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________________ इस अहिंसा-सूचक दयामय वाक्य से जनता का लक्ष्य हिंसा तथा निर्दयता की ओर से हटकर उसको सन्मार्ग पर लगने की प्रेरणा मिलती है, इसमें अज्ञान की कौन-सी बात है, यह तो अहिंसा प्रचार के लिये बुद्धिमान ज्ञानी की भावना है। क्या कान जी 'मरो और मारो' को ज्ञानी की भावना मानते हैं ? पता नहीं अहिंसा धर्म तथा दया भाव से कान जी को क्यों अरुचि है ? इसी तरह का साहित्य-विकार कान जी स्वामी की पुस्तकों में जगह जगह पाया जाता है। कान जी स्वामी को तथा पूर्वोक्त अन्य ग्रन्थ लेखकों को अपने-अपने निर्मित ग्रन्थों में से ऐसा विकृत-अंश दूर करके स्वपर कल्याण करना चाहिये। क्योंकि भोली जनता को विकृत साहित्य द्वारा पथ भ्रष्ट करना महान अपराध है। 'प्रजैर्यष्टव्यम्' इस वाक्य का सीधा सात्विक अर्थ था कि 'उगने की शक्ति रहित पुराने जौ से हवन करना चाहिये' परन्तु 'अज' शब्द का अर्थ 'बकरा' करके 'बकरों को काट कर हवन करना चाहिये।' ऐसा समर्थन वसु राजा ने किया जिससे वह स्वयं तो नरक में गया ही परन्तु उसके उस गलत समर्थन से जगत में पशुओं की हत्या करके हवन यज्ञ करने का कुमार्ग प्रचलित हो गया । ऐसा ही अनर्थ विकृत साहित्य द्वारा हुआ करता है। बुद्धिमान् स्त्री-पुरुषों को ऐसे विकृत साहित्य से सदा दूर रहना उचित है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003665
Book TitleDigambar Jain Sahitya me Vikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyanandmuni
PublisherJain Vidyarthi Sabha Delhi
Publication Year1964
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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