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षट् खण्ड प्रागम, कसायपाहुड़ तथा उनकी विस्तृत टीका धवल जयधवल महाधवल, गोम्मटसार आदि ग्रन्थ एवं स्वयं समयसार ग्रन्थ इस विषय का स्पष्ट पुष्ट समर्थन करते हैं कि पौद्गलिक कर्म अजर अमर आत्मा को जन्म मरण करा रहा है, उसके सम्यक्त्व ज्ञान चारित्र का प्रतिबन्धक निरोधक बना हुआ है । फिर समयसार की टीका में यह विपरीत क्यों लिखा कि पर-पदार्थ कुछ नहीं करता ज्ञानी समयग्दृष्टि जान बूझ कर पाप-क्रियाओं का त्याग करके सयम व्रत नियम तप आदि करता है, वह पाप-क्रिया का स्वामी नहीं बनता किन्तु आत्मशुद्धि के कारणभूत, विषय कषाय को घटाने वाले शुभ कार्यों यानी-व्यवहार चारित्रका तो स्वामी दृढ़ संकल्प के साथ बनता है। क्योंकि सम्यक चारित्र आत्मा का निजी गुण है । अपने गुण का स्वामी बनना ज्ञानी का मुख्य कार्य है जब कि पापाचरण का स्वामी अज्ञानी बना करता है। व्यवहार चारित्र निश्चय चारित्र का परम्परा तथा साक्षात् उपादान कारण है यह बात सिद्धान्त की दृष्टि से ऊपर बतला दी है।
भूयत्थेणाभिगदा जीवा-जीवा य पुण्ण पावंच ।
प्रासव संवरणिज्जर बंधो मोक्खो य सम्मत्त ॥१३॥ समय सार की इस गाथा का सरल सीधा अर्थ यह है कि
जीव अजीव आस्रव बंध संवर निर्जरा मोक्ष पुण्य पाप इन नौ पदार्थों को सत्यार्थ रूप से जान लेने पर सम्यक्त्व होता है। ____ "दान पूजा इत्यादि शुभ भाव और हिंसा असत्य प्रादि अशुभ भाव हैं, उन शुभाशुभ भावों से धर्म होता है, यह मान्यता सो त्रिकाल मिथ्यात्व है।"
श्री अमृतचन्द्र सूरि तथा जयसेन आचार्य ने इसी आशय को पुष्ट करते हुए संस्कृत टीका लिखी हैं परन्तु कानजी स्वामी इस गाथा की टीका में अपने पास से नमक मिर्च मिला कर लिखते हैं
"दान पूजा इत्यादि शुभ भाव और हिंसा असत्य आदि अशुभ भाव
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