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दिव्यध्वनि से कुछ लाभ नहीं ? मोक्षमार्ग की किरण पुस्तक के २१२वें पृष्ठ पर कानजी ने लिखा है--
"तीर्थङ्कर की वाणी से किसी को लाभ नहीं होता।"
जगत का मोह अज्ञान अन्धकार तीर्थङ्कर की दिव्यध्वनि (वाणी) से दूर होकर जगत में धर्म का तथा सत् ज्ञान का प्रचार होता है, भव्य जीवों का मिथ्यात्व, भ्रम, संशय आदि दूर होता है। इसी कारण असंख्य सुर नर पशु रुचि के साथ समवशरण में आकर तीर्थकर की वाणी को सुनकर आत्महित करते हैं, समयसार आदि ग्रन्थ भगवान महावीर की वारणी के अनुसार ही लिखे गये हैं। श्री कुन्दकुन्द प्राचार्य अष्ट पाहुड़ में लिखते हैं
जिरणवयणमोसहमिणं विसयसुहविरेयरणं अमियभूयं ।
जरमरणवाहि हरणं खयकरणं सव्वदुक्खाण ॥१७॥ अर्थ-तीर्थङ्कर जिनेन्द्र की वाणी सांसारिक विषयसुख रूपी रोग का विरेचन कराने के लिये (मल त्याग कराने के लिये) अमृतरूप औषधि है, जरामरण व्याधि को दूर करने वाली है तथा समस्त दुःखों का क्षय करने वाली है।
श्री कुन्दकुन्द आचार्य तो इस तरह तीर्थंकर की वाणी को जगत का कल्याण करने वाली कहते हैं और कुन्दकुन्द आचार्य में अपनी गहरी श्रद्धा भक्ति प्रगट करने वाले कानजी कुन्दकुन्द आचार्य के उक्त कथन के विरुद्ध कहते हैं कि "तीर्थकर की वाणी से किसी को लाभ नहीं होता" कानजी का यह उल्लेख कितना अनर्थकारी असत्य है ? इसको जैनसिद्धान्त के ज्ञाता विद्वान स्वयं अनुभव करें। “यदि संसार में तीर्थंकर की वाणी से भी लाभ नहीं हआ तो क्या उससे विपरीत कान जी के कथन से जनता का लाभ हो सकेगा ?" यह एक प्रश्न है जिस पर सर्वसाधारण को विचार करके निर्णय करना है।
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