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________________ कान जी उक्त पाँच परमेष्ठियों में से कोई भी नहीं हैं वे एक साधारण अब्रती हैं। उनके खान पान, आहार विहार आदि में वैराग्य का कोई चिह्न नहीं पाया जाता, ऐसी दशा में मृत्यु समय उनका स्मरण करने की प्रेरणा करना कहाँ तक उचित है ? उपदेश देना जड की क्रिया है ? मोक्षमार्ग की किरण–पुस्तक में १७८ वें पृष्ठ पर कान जी लिखते हैं "दूसरों को उपदेश देना मुनि का लक्षण नहीं है, उपदेश जड़ की क्रिया है, प्रात्मा उसे नहीं कर सकता।" शब्द पुद्गल वर्गणा रूप होते हैं, अतः वे जड़ हैं, यह बात ठीक है, परन्तु इसके साथ ही ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि उपदेश रूप शब्द केवल जड़-क्रिया रूप नहीं होते, जगत का कोई भी जड़ पदार्थ (शब्द वर्गणा) अपने आप शब्द रूप परिणत नहीं हुआ करता, यदि हो तो उसे कान जी स्वामी बतलावें । ज्ञानी आत्मा की प्रेरणा से शब्द वर्गणाएँ शब्द रूप परिणत होती हैं, श्री पूज्यपाद आचार्य ने 'सर्वार्थसिद्धि' के पांचवें अध्याय में ऐसा ही लिखा है। सुनने वाले आत्मा को दे शब्द हेय उपादेय, कर्तव्य अकर्तव्य, सुपथ कुपथ का ज्ञान उत्पन्न कराते हैं। इस तरह उपदेशी शब्दों का प्रेरक निमित्त कारण ज्ञानी आत्मा है और उन शब्दों का फल श्रोता का ज्ञान, विवेक जाग्रत रूप होता है। इसी के अनुसार तीर्थङ्कर की दिव्यध्वनि होती है और असंख्य जीव समवशरण में जाकर उसे सुनते हैं। जिससे उनका आध्यात्मिक हित होता है। - अर्हन्त भगवान के पद-विह्नों पर चलकर मुनि भी वैसा उपदेश देते हैं । जिससे उपदेश सुनने वाले भव्य जीव मिथ्यात्व, कुज्ञान और दुराचार छोड़ कर स्व-पर-कल्याण करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003665
Book TitleDigambar Jain Sahitya me Vikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyanandmuni
PublisherJain Vidyarthi Sabha Delhi
Publication Year1964
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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