिमा आदि पर-पदार्थ हैं। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट् खण्ड प्रागम, कसायपाहुड़ तथा उनकी विस्तृत टीका धवल जयधवल महाधवल, गोम्मटसार आदि ग्रन्थ एवं स्वयं समयसार ग्रन्थ इस विषय का स्पष्ट पुष्ट समर्थन करते हैं कि पौद्गलिक कर्म अजर अमर आत्मा को जन्म मरण करा रहा है, उसके सम्यक्त्व ज्ञान चारित्र का प्रतिबन्धक निरोधक बना हुआ है । फिर समयसार की टीका में यह विपरीत क्यों लिखा कि पर-पदार्थ कुछ नहीं करता ज्ञानी समयग्दृष्टि जान बूझ कर पाप-क्रियाओं का त्याग करके सयम व्रत नियम तप आदि करता है, वह पाप-क्रिया का स्वामी नहीं बनता किन्तु आत्मशुद्धि के कारणभूत, विषय कषाय को घटाने वाले शुभ कार्यों यानी-व्यवहार चारित्रका तो स्वामी दृढ़ संकल्प के साथ बनता है। क्योंकि सम्यक चारित्र आत्मा का निजी गुण है । अपने गुण का स्वामी बनना ज्ञानी का मुख्य कार्य है जब कि पापाचरण का स्वामी अज्ञानी बना करता है। व्यवहार चारित्र निश्चय चारित्र का परम्परा तथा साक्षात् उपादान कारण है यह बात सिद्धान्त की दृष्टि से ऊपर बतला दी है। भूयत्थेणाभिगदा जीवा-जीवा य पुण्ण पावंच । प्रासव संवरणिज्जर बंधो मोक्खो य सम्मत्त ॥१३॥ समय सार की इस गाथा का सरल सीधा अर्थ यह है कि जीव अजीव आस्रव बंध संवर निर्जरा मोक्ष पुण्य पाप इन नौ पदार्थों को सत्यार्थ रूप से जान लेने पर सम्यक्त्व होता है। ____ "दान पूजा इत्यादि शुभ भाव और हिंसा असत्य प्रादि अशुभ भाव हैं, उन शुभाशुभ भावों से धर्म होता है, यह मान्यता सो त्रिकाल मिथ्यात्व है।" श्री अमृतचन्द्र सूरि तथा जयसेन आचार्य ने इसी आशय को पुष्ट करते हुए संस्कृत टीका लिखी हैं परन्तु कानजी स्वामी इस गाथा की टीका में अपने पास से नमक मिर्च मिला कर लिखते हैं "दान पूजा इत्यादि शुभ भाव और हिंसा असत्य आदि अशुभ भाव ____ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ हैं, उन शुभाशुभ भावों के करने से धर्म होता है, यह मान्यता सो त्रिकाल मिथ्यात्व है। भाग २ पृष्ठ ९ । हिंसा असत्य आदि पापों को किसी भी दि० जैन ग्रन्थ में धर्म नहीं माना, उनको पाप कहा है, किन्तु दान पूजा आदि शुभ भावों को धर्म तो समय सार के रचयिता स्वयं श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने अपने रयणसार ग्रन्थ में स्पष्ट लिखा है। दारणं पूजामुक्खं सावयधम्मरण सावया तेण विणा ।११॥ । अर्थ-श्रावक (गृहस्थ) धर्म में दान करना और पूजा करना मुख्य है, दान, पूजा के विना श्रावक नहीं हो सकता। | जिन मन्दिर बनवाकर उनमें प्रतिमा विराजमान इसीलिये की जाती है कि उसकी पूजा करने से गृहस्थ श्रावकों को वीतराग धर्म को यांशिक प्राप्ति होती है। आप भी इसी भावना से मन्दिरों के बनवाने के लिये अपने भक्तों से दान कराते हैं और जिन प्रतिमा के दर्शन पूजा के शुभ भावों से धर्म होना नहीं मानते ! यह विचित्र बात है । समाधिमरण समय सार की १६ वीं गाथा की टीका में भी आप ऐसी ही अप्रकृत सिद्धान्त-विरुद्ध बात लिखते हैं । देखिए कम्मे णोकम्मम्मिय अहमिदि प्रहकं व कम्म पोकम्मे । . या एसा खलु बुद्धी अप्पडिबुद्धो हवदि ताव ॥१९॥ अर्थ-जब तक यह आत्मा कर्म और नोकर्म (शरीर) को अपना पा स्वयं आपको उन कर्म नोकर्म रूप समझता है तब तक यह आत्मा प्रप्रतिबुद्ध (अनजान) रहता है। परन्तु इस गाथा की व्याख्या करते हुए कानजी लिखते हैं 'मरण के समय यदि सत्पुरुषों का समागम उनकी उपस्थिति हो को वे मृत्यु को सुधार देंगे वे मेरे भावों में सहायक हो सकते हैं-इस Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकार जो मानता है उसे अपनी स्वतंत्रता की श्रद्धा नहीं है।" पृष्ठ ३६ "सच्चे देव, गुरु, शास्त्र के निमित्त भी पर हैं, उनका अवलम्बन भी शुभ राग होने से स्वाधीन स्वभाव में सहायक नहीं है।" मरण के समय असह्य वेदना होती है, इस लिए उस समय प्रार प्रत्येक जीव के परिणाम क्लेशित अशुभ हो जाया करते हैं । उस अवस पर यदि उस जीव के निकट धर्मात्मा मनुष्य होते हैं तो उस मरणासन जीव के परिणामों में व्याकुलता कम कर। शान्ति उत्पन्न करने के लि अर्हन्त वीतराग का स्वरूप-दर्शक णमोकार मंत्र, वैराग्य भावना आ आदि पाठ सुनाते हैं, अशुभ अशान्त भावों को छोड़ने का उपदेश दें हैं, जिससे मरते समय उसके भाव वीतरागता की ओर आकर्षित हो हैं। ऐसे मरण को समाधिमरण कहा है । समाधिमरण करने की भावन धर्मात्मा में स्वभाव से होती है। श्री शिवकोटि आचार्य ने इसी विषय प भगवती प्राराधना नामक महान ग्रन्थ लिखा है । तत्वार्थ सूत्र (मारण त्रिकी सल्लेखना जोषिता), रत्नकरण्ड श्रावकाचार, मूलाचार आ ग्रन्थों में समाधिमरण का उपदेश दिया है। सर्पयोनिमें समाधिरण कारण ही भगवान पार्श्वनाथ के प्रतिबोध देने पर सर्प सर्पिणी मरक धरणीन्द्र पद्मावती हुए । जीवन्धर द्वारा कराये गये समाधिमरण से कुत्त देव हुआ, चारुदत्त सेठ के द्वारा प्रतिबुद्ध होकर मरणासन्न बकरा मरक देव हुआ। इसी प्रकार असंख्य संयमी, देशसंयमी, असंयमी सम्यग्दृषि मिथ्यादृष्टि स्त्री पुरुषों ने अन्य व्यक्तियों के अवलम्बन से समाधिमर द्वारा अचिन्त्य लाभ उठाया है। उस समाधिमरण को कानजी उपयोगी नहीं समझते, यह अद्भु चमत्कार है। पर-पदार्थ बीतराग