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________________ (च ) इसी कारण अपने ज्ञान का अभिमान, तपस्या का अभिमान और कीर्ति का प्रलोभन आत्मा को सत्पथ से भ्रष्ट करके अनेक अहितकारी अनर्थ फैलाता है । उन अनर्थों में विकृत साहित्यकी रचना भी एक है । भूतकाल में भी कुछ सिद्धान्त-विरुद्ध विकृत साहित्य लिखा गया था परन्तु दिगम्बर जैन समाज में वह स्थायी प्रामाणिक स्थान न पा सका । ऐसी ही बात वर्तमान के विकृत साहित्य के विषय में होगी, ऐसी मेरी दृढ़ आस्था है । हमने दि० जैन साहित्य में आये हुए विकार को दूर करने कराने की भावना से यह पुस्तक लिखी है, निन्दापरक भावना इस विषय मे हमारी लेशमात्र भी नहीं है, अतः बुद्धिमान पाठक उसको उसी रूप में जानने का यत्न करेंगे अन्यथा रूप न लेंग, ऐसी आशा है । श्रमण संस्कृति जैन संस्कृति का दूसरा नाम श्रमण संस्कृति है । 'श्रमरण' शब्द का अर्थ 'साधु' है । तदनुसार आद्य तीर्थंकर भगवान् ऋषभनाथ जैनसंस्कृति के प्रवर्तक तब ही बने जबकि उन्होंने समस्त आरम्भ परिग्रह, राजपाट, घर परिवार का त्याग करके अपना दिगम्बर वेष बनाया, और एक हजार वर्ष तक मौनभाव से तपस्या की, तब ही दे मोक्षपथ-प्रदर्शक या जैन संस्कृति का शिलान्यास करने वाले उपदेष्टा बने । छद्मस्थ ( अल्पज्ञ - अपूर्ण ज्ञानी) एवं सराग अवस्था में उन्होंने धर्म - उपदेश का एक वाक्य भी किसी को न कहा । अतएव जैनसंस्कृति का प्रारम्भ श्रमण भगवान ऋषभनाथ से हुआ । उनकी उस श्रमण परम्परा को उनके अनुवर्ती शिष्य श्रमणों ने तथा पश्चादुवर्ती श्रन्य २३ तीर्थंकरों ने अपनाया। इस तरह जैनसंस्कृति के प्रवर्तक कोई गृहस्थ नहीं हुए, न कोई चक्रवर्ती, मंडलेश्वर राजा या सेठ हुए, इसके प्रवर्तक तो सांसायिक कीचड़ से दूर निर्मल सच्चरित्र, ज्ञानी, ध्यानी, तपस्वी श्रमण (साधु) ही रहे हैं । जो व्यक्ति स्वयं विषय भोगों, शारीरिक राग में फँसा हो वह क्या आत्म शुद्धि का 'उपदेशक बन सकेगा। स्वयं इन्द्रियों का दास बनकर शरीर की सेवा करना और दूसरों को आत्मशुद्धि का उपदेश देना परस्पर विरुद्ध, निःसार, प्रभावहीन बात है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003665
Book TitleDigambar Jain Sahitya me Vikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyanandmuni
PublisherJain Vidyarthi Sabha Delhi
Publication Year1964
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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