Book Title: Digambar Jain Sahitya me Vikar
Author(s): Vidyanandmuni
Publisher: Jain Vidyarthi Sabha Delhi

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Page 27
________________ प्रकार जो मानता है उसे अपनी स्वतंत्रता की श्रद्धा नहीं है।" पृष्ठ ३६ "सच्चे देव, गुरु, शास्त्र के निमित्त भी पर हैं, उनका अवलम्बन भी शुभ राग होने से स्वाधीन स्वभाव में सहायक नहीं है।" मरण के समय असह्य वेदना होती है, इस लिए उस समय प्रार प्रत्येक जीव के परिणाम क्लेशित अशुभ हो जाया करते हैं । उस अवस पर यदि उस जीव के निकट धर्मात्मा मनुष्य होते हैं तो उस मरणासन जीव के परिणामों में व्याकुलता कम कर। शान्ति उत्पन्न करने के लि अर्हन्त वीतराग का स्वरूप-दर्शक णमोकार मंत्र, वैराग्य भावना आ आदि पाठ सुनाते हैं, अशुभ अशान्त भावों को छोड़ने का उपदेश दें हैं, जिससे मरते समय उसके भाव वीतरागता की ओर आकर्षित हो हैं। ऐसे मरण को समाधिमरण कहा है । समाधिमरण करने की भावन धर्मात्मा में स्वभाव से होती है। श्री शिवकोटि आचार्य ने इसी विषय प भगवती प्राराधना नामक महान ग्रन्थ लिखा है । तत्वार्थ सूत्र (मारण त्रिकी सल्लेखना जोषिता), रत्नकरण्ड श्रावकाचार, मूलाचार आ ग्रन्थों में समाधिमरण का उपदेश दिया है। सर्पयोनिमें समाधिरण कारण ही भगवान पार्श्वनाथ के प्रतिबोध देने पर सर्प सर्पिणी मरक धरणीन्द्र पद्मावती हुए । जीवन्धर द्वारा कराये गये समाधिमरण से कुत्त देव हुआ, चारुदत्त सेठ के द्वारा प्रतिबुद्ध होकर मरणासन्न बकरा मरक देव हुआ। इसी प्रकार असंख्य संयमी, देशसंयमी, असंयमी सम्यग्दृषि मिथ्यादृष्टि स्त्री पुरुषों ने अन्य व्यक्तियों के अवलम्बन से समाधिमर द्वारा अचिन्त्य लाभ उठाया है। उस समाधिमरण को कानजी उपयोगी नहीं समझते, यह अद्भु चमत्कार है। पर-पदार्थ बीतराग देव, निर्ग्रन्थ गुरु और वीतराग की जिन-वाणी (स शास्त्र) पर-पदार्थ अवश्य हैं । परन्तु वे आत्मा की वीतरागता के प्रदर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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