देव, निर्ग्रन्थ गुरु और वीतराग की जिन-वाणी (स शास्त्र) पर-पदार्थ अवश्य हैं । परन्तु वे आत्मा की वीतरागता के प्रदर Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या निदर्शक हैं, अत: उनके दर्शन वंदन स्तुति पूजन से आत्मा में धीतरागता जाग्रत हुआ करती है जिससे कि आत्मा का स्वाधीन निर्मल स्वभाव प्रकट होने में सहायता मिलती है । इसी सिद्धि के लिये देव शास्त्र गुरु की भक्ति का राग कोरा राग न होकर संसार से छुड़ाने वाला वीतरागता मिश्रित राग होता है । उस मिश्रित वीतरागता के अंश द्वारा मिथ्यात्वका संवर होता है, सम्यक्त्व प्राप्त होता है और कर्मों की असंख्यात गुणी निर्जरा होती रहती है धवल सिद्धान्त ग्रन्थ में श्री वीरसेन आचार्य ने लिखा है... "जिणविम्ब-दसणेण णिवत्तरिणकाचिदस्स वि मिच्छत्तादिकम्मकलावस्स खयदंसरणादो।" अर्थ-जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमा का दर्शन करने से निधत्तनिकाचित रूप मिथ्यात्व आदि कर्म समूह क्षय हो जाते हैं । श्री कुन्दकुन्द देव ने देव शास्त्र गुरु को बोधबाहुड़ ग्रन्थ की २५ वीं गाथा में भव्य जीवों का कल्याण-उदय करने वाला बतलाया है (उदययरो भव- जीवाणं) क्या इन आर्ष ग्रन्थों पर कान जी स्वामी को श्रद्धा नहीं है ? __ समय सार के प्रवचन में कान जो स्वामी ने प्राचीन प्रामाणिक टीकाकारों की पद्धति का परित्याग करके स्वतन्त्र पद्धति को अपनाया है, अत: वे अनेक जगह जैन सिद्धान्त की अवहेलना करते गये हैं, मैंने यहाँ पर उपरिलिखित तीन गाथाओं के उदाहरण ही प्रस्तुत किये हैं। मुनि और कसाई बराबर हैं ? कान जी ने पं० टोडरमल जी लिखित मोक्ष मार्ग प्रकाशक ग्रन्थ की सहायक पुस्तक मोक्षमार्ग की किरण नामक लिखी है, उसमें उन्होंने बहुत सी सिद्धान्त-विरोधी निराधार बातों का समावेश कर दिया है जिनको पढ़कर साधारण स्त्री पुरुष भ्रान्त हो सकते हैं । यहाँ उसके कुछ उद्धरण देता हूँ। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "एक तो हजारों पशुओं का वध करने वाला कृष्ण लेश्या युक्त कसाई और दूसरा "मैं पर का कर सकता हूँ तथा पुण्य से धर्म होता है।"..."ऐसी मिथ्या मान्यतायुक्त शुक्ललेश्याधारी द्रव्यलिङ्गी जैन साधु...."यह दोनों जीव चार कषायों की अपेक्षा बराबर हैं।" [द्वि० अध्याय पृष्ठ ४६-४७] द्रयलिंग भालिंग महाव्रती निर्ग्रन्थ साधु आत्मध्यान की अवस्था में जब सातवें गुणस्थानवी होता है और स्वाध्याय, आहार, विहार, शयन आदि क्रियाओं के समय जब छठे गुणस्थान-वर्ती होता है, तब उसके 'भावलिंग (बाहरी निर्ग्रन्थ वेष के समान अन्तरंग निर्गन्थ भाव) होता है । यदि मुनि के अन्तरंग भाव छठे गुणस्थान से नीचे के यानी-पांचवें, चौथे, तीसरे. दूसरे, पहले गुणस्थान के हो जावें तो द्रलिंग के अनुरूप अन्तरंग भाव न रहने के कारण उस अवस्था में मुनि को द्रव्य लिंगी यानी-केवल बहिरंग साधना वाला मुनि कहा जाता है।। तदनुसार यदि कोई अभव्य मनुष्य मुनिलिंग धारण करके पंच महाव्रत पालन करता है, तब तो वह सदा मिथ्या-दृष्टि एवं द्रव्य-लिंगी साधु ही बना रहता है और यदि कोई भव्य पुरुष मुनि ब्रत धारण करता है तो वह कभी भावलिंगी मुनि होता है और कभी प्रत्याख्यानावरण कषाय, कभी अप्रत्याख्यानावरण कषाय और कभी अनन्तानबन्धीकषायका उदय हो आने से सकलसंयम के भावों से च्युत हो जाने के कारण द्रव्यलिंगी भी बन जाता है। इस कारण कान जी का यह लिखना गलत है कि "द्रव्यलिंगी मुनि के अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन ये चारों कषायें होती हैं।" बत-विहीन सम्यग् दृष्टि के भाव हो जाने पर मुनि अपने भावों की अपेक्षा चतुर्थ गुरणस्थानवी, तथा देशसंयम के भाव हो जाने पर संयतासंयत गुणस्थानी हो जाने के कारण ___ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ भव्य मुनि द्रव्यलिंगी होकर भी मिथ्यादृष्टि नहीं होता । अतः द्रव्यलिंगो मुनि मिथ्यादृष्टि ही हो, ऐसा एकान्त नियम नहीं है । इस कारण मुनि और जीवबध करने वाले कसाई में कषार्यों की अपेक्षा समानता बतलाना गलत है । दूसरे - कोई अभव्य पुरुष संसार, शरीर और विषय भोगों से विरक्त होकर मुनिदीक्षा ले ले, तो वह द्रव्यलिंगी मुनि अपने अन्तरंग के करुणामय भावों तथा शारीरिक, सांसारिक विरक्ति के कारण कसाई से असंख्यात गुणा अच्छा शुभ परिणामी होता है । कसाई के भाव दुष्ट निर्दय होते हैं जबकि मुनि के भाव अहिंसा, दया रूप होते हैं । कसाई छुरी से बेधड़क जीवों का कत्ल करता है और मुनि अपनी किसी भी प्रकृति से सूक्ष्म जीवों का भी कभी संकल्पी घात नहीं करता । इसके सिवाय कसाई के असत्य भाषण, चोरी, कुशील, परिग्रह, मांस भक्षण, मदिरापान, शिकार आदि पापों एवं दुर्व्यसनों का त्याग नहीं होता अतः उसके परिणाम सदा कलुषित रहते हैं जबकि द्रव्यलिंगी मुनि पंच पापों और सातों व्यसनों से रहित व्यावहारिक सच्चारित्रनिष्ठ होता है, अत: उसके परिणाम इस दृष्टि से शुभ कोमल, सरल, सदाचारी होते हैं । परिणामों के इसी महान् अन्तर के कारण कसाई नरक में जाता है और द्रव्यलिङ्गी मुनि सोलह स्वर्ग से भी ऊपर नौवें ग्रेवेयक का अहमिन्द्र पद तक प्राप्त कर सकता है । इस तरह भी नरकगामी कसाई और ग्रेवेयक