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श्रमण श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र का आराधक होता है । उसको जिनवाणी पर अचल श्रद्धा होती है, उसे जैनसाहित्य का, संसार, मुक्ति, संसार के साधन, मुक्ति के साधन, आत्मा अनात्मा का हेय उपादेशका परिपक्व ज्ञान होता है और वह अन्तरङ्ग वहिरङ्ग तपश्चर्या का अभ्यासी होता है ।
जो व्यक्ति आध्यात्मिक ग्रन्थों में शुद्ध श्रात्मस्वरूप को पढ़कर अपने आपको सिद्ध समान शुद्ध-बुद्ध परमात्मा भ्रम से मान बैठे, वह क्या तो अपने कर्म रोग को पहचान पावेगा और क्या उस कर्मरोग से छूटने का यत्न करेगा । तथा क्या उसको जिनवाणी का श्रद्धान और ज्ञान होगा ? जिनवाणी की श्रद्धा और ज्ञान तो कर्मबन्ध तथा कर्ममोचन ( संवरनिर्जरा) के विधान की श्रद्धा एवं जानने में निहित हैं । उस श्रद्धा और ज्ञान का फल अन्तरंग बहिरंग तपस्या द्वारा कर्ममल से आत्मा का शोधन ( दूर करना) है । श्रमण का श्रम इस श्रद्धा ज्ञान और तपस्या में समाया हुआ ( निहित ) है |
नाटक में राजा का ऐक्टिंग अभिनय करते समय कोई मनुष्य अपने आपको राजा समझ बैठे तो वह अपनी दरिद्रता की व्याधि से मुक्त नहीं हो सकता, इसी तरह शास्त्र में शुद्ध आत्मस्वरूप को पढ़कर कोई अपने आपको शुद्ध परमात्मा भ्रम से मान बैठे तो वह जन्म-मरण व्याधि से छूट नहीं सकता, इसके लिये तो उसे तपस्या का श्रय करना पड़ेगा । सोने की शुद्धि केवल कहने या समझ लेने से नहीं हुआ करती, उसके लिये तो अग्नि पर तपाने का, कठिन परिश्रम भी करना पड़ता है । ऐसे ही शुद्ध श्रद्धा और ज्ञान के साथ आत्मा को तपाने पर आत्मा कर्ममल से शुद्ध हुआ करता है । इस विधि में जितने वंश में कमी रहेगी, आत्मा भी उतने अंश में निर्मल न हो पावेगा ।
इस तरह भगवान ऋषभनाथ, भगवान महावीर एवं कुन्दकुन्द आचार्य की वाणी और तपस्या को आदर्श मानकर प्रत्येक श्रद्धालु धर्मात्मा स्त्री पुरुष को आगम अनुसार श्रद्धा ज्ञान और वचन - व्यापार ( उपदेश ) तथा लेखन करना ( लिखना चाहिये तथा यथाशक्ति चारित्र का आचरण करना चाहिये ।
विद्यानन्द मुनि
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