Book Title: Digambar Jain Sahitya me Vikar
Author(s): Vidyanandmuni
Publisher: Jain Vidyarthi Sabha Delhi

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Page 31
________________ २२ दीक्षा लेकर शुक्लध्यानी हो मुक्त भी हो जाते हैं । इस तरह द्रव्यलिङ्गी मुनि संसार का बहुत उपकारी होता है । उससे जितना हो सकता है उतना अपना भी कल्याण करता है । कोई प्राध्यात्मिक प्रवक्ता समयसार का उपदेश करता रहे परन्तु उसके अन्तरंग में मिथ्यात्व कर्म का उपशम, क्षय या क्षयोपशय न हो पावे, जिससे कि अन्य व्यक्तियों को सम्यक्त्व का उपदेश देता हुआ भी स्वयं मिथ्यात्वी ही बना रहे, तो क्या ऐसा अब्रती आध्यात्मिक व्याख्याता भी क्या चारों कषायों के उदय के कारण बकरा काटने वाले कसाई के समान है ? यह प्रश्न कानजी स्वामी के भी सामने है क्योंकि अध्यात्म उपदेश देने वाला व्यक्ति सम्यग्दृष्टि हो हो, यह कोई नियम नहीं है । कानजी स्वामी को जरा सोच समझ कर, सिद्धान्त पर दृष्टि रखते हुए बोलना चाहिये । पुण्य 'मैं परका कर सकता हूँ तथा पुण्य से धर्म होता है ।' यह मान्यता क्षयोपशय सम्यग्दृष्टि के भी हुआ करती है, सम्यक् प्रकृति के उदय से क्षयोपशय सम्यग्दृष्टि के सम्यक्त्व में " यह मैंने मन्दिर बनवाया है, यह मेरा मन्दिर है" ऐसे भाव तथा भगवान पार्श्वनाथ विघ्नहर्ता हैं आदि भाव हुआ करते हैं । गोम्मटसार टीका में इसका विवेचन है । एवं - चौथे पांचवें छठे और सातवें गुणस्थान में पुण्य भावों से ही कर्मसंवर, कर्मनिर्जरा रूप धर्म हुआ करता है जो कि मोक्ष का या शुद्ध उपयोग का कारण है । सातिशय अप्रमत्त गुणस्थान के अन्त में शुभभाव ही शुद्धभाव होकर आठवां गुणस्थान हो जाता है । सम्यग्दृष्टि का पुण्य संसार का कारण नहीं होता, सातवें गुणस्थान की अपेक्षा साक्षात् शुद्ध परिणति का लिये सम्यक् दृष्टि जीव के पुण्य भावों से धर्म होता है, यह बात बिलकुल परम्परा से तथा कारण है । इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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