विमानगामी द्रव्यलिङ्गी मुनि एक समान नहीं हो सकते । द्रव्यलिङ्गी मुनि अपनी वैराग्यमयी बाह्य परिणति से तथा श्रद्धा ज्ञान चारित्र की ओर प्रेरणा करने वाले अपने सत् उपदेशों से संसार के जीवों का कल्याण करता है, जीवों को कुपथ से हटाकर सुपथ पर लगता है, उनमें श्रद्धा, ज्ञान, वैराग्य उत्पन्न करके उन्हें संसार से विरक्त करता है । द्रव्यलिङ्गी मुनि का उपदेश पाकर बहुत से भव्य जीव मुनि Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ दीक्षा लेकर शुक्लध्यानी हो मुक्त भी हो जाते हैं । इस तरह द्रव्यलिङ्गी मुनि संसार का बहुत उपकारी होता है । उससे जितना हो सकता है उतना अपना भी कल्याण करता है । कोई प्राध्यात्मिक प्रवक्ता समयसार का उपदेश करता रहे परन्तु उसके अन्तरंग में मिथ्यात्व कर्म का उपशम, क्षय या क्षयोपशय न हो पावे, जिससे कि अन्य व्यक्तियों को सम्यक्त्व का उपदेश देता हुआ भी स्वयं मिथ्यात्वी ही बना रहे, तो क्या ऐसा अब्रती आध्यात्मिक व्याख्याता भी क्या चारों कषायों के उदय के कारण बकरा काटने वाले कसाई के समान है ? यह प्रश्न कानजी स्वामी के भी सामने है क्योंकि अध्यात्म उपदेश देने वाला व्यक्ति सम्यग्दृष्टि हो हो, यह कोई नियम नहीं है । कानजी स्वामी को जरा सोच समझ कर, सिद्धान्त पर दृष्टि रखते हुए बोलना चाहिये । पुण्य 'मैं परका कर सकता हूँ तथा पुण्य से धर्म होता है ।' यह मान्यता क्षयोपशय सम्यग्दृष्टि के भी हुआ करती है, सम्यक् प्रकृति के उदय से क्षयोपशय सम्यग्दृष्टि के सम्यक्त्व में " यह मैंने मन्दिर बनवाया है, यह मेरा मन्दिर है" ऐसे भाव तथा भगवान पार्श्वनाथ विघ्नहर्ता हैं आदि भाव हुआ करते हैं । गोम्मटसार टीका में इसका विवेचन है । एवं - चौथे पांचवें छठे और सातवें गुणस्थान में पुण्य भावों से ही कर्मसंवर, कर्मनिर्जरा रूप धर्म हुआ करता है जो कि मोक्ष का या शुद्ध उपयोग का कारण है । सातिशय अप्रमत्त गुणस्थान के अन्त में शुभभाव ही शुद्धभाव होकर आठवां गुणस्थान हो जाता है । सम्यग्दृष्टि का पुण्य संसार का कारण नहीं होता, सातवें गुणस्थान की अपेक्षा साक्षात् शुद्ध परिणति का लिये सम्यक् दृष्टि जीव के पुण्य भावों से धर्म होता है, यह बात बिलकुल परम्परा से तथा कारण है । इस Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ ठीक है । इतना ही नहीं अपितु यह कहना भी ठीक है कि सम्यग्दृष्टि के पुण्य भाव स्वयं धर्मरूप हैं । सम्मादिट्टी पुण्णं ण होइ संसारकारणं णियमा । मोक्खस्स होइ हेउं जइवि णियारणं सो रग कुरणई ॥ अर्थ - सम्यग्दृष्टि का पुण्य नियम से संसार का कारण नहीं है । वह सम्यग्दृष्टि यदि निदान ( आगामी सांसारिक सुखों की इच्छा ) न करे तो उसका पुण्य मोक्ष का ही कारण है । कानजी को यह बात समझनी चाहिये कि सम्यग्दृष्टि का पुण्यभाव सराग वीतराग भाव का मिश्रित परिणाम होता है, जैसा कि तीसरे गुणस्थान का मिश्रित परिणाम होता है | वर्तमान पंचमकाल में ही हीनसंहनन आदि कारणों से किसी भी व्यक्ति को शुद्ध उपयोग या निश्चय धर्म, शुक्लध्यान नहीं हो सकता, इस कारण पाप विरक्त जिनवारगी के श्रद्धालु, जिनवाणी के ज्ञाता, सदाचारी स्त्री पुरुषों के शुभभावमय पुण्य ही हो सकता है, जैसा कि स्वयं | कानजी स्वामी के भी संभव है । तो क्या इस समय कोई व्यक्ति धर्मात्मा हो ही नहीं सकता ? - भावसंग्रह इस प्रश्न का स्पष्ट उत्तर देते समय कानजी को अपनी भूल स्वयं तीख जावेगी । जिनवाणी और पर - स्त्री समान हैं ? 'मोक्षमार्ग को किरण' पुस्तक में ८०वें पृष्ठ पर कानजी लखते हैं " श्री वीतराग की वाणी का श्रवण भी पर-विषय है और स्त्री भी - विषय है। ज्ञानी के पर विषय की रुचि नहीं है । वीतराग की वाणी को श्रवण की भी भावना ज्ञानी के नहीं है ।" Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ जन संस्कृति का मूल-आधार जहां सत्श्रद्धा, सत्ज्ञान, सच्चारित्र है, वहाँ उस श्रद्धा ज्ञान आचार का मूल कारण वीतराग देव, जिनवाणी और निर्ग्रन्थ गुरु हैं । अतएव सम्यक्त्व-उदय करने के लिए यह अनिवार्य आवश्यक है कि स्वच्छ हृदय से वीतराग देव, जिनवाणी और निर्ग्रन्थ गुरु की श्रद्धा भक्ति, उपासना की जावे। आत्मा में सत्ज्ञान का विकास तभी होता है। केवल ज्ञान होने से पहले सभी जीव छद्मस्थ (अल्पज्ञानी) होते हैं श्रद्धालु स्त्री पुरुष जिनवाणी को सुनकर तथा स्वाध्याय करके अपने ज्ञान को विकसित किया करते हैं । आजकल की जनता में तो अवधि, मनःपर्यय ज्ञान किसी को है नहीं किन्तु इसके साथ ही विशिष्ट मतिज्ञान और पूर्ण श्र तज्ञान भी नहीं है । जब चौथे काल के अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी भी समवशरण में जाकर रुचि से जिनवाणी (दिव्यध्वनि) सुनते हैं और उसी के निमित्त से अपनी ज्ञान-वृद्धि करके मुक्ति प्राप्त करते हैं, तब आज कान जी स्वामी श्रद्धालु जनता को श्रद्धा से भ्रष्ट करने के लिये उल्टी बात कहते हैं कि 'ज्ञानी को वीतराग की वाणी श्रवण करने की भावना नहीं होती।' "अज्ञानी (मूर्ख) तथा मिथ्याज्ञानी को जिनवाणी सुनने की भावना न हो" यह बात तो मानी जा सकती है परन्तु “सम्यरज्ञानी के अपार जिन-वारणी सुनने की भावना न होवे ।" यह बात तो बिलकुल उलटी है। नियमसार ग्रन्थ में श्री कुन्दकुन्द प्राचार्य ने पर-पदार्थ रूप जिनवारणी को सम्यक्त्व की उत्पत्ति का कारण बतलाया है “सम्मत्तस्स णिमित्त जिणसुत्त तस्स जाणया पुरिसा" यानी-सम्यक्त्व उत्पन्न होने का निमित्त कारण जिनसूत्र (जिनवाणी) तथा जिनवाणी के ज्ञाता पुरुष है। