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हमको कोई भी ग्रन्थ लिखते समय अथवा किसी ग्रन्थ की टीका करते समय इस बात का विशेष ध्यान रखना आवश्यक है कि एक भी अक्षर परम प्रामाणिक जिनवाणी (जो कि श्री कुन्दकुन्द, उमा स्वामी, समन्तभद्र, पूज्यपाद, अकलंक देव, वीरसेन, विद्यानन्दि आदि आचार्यों के आर्ष ग्रन्थों में विद्यमान है) के विरुद्ध न हो। प्रत्येक शब्द उन आर्ष ग्रन्थों के अनुसार हो, ऐसा ध्यान रखकर गहरे अध्ययन के साथ जब हम कुछ सावधानी से लिखेंगे तब ही हमारा लिखा हआ लेख या ग्रन्थ प्रामाणिक होगा, स्व-पर-कल्याणकारी होगा और हमारी स्वच्छ कीति का दृढ़ स्तम्भ होगा।
कुछ समय से ग्रन्थों की टीका करने या स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखने का ऐसा प्रवाह चल पड़ा है कि धड़ाधड़ नये-नये ग्रन्थ प्रकाशित तो हो रहे हैं, परन्तु उनमें मूल ग्रन्थकार के भावों को तोड़-मरोड़ कर बिगाड़ दिया जाता है, जिनवाणी के विरुद्ध अपनी भ्रान्त दुर्भावना का समावेश उनमें कर दिया जाता है। जो स्वतन्त्र पुस्तकें लिखी जाती हैं उनमें आर्ष-परम्परा का अनुकरण नहीं किया जाता, अपनी दूषित, कदाग्रही भावना को उन पुस्तकों में भर दिया जाता है । जिससे बे वास्तव में कल्याणकारी 'शास्त्र' न रहकर आत्म-घातक 'शस्त्र' बन गये हैं या बन जाते हैं, क्योंकि उनके पढ़ने, सुनने तथा अध्ययन करने से स्वसिद्धान्त के विषय में भ्रम-भावना जन्म लेती है। - ऐसे विकृत ग्रन्थों का पठन, पाठन, अवलोकन, स्वाध्याय, ग्रन्थभण्डारों में रखना निषिद्ध होना चाहिए जिससे भोले-भाले, सिद्धान्त से अपरिचित स्त्री-पुरुषों का अहित न होने पावे । __ 'कुन्ती' और 'कुत्ती' शब्द लिखने में या बोलने में एक बिन्दु मात्र का थोड़ा-सा अन्तर है, परन्तु उसके अभिप्राय में महान अन्तर है। कुन्ती पांडवों की माता का नाम है जब कि कुत्ती शब्द 'कुतिया' का वाचक है । एक शब्द की अशुद्धि से जब इतना महान् अन्तर पड़ जाता
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