Book Title: Digambar Jain Sahitya me Vikar
Author(s): Vidyanandmuni
Publisher: Jain Vidyarthi Sabha Delhi

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Page 20
________________ .. अणुब्रतों महाब्रतों को चारित्र पाहुड़ में श्रावक धर्म, मुनिधर्म बतलाया है । रयणसार ग्रन्थ मे दान करना, पूजा करना श्रावक का मुख्य धर्म बतलाया है। "दाणं पूजा मुक्खं सावयधम्म, ण सावया तेण विणा" __ रमणसार में श्री कुन्दकुन्द आचार्य लिखते हैं"जो मुरिण भुत्तसेसं भुजइ, सो भुजए जिणुवद्दिठ्ठ। संसारसार सोक्ख, कमसो रिणव्वाणवर सोक्खं ॥२२॥" अर्थ-जो भव्य जीव मुनियों को भोजन कराने के पश्चात बचे हए भोजन को स्वयं खाता है, वह संसार के श्रेष्ठ सुखों को पाता हुआ क्रम से सर्वोत्तम मोक्ष के सुख को पाता है, ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है। तत्वार्थसूत्र, रत्नकरण्ड श्रावकाचार, मूलाचार, पुरुषार्थ सिद्धि-उपाय चारित्रसार आदि चरणानुयोग के समस्त ग्रन्थों में उक्त दान, दया, प्रसुब्रत, महाब्रत, मुनियों का आहारदान करने आदि ब्रतों का धर्म रूप से विधान है वह सब आर्ष विधान इस नये टीकाकार की टीकासे कुशास्त्र सिद्ध होता है । टीकाकार की दृष्टि से जैन धर्म शायद दया और अहिंसा धर्म रूप नहीं है। इस तरह टीकाकार ने ऐसा अनर्थ करके कोमल मति बच्चों को तथा छहढाला पढ़ने वाली स्त्रियों को पथभ्रष्ट करने का यत्न अपनी इस टीका में किया है । इसके सिवाय और भी बहुत से सिद्धान्त-विरुद्ध विषय टीकाकार ने इस टीका में अन्यत्र लिखे हैं। पुण्य त्याज्य है या नहीं श्री कुन्दकुन्द आचार्य विरचित परम आध्यात्मिक ग्रन्थ समयसार पर श्री अमृतचन्द्र सूरि, श्री जयसेन आचार्य ने प्रामाणिक संस्कृत टीकाएँ लिखी हैं तथा पं० जयचन्द्र जी छावड़ा ने हिन्दी भाषा में प्रामाणिक टीका लिखी है। उन सभी टीकाओं में टीकाकारों ने समयसार का भाव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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