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________________ सत असत, नित्य अनित्य आदि एकान्तवादियों के लिखित ग्रन्थों के अभ्यास को गृहीतमिथ्याज्ञान बतलाया है तबसोनगढ़के इस टीकाकार ने जिस ग्रन्थ की वह टीका कर रहा है उप छहढाला ग्रन्थ को ही कुशास्त्र ठहरा दिया । एवंच समस्त चरणानुयोग के ग्रन्थों को भी यहाँ तक श्री कुन्दकुन्द आचार्य के ग्रन्थों को भी कुशास्त्र बतलाने का साहस किया है । क्योंकि श्री पं० दौलतराम जी ने छहढाला की पहली ढाल में दया को श्रेयस्कर बताया है। ' कहें सीख गुरु करुणाधार ।" चौथी ढाल में मुनि आदि सुपात्रों को दान करने को तथा अणुब्रत पालन करने को श्रावक का धर्म बतलाया है। मुनि को भोजन देय फेरि निन करै अहारै।, त्रसहिंसा को त्याग वृथा थावर न संहार (अहिंसा असुब्रत). पर बधकार कठोर निन्ध नहिं वचन उचारै । (सत्य अशुब्रत), जल मृतिकाविन और नाहिं कछु गहै प्रदत्ता, निज वनिता बिन सकल नारि सों रहै विरत्ता। अपनी शक्ति विचारि परिग्रह थोरो राखे । (अचौर्य, ब्रह्मचर्य, परिग्रह-परिणाम अणुव्रत)। छठी ढाल में प्रारम्भ से ही महाब्रतों को मुनि-धर्म कहा हैषटकाय जोव न हनन तें सब विध दरब हिंसा टरी, (अहिंसा महाबत प्रादि ।) इस तरह टीकाकार ने स्वयं अपने लिखे अनुसार छहढाला को कुशास्त्र प्रमाणित करके उसकी टीका करते हुए स्व-पर कल्याण ! किया है। दया तथा अहिंसा जैनधर्म का मूल है । श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने दया और अहिंसा को अपने चारित्रपाहुड़ आदि ग्रन्थों में धर्म लिखा है जैसेकि 'धम्मो दयाविसुद्धो, हिंसारहिये धम्मे" आदि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003665
Book TitleDigambar Jain Sahitya me Vikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyanandmuni
PublisherJain Vidyarthi Sabha Delhi
Publication Year1964
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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