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"मर्मान्त वेदना तो तब होती है जब इस मिथ्या एकान्त विष को अनेकान्त अमृत के नाम से कोमलमति नई पीढ़ी को पिलाकर उन्हें अनन्त पुरुषार्थी कहकर सदा के लिए पुरुषार्थ से विमुख किया जा रहा
(पृष्ठ ४८) "नियतिवाद में स्वपुरुषार्थ भी नहीं-नियतिवाद में अनन्त पुरुषार्थ की बात तो जाने दीजिये स्वपुरुषार्थ भी नहीं है। विचार तो कीजिए जब हमारा प्रत्येक क्षण का कार्यक्रम सुनिश्चित है और अनन्तकाल का, उसमें हेरफेर का हमको भी अधिकार नहीं है, तब हमारा पुरुषार्थ कहाँ ? और कहाँ हमारा सम्यग्दर्शन ? हम तो एक महानियति चक्र के अंश और इसके परिचलन के अनुसार प्रतिक्षण चल रहे हैं । यदि हिंसा करते हैं तो नियत है, व्यभि वार करते हैं तो नियत है, चोरी करते हैं तो नियत है, पापचिन्ता करते हैं तो नियत है । हमारा पुरुषार्थ कहाँ होगा? कोई भी क्षण इस नियतिभूत की मौजूदगी से रहित नहीं है, जब हम सांस लेकर कुछ अपना भविष्य निर्माण कर सकें।"
-तत्वार्थवृत्ति भूमिका (पृष्ठ ४६-५०) स्याद्वाद और सप्तभंगी
(ले०-५० चैनसुखदास न्यायतीर्थ) स्याद्वाद और लोक व्यवहार
"स्थाद्वाद का उपयोग तभी है जब व्यावहारिक जीवन में उतारा जाय । मनुष्य के आचार विचार और ऐहिक अनुष्ठानों में स्याद्वाद केवल इसीलिये हमारे सामने नहीं आया कि वह शास्त्रीय नित्यानित्यादि विवादों का समन्वय कर दे। उसका मुख्य काम तो मानव के व्यावहारिक जीवन में आ जाने वाली मूढ़ताओं को दूर करना है । मनुष्य परम्पराओं व रूढ़ियों से चिपके रहना चाहते हैं। यह उनकी संस्कारगत निर्बलता है। ऐसी निर्बलताओं को स्याद्वाद के द्वारा ही दूर किया जा सकता है ।
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