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________________ २३ ठीक है । इतना ही नहीं अपितु यह कहना भी ठीक है कि सम्यग्दृष्टि के पुण्य भाव स्वयं धर्मरूप हैं । सम्मादिट्टी पुण्णं ण होइ संसारकारणं णियमा । मोक्खस्स होइ हेउं जइवि णियारणं सो रग कुरणई ॥ अर्थ - सम्यग्दृष्टि का पुण्य नियम से संसार का कारण नहीं है । वह सम्यग्दृष्टि यदि निदान ( आगामी सांसारिक सुखों की इच्छा ) न करे तो उसका पुण्य मोक्ष का ही कारण है । कानजी को यह बात समझनी चाहिये कि सम्यग्दृष्टि का पुण्यभाव सराग वीतराग भाव का मिश्रित परिणाम होता है, जैसा कि तीसरे गुणस्थान का मिश्रित परिणाम होता है | वर्तमान पंचमकाल में ही हीनसंहनन आदि कारणों से किसी भी व्यक्ति को शुद्ध उपयोग या निश्चय धर्म, शुक्लध्यान नहीं हो सकता, इस कारण पाप विरक्त जिनवारगी के श्रद्धालु, जिनवाणी के ज्ञाता, सदाचारी स्त्री पुरुषों के शुभभावमय पुण्य ही हो सकता है, जैसा कि स्वयं | कानजी स्वामी के भी संभव है । तो क्या इस समय कोई व्यक्ति धर्मात्मा हो ही नहीं सकता ? - भावसंग्रह इस प्रश्न का स्पष्ट उत्तर देते समय कानजी को अपनी भूल स्वयं तीख जावेगी । Jain Education International जिनवाणी और पर - स्त्री समान हैं ? 'मोक्षमार्ग को किरण' पुस्तक में ८०वें पृष्ठ पर कानजी लखते हैं " श्री वीतराग की वाणी का श्रवण भी पर-विषय है और स्त्री भी - विषय है। ज्ञानी के पर विषय की रुचि नहीं है । वीतराग की वाणी को श्रवण की भी भावना ज्ञानी के नहीं है ।" For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003665
Book TitleDigambar Jain Sahitya me Vikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyanandmuni
PublisherJain Vidyarthi Sabha Delhi
Publication Year1964
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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