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ कान जी अपने आपको महान ज्ञानी मानते हैं (किन्तु सब कोई जानता है तथा स्वयं कान जी स्वामी समझते हैं कि उनका ज्ञान, समुद्र में एक बूद के बराबर है। ) फिर भी वे जिनवाणी-समयसार, प्रवचनसार आदि ग्रन्थों का स्वाध्याय रुचि से स्वयं क्यों करते हैं ? खुद (स्वयं) जिस बात को हितकारी समझकर करना और दूसरों को उस बात से दूर रखने की चेष्टा करना, विलक्षण बात है। जिनवाणी को परस्त्री की हीन उपमा देना कितना निन्दनीय है यह बात भी उनके मन में नहीं आती ? जब बुद्धिमान पुरुष अच्छे ग्रन्थों द्वारा अपनी ज्ञानवद्धि करता है तब कान जी स्वामी जिनवाणी-आर्षग्रन्थों को 'पर-विषय' बतलाकर उनके में रुचि पूर्वक स्वाध्याय से साधारण जनता को वंचित रहने का उपदेश देते हैं । कान जी का स्मरण सोनगढ़ में चम्पा बहिन बहुत ज्ञानवती विदुषी समझी जाती हैं। उसने अपने पिता जी को अन्तिम समय (मृत्यु के समय) एक पत्र लिखा था । वह पत्र 'आत्म-धर्म' पत्र के १२ वें वर्ष के ५ वें अंक में निम्नलिखित प्रकाशित हुआ है--- “परमपूज्य महाराज श्री कान जी परम पुरुष हैं उनका बहुमान पूर्वक स्मरण करना चाहिए।" "उपरोक्त भावना बहिन श्री (चम्पा बहिन) ने अपने पूज्य पिताजी को अन्तिम समय में भाने के लिए लिख दी थी। जिज्ञासुओं के लिए उपयोगी होने से यहाँ दी है।" ___ यहाँ विचारणीय यह है कि सम्यग्दृष्टि के लिये वन्दनीय तथा स्मरण करने योग्य अर्हन्त, सिद्ध , प्राचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु हैं जिनको णमोकार मंत्र में नमस्कार किया गया है । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कान जी उक्त पाँच परमेष्ठियों में से कोई भी नहीं हैं वे एक साधारण अब्रती हैं। उनके खान पान, आहार विहार आदि में वैराग्य का कोई चिह्न नहीं पाया जाता, ऐसी दशा में मृत्यु समय उनका स्मरण करने की प्रेरणा करना कहाँ तक उचित है ? उपदेश देना जड की क्रिया है ? मोक्षमार्ग की किरण–पुस्तक में १७८ वें पृष्ठ पर कान जी लिखते हैं "दूसरों को उपदेश देना मुनि का लक्षण नहीं है, उपदेश जड़ की क्रिया है, प्रात्मा उसे नहीं कर सकता।" शब्द पुद्गल वर्गणा रूप होते हैं, अतः वे जड़ हैं, यह बात ठीक है, परन्तु इसके साथ ही ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि उपदेश रूप शब्द केवल जड़-क्रिया रूप नहीं होते, जगत का कोई भी जड़ पदार्थ (शब्द वर्गणा) अपने आप शब्द रूप परिणत नहीं हुआ करता, यदि हो तो उसे कान जी स्वामी बतलावें । ज्ञानी आत्मा की प्रेरणा से शब्द वर्गणाएँ शब्द रूप परिणत होती हैं, श्री पूज्यपाद आचार्य ने 'सर्वार्थसिद्धि' के पांचवें अध्याय में ऐसा ही लिखा है। सुनने वाले आत्मा को दे शब्द हेय उपादेय, कर्तव्य अकर्तव्य, सुपथ कुपथ का ज्ञान उत्पन्न कराते हैं। इस तरह उपदेशी शब्दों का प्रेरक निमित्त कारण ज्ञानी आत्मा है और उन शब्दों का फल श्रोता का ज्ञान, विवेक जाग्रत रूप होता है। इसी के अनुसार तीर्थङ्कर की दिव्यध्वनि होती है और असंख्य जीव समवशरण में जाकर उसे सुनते हैं। जिससे उनका आध्यात्मिक हित होता है। - अर्हन्त भगवान के पद-विह्नों पर चलकर मुनि भी वैसा उपदेश देते हैं । जिससे उपदेश सुनने वाले भव्य जीव मिथ्यात्व, कुज्ञान और दुराचार छोड़ कर स्व-पर-कल्याण करते हैं। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ इसलिए कान जी का उपर्युक्त लिखना गलत है, भ्रम पैदा करने वाला है तथा जैन सिद्धान्त के विरुद्ध है, अतः वह जैन साहित्य का विकार है । हिंसा से पुण्य बन्ध कानजी कहते हैं'हिंसा करते समय भी कसाई को अल्प- अल्प पुण्यबन्ध होता है ।" - मोक्षमार्ग की किरण अ० ३ पृष्ठ १२२ तत्वार्थ सूत्रकार श्री उमास्वाति आचार्य ने तत्वार्थ सूत्र के छठे अध्याय का तीसरा सूत्र लिखा है 'शुभः पुण्यास्याशुभ: पापस्य ।' ६-३ । अर्थ — जीवरक्षा करना, हित मित सत्य प्रिय वचन बोलना आदि शुभ मन वचन काय की प्रवृत्ति ( शुभ योग ) पुण्य - आस्रव का कारण है और हिंसा करना, असत्य बोलना, कामक्रीडा आदि अशुभ योग पाप - आस्रव (असातावेदनीय आदि अशुभ कर्मों के आस्रव) का कारण है । पुण्य- आस्रव और पाप आस्रव की इस परिभाषा का सभी दि० जैन ग्रन्थकारों ने समर्थन किया है । तदनुसार कसाई बकरा गाय आदि जीवों की छुरी आदि से हिंसा करते समय अपने मन वचन काय योग से पाप कर्मों (असातावेदनीय, नरक गति आदि) का आस्रव तथा बन्ध करता है । परन्तु कानजी पुण्य पाप आस्रव की उस आर्ष व्याख्या पर पानी फेरते हुए जीव हिंसा करते समय भी कसाई के पुण्य-बन्ध का कपोलकल्पित विधान करके सर्वसाधारण को पथभ्रष्ट करना चाहते हैं । हिंसा करने से पुण्यबन्ध होना' यह कानजी के सिवाय अन्य किसी जैन ग्रन्थकार ने नहीं बतलाया । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ दिव्यध्वनि से कुछ लाभ नहीं ? मोक्षमार्ग की किरण पुस्तक के २१२वें पृष्ठ पर कानजी ने लिखा है-- "तीर्थङ्कर की वाणी से किसी को लाभ नहीं होता।" जगत का मोह अज्ञान अन्धकार तीर्थङ्कर की दिव्यध्वनि (वाणी) से दूर होकर जगत में धर्म का तथा सत् ज्ञान का प्रचार होता है, भव्य जीवों का मिथ्यात्व, भ्रम, संशय आदि दूर होता है। इसी कारण असंख्य सुर नर पशु रुचि के साथ समवशरण में आकर तीर्थकर की वाणी को सुनकर आत्महित करते हैं, समयसार आदि ग्रन्थ भगवान महावीर की वारणी के अनुसार ही लिखे गये हैं। श्री कुन्दकुन्द प्राचार्य अष्ट पाहुड़ में लिखते हैं जिरणवयणमोसहमिणं विसयसुहविरेयरणं अमियभूयं । जरमरणवाहि हरणं खयकरणं सव्वदुक्खाण ॥१७॥ अर्थ-तीर्थङ्कर जिनेन्द्र की वाणी सांसारिक विषयसुख रूपी रोग का विरेचन कराने के लिये (मल त्याग कराने के लिये) अमृतरूप औषधि है, जरामरण व्याधि को दूर करने वाली है तथा समस्त दुःखों का क्षय करने वाली है। श्री कुन्दकुन्द आचार्य तो इस तरह तीर्थंकर की वाणी को जगत का कल्याण करने वाली कहते हैं और कुन्दकुन्द आचार्य में अपनी गहरी श्रद्धा भक्ति प्रगट करने वाले कानजी कुन्दकुन्द आचार्य के उक्त कथन के विरुद्ध कहते हैं कि "तीर्थकर की वाणी से किसी को लाभ नहीं होता" कानजी का यह उल्लेख कितना अनर्थकारी असत्य है ? इसको जैनसिद्धान्त के ज्ञाता विद्वान स्वयं अनुभव करें। “यदि संसार में तीर्थंकर की वाणी से भी लाभ नहीं हआ तो क्या उससे विपरीत कान जी के कथन से जनता का लाभ हो सकेगा ?" यह एक प्रश्न है जिस पर सर्वसाधारण को विचार करके निर्णय करना है। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .२६ तीर्थ-वंदना व्यर्थ है ? कानजी स्वामी मोक्षमार्ग की किरण पुस्तक के १७० वें पृष्ठ पर लिखते हैं कि ___"कोई कहै कि "सम्मेदशिखर और गिरनार का वातावरण ऐसा है कि धर्म की रुचि होती है, ऐसा मानने वाला मिथ्यादृष्टि है।" ___ सम्मेदशिखर गिरनार आदि स्थानों से तीर्थकरों तथा असंख्य अन्य मुनियों ने मुक्ति प्राप्त की है, उन स्थानों पर जाकर प्रत्येक स्त्री पुरुष उन मुक्त पुरुषों का हृदय से स्मरण करते हैं, इस कारण वहाँ के शान्त वातावरण से वीतरागता का उदय भव्य जीवों को हुआ करता है, अनेक व्यक्ति तो वहाँ जाकर संसार से विरक्त हो कर मुनि भी बन जाते हैं । इसी कारण उन मुक्ति स्थानों को 'तीर्थ' (संसार सागर से पार करने वाला) कहते हैं। परन्तु कानजी उस धार्मिक श्रद्धा को मिथ्यात्व कह कर भोली जनता में भ्रम फैलाते हैं । परमात्मप्रकाश में लिखा है "व्यवहारनयेन निर्वाणस्थान-चैत्यालयादिके तीर्थभूतगुण-स्मरणार्थ तीर्थ भवति ।" __ यानी–व्यवहारनय से निर्वाणभूमि और चैत्यालय (जिन मंदिर) आदि में तीर्थस्वरूप तीर्थंकरादि के गुण स्मरण करने के लिये तीर्थ (संसार सागर से पार करने वाला स्थान) होता है। किन्तु कान जी उलटी बात लिखकर जनता को तीर्थ-वन्दना से दूर रखना चाहते हैं । इसके साथ ही स्वयं इन सम्मेद-शिखर, गिरनार आदि तीर्थों की वन्दना भी करते हैं। शायद कान जी अपने आपको सिद्ध समान मान कर तीर्थ-वन्दना को अहितकारी या व्यर्थ समझते होंगे ।अपने पापको Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध समझने वालों के लिये श्री पं० टोडरमल जी ने मोक्षमार्ग प्रकाश में लिखा है कि "अपनी प्रात्मा को सिद्ध समान अनुभव है, सो आप प्रत्यक्ष संसारी है । भ्रम करि आपको सिद्ध मान, सोई मिथ्या दृष्टि है।" निश्चय-एकान्तवादी कान जी आदि श्री पं० टोडरमल जी के उस वाक्य पर गम्भीरता से विचार करें। जियो और जीने दो अन्त में मैं एक बात कह कर इस प्रकरण को समाप्त करता हूँ। कान जी ने मोक्षमार्ग की किरण के १८४ वें पृष्ठ पर लिखा जीयो और जीने दो, ऐसा अज्ञानी कहते हैं। आजकल का मनुष्य इतना अधिक जिह्वा-लोलुपी बनता जा रहा है कि मुर्गा आदि जीवों को जीवित जलाकर उसका मांस खाने लगा है, अण्डा खाता है, मछली, कबूतर आदि जीवों को बड़ी निर्दयता से मारकर उनसे अपना पेट भरता है और प्रसन्न होता है । जीवित गाय, भैंसों के शरीर से चर्म उतारा जाता है, गर्भिणी गायों, भेड़ों, बकरियों को औषध खिला कर उनका गर्भपात कराते हैं फिर उनके पेट से निकले हुए बच्चों का कोमल चमड़ा उतार कर कोमल जूते बनाते हैं । इत्यादि रूप से आज का निर्दय मनुष्य हिंसा कर रहा है । ऐसे धर्म-कर्म-भ्रष्ट निर्दय हिंसक मनुष्यों को जीव-हिंसा से छुड़ाने के लिये साधारण जनता में कहा जाता है कि 'जियो और जीने दो।' यानी-तुम स्वयं शान्ति से अपना जीवन व्यतीत करो तथा अन्य जीवों को शान्ति के साथ जीने दो। अर्थात् किसी भी जीव को मत सताओ। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस अहिंसा-सूचक दयामय वाक्य से जनता का लक्ष्य हिंसा तथा निर्दयता की ओर से हटकर उसको सन्मार्ग पर लगने की प्रेरणा मिलती है, इसमें अज्ञान की कौन-सी बात है, यह तो अहिंसा प्रचार के लिये बुद्धिमान ज्ञानी की भावना है। क्या कान जी 'मरो और मारो' को ज्ञानी की भावना मानते हैं ? पता नहीं अहिंसा धर्म तथा दया भाव से कान जी को क्यों अरुचि है ? इसी तरह का साहित्य-विकार कान जी स्वामी की पुस्तकों में जगह जगह पाया जाता है। कान जी स्वामी को तथा पूर्वोक्त अन्य ग्रन्थ लेखकों को अपने-अपने निर्मित ग्रन्थों में से ऐसा विकृत-अंश दूर करके स्वपर कल्याण करना चाहिये। क्योंकि भोली जनता को विकृत साहित्य द्वारा पथ भ्रष्ट करना महान अपराध है। 