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जनता के हृदय में भ्रम बैठ जाता है । इस तरह वे व्यक्ति ग्रन्थ या श्लोक का अर्थ न करके महान अनर्थ करते हैं और जिनवाणी माता की अवज्ञा करके अनथ की परम्परा डालते हैं ।
इसके लिए मैं यहाँ कुछ उदाहरण पाठकों के सामने रखता हूँश्री समन्तभद्र आचार्य रचित रत्नकरण्ड श्रावकाचार एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है | इस ग्रन्थ पर श्री प्रभाचन्द्राचार्यकृत एक संस्कृत टीका है । तथा श्री पं० सदासुख जी की हिन्दी भाषा में एक अच्छी विस्तृत टीका है । इसके सिवाय श्री पं० पन्नालाल जी बाकलीवाल आदि विद्वानों के द्वारा लिखी गईं और भी अनेक साधारण टीकाएँ हिन्दी भाषा में प्रकाशित हो चुकी हैं ।
इसी रत्नकरण्ड श्रावकाचार ग्रन्थ पर भद्रपरिणामी, समन्तभद्र के अनन्यभक्त श्री पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने भी एक अच्छी टीका हिन्दी भाषा में लिखकर प्रकाशित की है । उस टीका सहित इस रत्न - करण्ड श्रावकाचार ग्रन्थ का नाम आपने 'समीचीन धर्मशास्त्र' रक्खा है । यह नाम आपने ग्रन्थ के दूसरे श्लोक के देशयामि 'समीचीनं धर्मकर्मनिबर्हणम्' पूर्वार्द्ध के 'समीचीन धर्म' इस शब्द के आधार पर रख दिया है । परन्तु ग्रन्थ का यदि प्रख्यात नाम 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' ही रखते तो अच्छा होता अस्तु ।
इस ग्रन्थ की भूमिका में श्री वासुदेव शरण अग्रवाल लिखित एक लेख भी प्रकाशित है । उसमें १७ वें पृष्ठ पर लिखा है
सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातङ्गदेहजम् ।
देवा देवं विदुर्भस्म - गूढाङ्गारान्तरौजसम् ||२८||
अर्थ — धर्म से श्वान- -कुत्ता के सदृश नीचे पड़ा मनुष्य भी देव हो जाता है और पाप से देव भी श्वान बन जाता है ।
उक्त श्लोक का यह अर्थ गलत लिखा गया हैं । यह अर्थ २६ वें श्लोक
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