SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ "एक तो हजारों पशुओं का वध करने वाला कृष्ण लेश्या युक्त कसाई और दूसरा "मैं पर का कर सकता हूँ तथा पुण्य से धर्म होता है।"..."ऐसी मिथ्या मान्यतायुक्त शुक्ललेश्याधारी द्रव्यलिङ्गी जैन साधु...."यह दोनों जीव चार कषायों की अपेक्षा बराबर हैं।" [द्वि० अध्याय पृष्ठ ४६-४७] द्रयलिंग भालिंग महाव्रती निर्ग्रन्थ साधु आत्मध्यान की अवस्था में जब सातवें गुणस्थानवी होता है और स्वाध्याय, आहार, विहार, शयन आदि क्रियाओं के समय जब छठे गुणस्थान-वर्ती होता है, तब उसके 'भावलिंग (बाहरी निर्ग्रन्थ वेष के समान अन्तरंग निर्गन्थ भाव) होता है । यदि मुनि के अन्तरंग भाव छठे गुणस्थान से नीचे के यानी-पांचवें, चौथे, तीसरे. दूसरे, पहले गुणस्थान के हो जावें तो द्रलिंग के अनुरूप अन्तरंग भाव न रहने के कारण उस अवस्था में मुनि को द्रव्य लिंगी यानी-केवल बहिरंग साधना वाला मुनि कहा जाता है।। तदनुसार यदि कोई अभव्य मनुष्य मुनिलिंग धारण करके पंच महाव्रत पालन करता है, तब तो वह सदा मिथ्या-दृष्टि एवं द्रव्य-लिंगी साधु ही बना रहता है और यदि कोई भव्य पुरुष मुनि ब्रत धारण करता है तो वह कभी भावलिंगी मुनि होता है और कभी प्रत्याख्यानावरण कषाय, कभी अप्रत्याख्यानावरण कषाय और कभी अनन्तानबन्धीकषायका उदय हो आने से सकलसंयम के भावों से च्युत हो जाने के कारण द्रव्यलिंगी भी बन जाता है। इस कारण कान जी का यह लिखना गलत है कि "द्रव्यलिंगी मुनि के अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन ये चारों कषायें होती हैं।" बत-विहीन सम्यग् दृष्टि के भाव हो जाने पर मुनि अपने भावों की अपेक्षा चतुर्थ गुरणस्थानवी, तथा देशसंयम के भाव हो जाने पर संयतासंयत गुणस्थानी हो जाने के कारण Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.003665
Book TitleDigambar Jain Sahitya me Vikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyanandmuni
PublisherJain Vidyarthi Sabha Delhi
Publication Year1964
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy