Book Title: Digambar Jain Sahitya me Vikar
Author(s): Vidyanandmuni
Publisher: Jain Vidyarthi Sabha Delhi

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Page 44
________________ सर्वज्ञता के अतीत इतिहास की एक झलक __ [ले०-५० फूलचन्द्र जैन सिद्धान्त शास्त्री] "वहाँ आचार्य कुन्दकुन्द की सर्वज्ञत्व के समर्थन वाली दृष्टि बदल कर आत्मतत्व के विश्लेषण में लीन हो जाती है। तभी तो वे यहाँ लिखते हैं, "यद्यपि+ व्यवहार नय की अपेक्षा केवली सबको जानते हैं, किन्तु निश्चय नय की अपेक्षा वे अपने को ही जानते और देखते हैं।' आत्मस्वरूप का कितना सुन्दर विश्लेषण है। ज्ञायक भाव आत्मा का स्वभाव है, किन्तु वह आत्मनिष्ठ है । अतः फलित हुमा कि निश्चय नय से आत्मा स्व को ही जानता और देखता है तथा ध्यवहार द्विविधामय है। उसका अनेक के बिना काम नहीं चलता। अत: फलित हुआ कि व्यवहार नय से प्रात्मा सबको जानता और देखता है। बात यह है कि कार्य कारण व्यवहार, जिसकी लीक पर सारा संसार चक्र प्रतिक्षण घूम रहा है, केवल स्वरूप के विश्लेषण करने तक सीमित नहीं है, क्योंकि वह द्विविधामय है । हम देखते हैं कि जब दो या दो से अधिक परमाणुओं के मिलने से स्कन्ध बनता है और फिर उनसे मिट्टी आदि विविध तत्वों की उत्पत्ति होती है। तदनन्तर उन्हें ज्ञान भेदरूप से ग्रहण करता है । तब इन को मिथ्या कैसे कहा जा सकता है ? सत्य और मिथ्या ये शब्द सापेक्ष हैं । ऋषियों का प्रयोजन मुल वस्तु का ज्ञान कराना रहा है। अतः उन्होंने व्यवहार को मिथ्या आदि जो कुछ जी में आया सो कहा। वेदान्तियों ने तो इस +जाररादि पस्सदि सव्वं ववहारगएरण केवली भगवं । केवलणारणी जाणदि पस्सदि रिणयमेण अप्पाणं ॥१५८॥नि०सा० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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