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प्राक् दो शब्द
मनुष्य अपने भावों को दो प्रकार से व्यक्त किया करता है१. वचन द्वारा तथा २. लेख द्वारा । हमको जो शब्द कानों द्वारा सुनाई देते हैं । वे यद्यपि जड़ पुद्गल द्रव्य की पर्याय रूप हैं किन्तु शब्द वर्गणायें मनुष्य के मुखान्तर्वर्ती जीभ, दन्त, ओठ, तालु, कण्ठ आदि के सम्पर्क से 'अ इ उ क ख' आदि अक्षरों के रूप में अथवा "देव, गुरु गाय" आदि विभिन्न प्रकार के शब्दों के रूप में या किसी अभिप्राय विशेष के प्रगट करने वाले शब्दों के समुदाय रूप वाक्यों (गाय एक उपयोगी पशु है आदि) के रूप में परिणमन किया करती हैं । उनको सुनने वाला व्यक्ति उस वक्ता (बोलने वाले) के हृदय की बात को समझ लेता है । इस तरह जड़ (निर्जीव) पौलिक शब्दों के माध्यम से आत्मा अपना भाव दूसरे सुमने वाले जीवों के सामने स्पष्ट रख देता है। सुनने वाले मनुष्य भी उन ही जड़ शब्दों के माध्यम से बोलने वाले के भावों को समझ लेते हैं ।
शब्द जड़ होते हैं इस कारण वे न तो स्वयं अपने निजी रूप में प्रामाणिक होते हैं और न अप्रामाणिक । शब्दों में प्रामाणिकता सत्यता यथार्थभाषित्व मनुष्य के आधार से प्राया करता है । तथा असत्य - भाषी, विश्वासघाती, छली, कपटी, मनुष्य के मुख द्वारा प्रगट हुए शब्द उस व्यक्ति को अप्रामाणिकता के आधार से असत्य अप्रामाणिक, विश्वास के अयोग्य हुआ करते हैं। यानी वक्ता की प्रामाणिकता से शब्दों में प्रामाणिकता आती है और वक्ता की अप्रामाणिकता से शब्दों में अप्रामाणिकता आया करती है ।
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