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________________ स्याद्वाद को पाकर भी यदि मनुष्य द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के द्वारा होने वाले परिवर्तनों को स्वीकार न कर सके, उसमें विचारों की सहिपशुता न हो तो उसके लिये स्याद्वाद बिलकुल निरुपयोगी है । दुःख है कि मानव जाति के दुर्भाग्य से इस महामहिम वाद को भी लोगों ने आग्रह-भरी दृष्टि से ही देखा और इसकी असली कीमत आँकने का प्रयत्न नहीं किया। हजारों वर्षों से ग्रन्थों में आ रहे इसको जगत अब भी आचार का रूप दे दे तो उसकी सब आपदाएँ दूर हो जावें। भारत में धर्मों की लड़ाइयाँ तब तक बन्द नहीं होंगी जब तक स्याद्वाद के ज्योतिमय नेत्र का उपयोग नहीं किया जायेगा।" (पृष्ठ २५) "स्याद्वाद परमागम का जीवन है। वह परमागम न रहे तो सारा परमागम पाखण्ड हो जाय । उसे इस परमागम का बीज भी कह सकते हैं। क्योंकि इसी में सारे परमागम की शाखाएँ ओत-प्रोत हैं । स्याद्वाद इसीलिये है कि जगत के सारे विरोध को दूर कर दे। यह विरोधको बरदाश्त नहीं करता, इसी से हम कह सकते हैं कि जैन धर्म की अहिंसा स्याद्वाद के रग रग में भरी पड़ी है । जो वाद बिना दृष्टिकोण हैं, स्याद्वाद उन्हें दष्टि देता है कि तुम इस दृष्टि-कोरण को लेकर अपने वाद को सुरक्षित रखो, पर जो यह कहने के आदी हैं कि केवल हमारा ही कहना यथार्थ है, स्याद्वाद उनके विरुद्ध खड़ा होता है, और उनका निरसन किये बिना उसे चैन नहीं पड़ती, इसलिए कि वे ठीक राह पर आ जावें और अपने प्राग्रह द्वारा जगत में संघर्ष उत्पन्न करने के कारण न बनें।" -वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ-(पृष्ठ २५) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003665
Book TitleDigambar Jain Sahitya me Vikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyanandmuni
PublisherJain Vidyarthi Sabha Delhi
Publication Year1964
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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