'प्रजैर्यष्टव्यम्' इस वाक्य का सीधा सात्विक अर्थ था कि 'उगने की शक्ति रहित पुराने जौ से हवन करना चाहिये' परन्तु 'अज' शब्द का अर्थ 'बकरा' करके 'बकरों को काट कर हवन करना चाहिये।' ऐसा समर्थन वसु राजा ने किया जिससे वह स्वयं तो नरक में गया ही परन्तु उसके उस गलत समर्थन से जगत में पशुओं की हत्या करके हवन यज्ञ करने का कुमार्ग प्रचलित हो गया । ऐसा ही अनर्थ विकृत साहित्य द्वारा हुआ करता है। बुद्धिमान् स्त्री-पुरुषों को ऐसे विकृत साहित्य से सदा दूर रहना उचित है। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कतिपय विद्वानों के पठनीय आभिमत अन्त में विभिन्न विद्वानों के कुछ पाठनीय लेखांश उपयोगी समझ कर यहाँ उद्धृत किये जाते हैं। नियतिवाद दृष्टिविष (ले०-डा० प्रो० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य बनारस) "आज श्री कानजी स्वामी की वस्तु विज्ञानसार पुस्तक को पलटते समय उस प्रहसन की याद आ गई और ज्ञात हुआ कि नियतिवाद का कालकूट ईश्वरवाद से भी भयंकर है। ईश्वरवाद में इतना अवकाश है कि यदि ईश्वर की भक्ति की जाय तो ईश्वर के विधान में हेरफेर हो जाता है । ईश्वर भी हमारे सत्कर्म और दुष्कर्मों के अनुसार ही फल का विधान करता है। पर यह नियतिवाद अभेद्य है। आश्चर्य तो यह है कि इसे अनन्त पुरुषार्थ का नाम दिया जाता है । यह कालकूट कुन्दकुन्द, अध्यात्म, सर्वज्ञ, सम्यग्दर्शन और धर्म की शक्कर में लपेट कर दिया जाता है । ईश्वरवादी साँप के जहर का एक उपाय (ईश्वर) तो है पर इस नियतिवाद कालकूट का इस भीषण दृष्टिविष का कोई उपाय नहीं, क्योंकि हर एक द्रव्य की हर समय की पर्याय नियत है । ३२ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "मर्मान्त वेदना तो तब होती है जब इस मिथ्या एकान्त विष को अनेकान्त अमृत के नाम से कोमलमति नई पीढ़ी को पिलाकर उन्हें अनन्त पुरुषार्थी कहकर सदा के लिए पुरुषार्थ से विमुख किया जा रहा (पृष्ठ ४८) "नियतिवाद में स्वपुरुषार्थ भी नहीं-नियतिवाद में अनन्त पुरुषार्थ की बात तो जाने दीजिये स्वपुरुषार्थ भी नहीं है। विचार तो कीजिए जब हमारा प्रत्येक क्षण का कार्यक्रम सुनिश्चित है और अनन्तकाल का, उसमें हेरफेर का हमको भी अधिकार नहीं है, तब हमारा पुरुषार्थ कहाँ ? और कहाँ हमारा सम्यग्दर्शन ? हम तो एक महानियति चक्र के अंश और इसके परिचलन के अनुसार प्रतिक्षण चल रहे हैं । यदि हिंसा करते हैं तो नियत है, व्यभि वार करते हैं तो नियत है, चोरी करते हैं तो नियत है, पापचिन्ता करते हैं तो नियत है । हमारा पुरुषार्थ कहाँ होगा? कोई भी क्षण इस नियतिभूत की मौजूदगी से रहित नहीं है, जब हम सांस लेकर कुछ अपना भविष्य निर्माण कर सकें।" -तत्वार्थवृत्ति भूमिका (पृष्ठ ४६-५०) स्याद्वाद और सप्तभंगी (ले०-५० चैनसुखदास न्यायतीर्थ) स्याद्वाद और लोक व्यवहार "स्थाद्वाद का उपयोग तभी है जब व्यावहारिक जीवन में उतारा जाय । मनुष्य के आचार विचार और ऐहिक अनुष्ठानों में स्याद्वाद केवल इसीलिये हमारे सामने नहीं आया कि वह शास्त्रीय नित्यानित्यादि विवादों का समन्वय कर दे। उसका मुख्य काम तो मानव के व्यावहारिक जीवन में आ जाने वाली मूढ़ताओं को दूर करना है । मनुष्य परम्पराओं व रूढ़ियों से चिपके रहना चाहते हैं। यह उनकी संस्कारगत निर्बलता है। ऐसी निर्बलताओं को स्याद्वाद के द्वारा ही दूर किया जा सकता है । ___ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद को पाकर भी यदि मनुष्य द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के द्वारा होने वाले परिवर्तनों को स्वीकार न कर सके, उसमें विचारों की सहिपशुता न हो तो उसके लिये स्याद्वाद बिलकुल निरुपयोगी है । दुःख है कि मानव जाति के दुर्भाग्य से इस महामहिम वाद को भी लोगों ने आग्रह-भरी दृष्टि से ही देखा और इसकी असली कीमत आँकने का प्रयत्न नहीं किया। हजारों वर्षों से ग्रन्थों में आ रहे इसको जगत अब भी आचार का रूप दे दे तो उसकी सब आपदाएँ दूर हो जावें। भारत में धर्मों की लड़ाइयाँ तब तक बन्द नहीं होंगी जब तक स्याद्वाद के ज्योतिमय नेत्र का उपयोग नहीं किया जायेगा।" (पृष्ठ २५) "स्याद्वाद परमागम का जीवन है। वह परमागम न रहे तो सारा परमागम पाखण्ड हो जाय । उसे इस परमागम का बीज भी कह सकते हैं। क्योंकि इसी में सारे परमागम की शाखाएँ ओत-प्रोत हैं । स्याद्वाद इसीलिये है कि जगत के सारे विरोध को दूर कर दे। यह विरोधको बरदाश्त नहीं करता, इसी से हम कह सकते हैं कि जैन धर्म की अहिंसा स्याद्वाद के रग रग में भरी पड़ी है । जो वाद बिना दृष्टिकोण हैं, स्याद्वाद उन्हें दष्टि देता है कि तुम इस दृष्टि-कोरण को लेकर अपने वाद को सुरक्षित रखो, पर जो यह कहने के आदी हैं कि केवल हमारा ही कहना यथार्थ है, स्याद्वाद उनके विरुद्ध खड़ा होता है, और उनका निरसन किये बिना उसे चैन नहीं पड़ती, इसलिए कि वे ठीक राह पर आ जावें और अपने प्राग्रह द्वारा जगत में संघर्ष उत्पन्न करने के कारण न बनें।" -वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ-(पृष्ठ २५) Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वज्ञता के अतीत इतिहास की एक झलक __ [ले०-५० फूलचन्द्र जैन सिद्धान्त शास्त्री] "वहाँ आचार्य कुन्दकुन्द की सर्वज्ञत्व के समर्थन वाली दृष्टि बदल कर आत्मतत्व के विश्लेषण में लीन हो जाती है। तभी तो वे यहाँ लिखते हैं, "यद्यपि+ व्यवहार नय की अपेक्षा केवली सबको जानते हैं, किन्तु निश्चय नय की अपेक्षा वे अपने को ही जानते और देखते हैं।' आत्मस्वरूप का कितना सुन्दर विश्लेषण है। ज्ञायक भाव आत्मा का स्वभाव है, किन्तु वह आत्मनिष्ठ है । अतः फलित हुमा कि निश्चय नय से आत्मा स्व को ही जानता और देखता है तथा ध्यवहार द्विविधामय है। उसका अनेक के बिना काम नहीं चलता। अत: फलित हुआ कि व्यवहार नय से प्रात्मा सबको जानता और देखता है। बात यह है कि कार्य कारण व्यवहार, जिसकी लीक पर सारा संसार चक्र प्रतिक्षण घूम रहा है, केवल स्वरूप के विश्लेषण करने तक सीमित नहीं है, क्योंकि वह द्विविधामय है । हम देखते हैं कि जब दो या दो से अधिक परमाणुओं के मिलने से स्कन्ध बनता है और फिर उनसे मिट्टी आदि विविध तत्वों की उत्पत्ति होती है। तदनन्तर उन्हें ज्ञान भेदरूप से ग्रहण करता है । तब इन को मिथ्या कैसे कहा जा सकता है ? सत्य और मिथ्या ये शब्द सापेक्ष हैं । ऋषियों का प्रयोजन मुल वस्तु का ज्ञान कराना रहा है। अतः उन्होंने व्यवहार को मिथ्या आदि जो कुछ जी में आया सो कहा। वेदान्तियों ने तो इस +जाररादि पस्सदि सव्वं ववहारगएरण केवली भगवं । केवलणारणी जाणदि पस्सदि रिणयमेण अप्पाणं ॥१५८॥नि०सा० Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विविधामय जगत के अस्तित्व को ही मिटा देना चाहा, पर क्या इससे ध्यवहार नाम शेष हुबा ? यदि निश्चय सत्याधिष्ठित है तो वह अपनी अपेक्षा से ही। यदि व्यवहार की अपेक्षा से भी उसे वैसा मान लिया जाय तो बन्ध मोक्ष को चर्चा करना ही छोड़ देना चाहिए । कविवर पं. बनारसीदास जी ने ऐसा किया था, पर अन्त में उन्हें एकान्त निश्चय का त्याग करके व्यवहार की शरण में आना पड़ा । आचार्य कुन्दकुन्द ने जो व्यवहार को अभूतार्थ कहा है वह व्यवहार की अपेक्षा नहीं, किन्तु निश्चय की अपेक्षा से कहा है। व्यवहार अपने अर्थ उतना ही सत्य हैं, जितना कि निश्चय । जिस प्रकार हम विविध पदार्थों को जानते हैं, किन्तु हमारा वह सब जानना झूठा नहीं है फिर भी वह ज्ञान ज्ञानस्वरूप ही रहता है। उसी प्रकार केवली भगवान् सब पदार्थों को जानते और देखते हैं, किन्तु उनका वह जानना असत्य नहीं है। फिर भी वह उनका ज्ञायकभाव आत्मनिष्ठ ही है । उपर्युक्त व्यवहार और निश्चय की कथनी का यही मथितार्थ है। -वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ पृष्ठ ३५४-३५५ सम्यक्त्व के साधन साधन दो प्रकार हैं-अभ्यन्तर और बाह्य । दर्शनमोहनीय का उपशम, क्षय या क्षयोपशम अभ्यन्तर साधन है। बाह्य साधन निम्न प्रकार हैं-नारकियों के चौथे नरक से पहले तक अर्थात् तीसरे नरक तक किन्हीं के जातिस्मरण, किन्हीं के धर्मश्रवण और किन्हीं के वेदनाभिभव से सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है। चौथे से लेकर सातवें तक किन्हीं के जातिस्मरण और किन्हीं के वेदनाभिभव से सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है। ___तिर्यंचों में किन्हीं के जातिस्मरण, किन्हीं के धर्मश्रवण, और किन्हीं के जिनविम्बदर्शन से सभ्यग्दर्शन उत्पन्न होता है। मनुष्यों के भी इस प्रकार जानना चाहिए। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवों में किन्हीं के जातिस्मरण, किन्हीं के धर्मश्रवण किन्हीं के जिनमहिमादर्शन, और किन्हीं के देवऋद्धिदर्शन से सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है। यह व्यवस्था आनत कल्प से पूर्व तक जानना चाहिए। आनत, प्राणत आरण और अच्युत कल्प के देवों के देवऋद्धिदर्शन को छोड़ कर शेष तीन साधन पाये जाते हैं । नौ वेयक में निवास करने वाले देवों के सम्यग्दर्शन का साधन किन्हीं के जातिस्मरण और किन्हीं के धर्मश्रवण है। अनुदिश और अनुत्तरविमानों में रहने वाले देवों के यह कल्पना नहीं है, क्योंकि वहां सम्यग्दृष्टि जीव ही उत्पन्न होते हैं। (सर्वार्थसिद्धौ-पृष्ठ २६-२७) परिणमन वर्तनापरिणामक्रिया: परत्वापरत्वे च कालस्य ।।५-२२॥ वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व ये काल के उपकार हैं ॥२२॥ अर्थ-यद्यपि धर्मादिक द्रव्य अपनी नवीन पर्याय के उत्पन्न करने में स्वयं प्रवृत्त होते हैं तो भी वह बाह्य सहकारी कारण के बिना नहीं हो सकती इसलिए उसे प्रवर्ताने वाला काल है, ऐसा मानकर वर्तना काल का उपकार कहा है । -सर्वाथसिद्धि, पृष्ठ २६१ आचार्य कुन्दकुन्द की देन -श्री प्रो० दलसुख मालवरिणया "यदि व्यवहार नय नहीं तो निश्चय भी नहीं। यदि संसार नहीं तो मोक्ष भी नहीं। संसार और मोक्ष जैसे परस्पर सापेक्ष हैं उसी प्रकार व्यवहार और निश्चय भी परस्पर सापेक्ष है।" (पृष्ठ ४४) ___ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ जो तच्चमरयतं णियमा सहदि सत्तमगेहि । लोयारण पण्ह-वसदो ववहार-पवत्तरणट्ठं च ॥ ३७७|| - कार्तिकेय पृष्ठ २२१ अर्थ- जो लोगों के प्रश्नों के वश से तथा व्यवहार को चलाने के लिए सप्तभंगी के द्वारा नियम से अनेकान्त तत्व का श्रद्धान करता हैं वह शुद्ध सम्यग्दृष्टि है । श्रीमद् रामचन्द्र में नय निश्चय एकांतथी, आमां नथी कहेल । एकांते व्यवहार नहि, बन्ने साथ रहेल ॥१३२॥ -आत्म सिद्धि, पृष्ठ ६२१ अर्थ - यहाँ एकान्त से निश्चय नय को नहीं कहा, अथवा एकान्त से व्यवहार नय को भी नहीं कहा। दोनों ही जहाँ-जहाँ जिस-जिस तरह घटते हैं, उस तरह साथ रहते हैं । उपादाननु नाम लई, ए जे तजे निमित्त । पामे नहीं सिद्धत्वने, रहे भ्रांतिमां स्थित ॥१३६॥ -आत्म-सिद्धि पृष्ठ ३२ अर्थ --सद्गुरु की आज्ञा आदि आत्म-साधन के निमित्त कारण हैं, और आत्मा के ज्ञान दर्शन आदि उसके उपादान कारण हैं ऐसा शास्त्र में कहा है । इससे उपादान का नाम लेकर जो कोई उस निमित्त का त्याग करेगा वह सिद्धत्व को नहीं पा सकता, और वह भ्रांति में ही रहा करेगा । क्योंकि शास्त्र में उस उपादान की व्याख्या सच्चे निमित्त के निषेध करने के लिए नहीं कही । परन्तु शास्त्रकार की कही हुई उस व्याख्या का यही परमार्थ है कि उपादान के अजाग्रत रखने से सच्चा निमित्त मिलने पर भी काम न होगा, इसलिए सदुनिमित्त मिलने पर उस निमित्त का अवलंबन लेकर उपादान को सम्मुख करना चाहिए, और पुरुषार्थ-हीन न होना चाहिए। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ बहुयइं पढियई मूढ पर तालू सुक्कड़ जेरण । एक्कु जि अक्खरु तं पढहु सिवपुरि गम्मइ जेरण ॥१६॥... अर्थ-इतना अधिक पढ़ा कि तालु सूख गया, पर रहा तू मूर्ख हो। उस एक ही अक्षर को पढ़ कि जिससे तू शिवपुरी जा सके। .. - अर्थ का अनर्थ श्री कान जी स्वामी ने ग्रन्थकार के सुन्दर भाव के स्थान पर स्वकपोल कल्पित कितना अनुचित अनर्थ किया है, उसका नमूना देखिये उत्तमशौच धर्म यत्परदारादिषु जन्तुषु निस्पृहहिंसक चेतः । दुर्भद्यान्तर्मलहृत्तदेव शोचं परं नान्यत् ॥१४॥ -पद्मनन्दि पंचविंशतिका (दश लक्षण धर्म) श्री कानजी स्वामी के प्रवचन, सोनगढ़ "सज्जन पुरुषों के परस्त्री सेवन का भाव होता ही नहीं। किन्तु वास्तव में तो शुभभाव भी परस्त्री है। शुभभाव से आत्मा को लाभ मानकर शुभपरिणति का संग करना, वह परस्त्रीगमन है । पृ० ३८-४० ग्रन्थकार ने तो अपने श्लोक में शौच धर्म का स्वरूप बनालाया कि 'परस्त्री आदि जीवों में नि:स्पृह होना, अहिंसक चित्त होना, सो अन्तरङ्ग दुर्भेद्य मन के मैल को दूर करने वाला शौच धर्म है ।" इस अर्थ का अनर्थ करके कानजी कहते हैं कि 'शुभभाव ही परस्त्री है।' परस्त्री त्याग के शुभभाव 'परस्त्री कैसे बन गये ? वह तो मन का ब्रह्मचर्य शुद्ध भाव उत्तम सत्य धर्म स्वपरहितमेव मुनिििमतममृतसमं सदैव सत्यं च । वक्तव्यं वचनमथ प्रतिधेयं धीधनमौनम् ॥११॥ पद्म० पंच. "मेरे शुभराग से या वाणी से मुझे या अन्य को लाभ हो, अथवा मैं निमित्त बनकर दूसरे को समझा दू-ऐसा जिसका अभिप्राय है वह ___ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० जीव महा मसत्य अभिप्राय का सेवन करने वाला मिथ्यादृष्टि है ।" पृ० ग्रन्थकार ने उक्त श्लोक में सत्य धर्मं का स्वरूप बतलाया है कि 'मु क्या तो अमृत समान स्वपरहितकारी वचन कहें अथवा मौन रक्खें ।' का जी इस सुन्दर अर्थ को बिगाड़ कर मनमाना कुछ और ही अनर्थ लिख क भ्रम फैला रहे हैं । यदि सत्य हितकारी वारणी से अन्य जीवों का कल्याण न होता तो क्यों तो प्रर्हन्त भगवान की दिव्यवाणी होती, क्यों श्री कुन्दकुन्द आचार्य समयसार लिखते और क्यों श्राप प्रवचन करते हैं ? "सिद्धचक्र की पूजा करने से कुष्ठ रोग दूर हो जाता है - ऐसा कथन शास्त्र में निमित्त से आता है; उसे कोई यथार्थ ही मान ले तो वह मिध्यादृष्टि है ।" मो० प्र० किरणें सा० अ० भगवान की भावसहित पूजा जब परम्परा से मुक्ति देने वाली है तो कुष्ठ रोग दूर होना तो साधारण बात है । श्रीपाल का कुष्ठ भगवान के प्रक्षालित गन्धोधक से दूर हुआ ही था । इसमें मिथ्यात्व की क्या बात है ? क्या आपको इस ऐतिहासिक घटना पर विश्वास नहीं है ? "अनन्तबार शास्त्रपाठी हुआ, अनन्तवार भगवान के समवशरण में गया, अनन्तवार द्रव्यलिंग भी धारण किया; किन्तु स्वयं कौन है और पर कौन है, उसका यथार्थ ज्ञान करके पराधीन दृष्टि नहीं छोड़ी ।" - मोक्ष० प्र० की किरणें पृ० २७४ "अनन्तबार ऐसा श्रागम ज्ञान हुआ कि बाह्य में कोई भूल दिखाई न दें । अब तो आगम ज्ञान का भी ठिकाना नहीं है । जो आगम से विरुद्ध प्ररूपण करता है वह तो मिथ्यादृष्टि है ही ।" - मोक्ष० प्र० की किरणें सा० अ० पृ० २७६ कान जो भी जब अब तक अनन्त भव धारण कर चुके हैं त उनको आगम के विरुद्ध अब तो प्ररूपण न करना चाहिये, वे जो उपदेश दूसरों को देते हैं उसका आचरण स्वयं तो करें । "दुर्लभ है संसार में, एक यथारथ ज्ञान" -भूधरदास Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक की अन्य कृतियाँ १-गुरुपरिवाद विचार (मराठी) २-श्री वीर-प्रभु। ३-विश्वधर्म की रूपरेखा / ४-कल्याण मुनि और सम्राट सिकन्दर 4 संस्करण / ५-दि० जैन साहित्य में विकार / ६--पिच्छि-कमण्डलु (प्रेस कापी)। ७--मोह और मोक्ष (संकल्प) / Serving JinShasan 112525 [email protected]