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ठीक सुरक्षित रक्खा है, परन्तु कानजी स्वामी ने जो अभी समयसार का प्रवचन किया है उसमें समयसार का महान अनर्थ किया है । यहाँ इस विषय के २-४ प्रमाण देते हैं -
सुदपरिचिदाणुभूवा सव्वस्स वि काममोग बंधकहा । एयत्तस्सुबलंमो गवरि ए सुलहो विहत्तस्स ॥४॥ इस गाथा का सीधा सरल अर्थ यह है कि
समस्त संसारी जीवों ने काम भोग तथा कर्म बंध की कथा सुनी है, वे उससे खूब परिचित हैं तथा वे काम विषय भोग उनके अनुभूत हैं, परन्तु उनको इससे भिन्न प्रात्मा के एकत्व की उपलब्धि सुलभ नहीं है।
कान जी स्वामी जी इस गाथा पर प्रवचन करते हुए बीच में लिखते हैं
"मनुष्य अनाज खाता है। उसकी विष्ठा भूड नामक प्राणी खाता है।" ___ "ज्ञानी ने पुण्य को जगत की धूल को विष्ठा समझ कर त्याग दिया है, उधर अज्ञानी जन पुण्य को उमंग से अच्छा मानकर आदर करता है। इस प्रकार ज्ञानियों के द्वारा छोड़ी गई पुण्य रूप विष्ठा जगत के अज्ञानी जीव खाते हैं।"पृष्ठ १२४-१२५ । ___“कोई किसी पर का कुछ नहीं कर सकता, किन्तु पर का जो होना है वह तो हुना ही करेगा। तब फिर दान, सेवा, उपकार आदि न करने का तो प्रश्न ही नहीं रहता । ज्ञानी के शुभ भाव होता है किन्तु उसमें उसका स्वामित्व नहीं होता।" पृष्ठ १२ । ___कान जी स्वामी का यह प्रवचन न तो मूल गाथा के अनुरूप है, न श्री अमृतचन्द सूरि तथा जयसेनाचार्य की संस्कृत टीका के अनुकूल है और न पं० जयचन्द्र जी की हिन्दी भाषा टीका के अनुसार हैं । पुण्य को विष्ठा को हीन उपमा स्वयं श्री कुन्दकुन्द आदि किसी भी प्राचार्य ग्रन्थकार ने नहीं दी।
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