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(ख) अर्हन्त भगवान की वाणी इसी कारण स्वतः (अपने प्राप) पूर्ण प्रमाण (सत्य-यथार्थ, विश्वस्य, श्रद्धेय) मानी जाती है, क्योंकि अर्हन्त भगवान पूर्ण ज्ञानी और पूर्ण वीतराग (कषाय-भावना-शून्य निर्मल, निर्विकार भाव वाले) होते हैं । इसी कारण ढाई हजार वर्ष बीत जाने पर भी सर्वज्ञ वीतराग भगवान् महावीर की (पार्ष ग्रन्थों में लिखित) वाणी पूर्ण प्रामाणिक मानी जा रही है।
वक्ता लिखकर जो अपने भाव प्रगट करता है, उस विषय में भी ऐसी ही बात है। कागज या ताड़ पत्र आदि पर लिखा हुआ लेख या ग्रन्थ आत्मा से भिन्न जड़ पदार्थ है। कागज, ताड़पत्र, लेखनी, मसिपात्र (दवात) ये सब साधन ज्ञान-शून्य अचेतन पदार्थ हैं। कागज आदि पर लेखनी द्वारा विविध प्रकार के आकारों में लिखने वाले हाथ भी वास्तव में जड़ रूप पोद्गलिक शरीर के अंग हैं । फिर भी पर-पदार्थ रूप जड़ ग्रन्थ प्रामाणिक या अप्रामाणिक माने जाते हैं। उस प्रामाणिकता का आधार दुर्भावना-रहित स्व-परहितैषी आत्मा है । निर्जीव समयसार ग्रन्थ इसी कारण प्रामाणिक है कि विश्वहितैषी, स्वच्छ भावना वाले श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने उसको लिखा है।
प्रचलित तोता मैना की कहानियाँ, अकबर वीरबल के लतीफे, वाममागियों के दुराचार-पोषक ग्रन्थ, नास्तिकता को पुष्ट करने वाले चार्वाकों के शास्त्र, एकान्तवाद की प्ररूपक पुस्तके, हिंसा विधान करने वाले ग्रन्थ; इसी कारण अप्रामाणिक हैं कि उनके लिखनेवाले व्यक्ति राग, द्वेष, मोह, अज्ञान, मिथ्या श्रद्धा, मिथ्या आचार आदि दुर्भावों से ग्रस्त हैं या थे उनके लिखे हुए ग्रन्थों ने संसार में हिंसा, व्यभिचार, कामवासना, मांस-भक्षण, मदिरापान, नास्तिकता आदि का प्रचार किया है।
अतः सज्जन, सत् ज्ञानी, स्वपरहितैषी, जनसाधारण के उपकारक, निष्पक्ष (कदाग्रह, भ्रान्ति, संशय से मुक्त) विद्वान् ही प्रामाणिक ग्रन्थ लिख सकते हैं।
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