Book Title: Digambar Jain Sahitya me Vikar
Author(s): Vidyanandmuni
Publisher: Jain Vidyarthi Sabha Delhi
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जन संस्कृति का मूल-आधार जहां सत्श्रद्धा, सत्ज्ञान, सच्चारित्र है, वहाँ उस श्रद्धा ज्ञान आचार का मूल कारण वीतराग देव, जिनवाणी और निर्ग्रन्थ गुरु हैं । अतएव सम्यक्त्व-उदय करने के लिए यह अनिवार्य आवश्यक है कि स्वच्छ हृदय से वीतराग देव, जिनवाणी और निर्ग्रन्थ गुरु की श्रद्धा भक्ति, उपासना की जावे। आत्मा में सत्ज्ञान का विकास तभी होता है।
केवल ज्ञान होने से पहले सभी जीव छद्मस्थ (अल्पज्ञानी) होते हैं श्रद्धालु स्त्री पुरुष जिनवाणी को सुनकर तथा स्वाध्याय करके अपने ज्ञान को विकसित किया करते हैं । आजकल की जनता में तो अवधि, मनःपर्यय ज्ञान किसी को है नहीं किन्तु इसके साथ ही विशिष्ट मतिज्ञान और पूर्ण श्र तज्ञान भी नहीं है । जब चौथे काल के अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी भी समवशरण में जाकर रुचि से जिनवाणी (दिव्यध्वनि) सुनते हैं और उसी के निमित्त से अपनी ज्ञान-वृद्धि करके मुक्ति प्राप्त करते हैं, तब आज कान जी स्वामी श्रद्धालु जनता को श्रद्धा से भ्रष्ट करने के लिये उल्टी बात कहते हैं कि 'ज्ञानी को वीतराग की वाणी श्रवण करने की भावना नहीं होती।'
"अज्ञानी (मूर्ख) तथा मिथ्याज्ञानी को जिनवाणी सुनने की भावना न हो" यह बात तो मानी जा सकती है परन्तु “सम्यरज्ञानी के अपार जिन-वारणी सुनने की भावना न होवे ।" यह बात तो बिलकुल उलटी है।
नियमसार ग्रन्थ में श्री कुन्दकुन्द प्राचार्य ने पर-पदार्थ रूप जिनवारणी को सम्यक्त्व की उत्पत्ति का कारण बतलाया है
“सम्मत्तस्स णिमित्त जिणसुत्त तस्स जाणया पुरिसा" यानी-सम्यक्त्व उत्पन्न होने का निमित्त कारण जिनसूत्र (जिनवाणी) तथा जिनवाणी के ज्ञाता पुरुष है।
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