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________________ गृहतो मुनिवनमित्वा गुरूपकण्ठे व्रतानि परिगृह्य । भैक्ष्याशनस्तपस्यन्नुत्कृष्टश्चेलखण्डधरः ॥ १४७॥ " आजकल मुनिजन अनगारित्व धर्म को छोड़कर प्रायः मन्दिरों, मठों तथा गृहों में रहने लगे हैं ।" यहाँ पर श्री मुख्त्यार जी ने प्रकरण से बाहर और निराधार बात लिख कर टीका की सीमा का उल्लंघन किया है । प्राचीन काल में भी गृहस्थ श्रावक या राजा लोग घर परिवार त्यागी मुनियों को ठहरने के लिए पर्वतों में गुफायें, वसतिकाएँ तथा नगर के निकट वसतिकायें वनवाया करते थे, विहार करते हुए मुनिगण कुछ दिन तक वसतिकाथों में ठहर कर अन्यत्र विहार कर जाते थे, कभी-कभी मन्दिरों में भी कुछ दिन ठहर कर अन्यत्र चले जाते थे । दक्षिण प्रान्त में ऐसी सैकड़ों गुफाएँ अभी तक बनी हुई है, मदुरा के पास सैकड़ों गुफाएँ हैं । श्री धरसेन आचार्य गिरनार की चन्द्रक गुफा में रहते थे । प्राचीनकाल में मुनि-भक्त नाई और कुम्हार ने सम्मिलित रूप से अपने नगर के निकट एक वसतिका बनवाई थी । कुम्हार ने उस वसतिका में एक मुनि महाराज को ठहरा दिया था, उसका साथी नाई दिगम्बर मुनि द्वेषी था उसने उम वसतिका में से मुनि महाराज को निकाल दिया । इस बात पर वे दोनों परस्पर लड़ पड़े और मर कर वे वन में सिंह और सूअर हुए । ग्रन्थकार ने इसी रत्नकरण्ड श्रावकाचार के ११७वें श्लोक में पूर्वभव में मुनियों के लिए वसतिका बनवाने वाले उस मुनि भक्त सूकर का दृष्टान्त आवास दान के विषय में दिया है । जिनेन्द्र-भक्त सेठ की वह कथा भी प्रसिद्ध है जिसने क्षुल्लक के कपट वेषधारी चोर को सच्चा क्षुल्लक समझ कर अपने घर के चैत्यालय में ठहराया था । इस कथा का उल्लेख भी समन्तभद्राचार्य ने उपगूहन अंग के दृष्टान्त रूप से २० वें श्लोक में किया है । इत्यादि प्रमारणों से सिद्ध होता है कि प्राचीन समय में भी गृहत्यागी मुनि गृहस्थों के बनबाये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003665
Book TitleDigambar Jain Sahitya me Vikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyanandmuni
PublisherJain Vidyarthi Sabha Delhi
Publication Year1964
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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