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हैं, उन शुभाशुभ भावों के करने से धर्म होता है, यह मान्यता सो त्रिकाल मिथ्यात्व है। भाग २ पृष्ठ ९ ।
हिंसा असत्य आदि पापों को किसी भी दि० जैन ग्रन्थ में धर्म नहीं माना, उनको पाप कहा है, किन्तु दान पूजा आदि शुभ भावों को धर्म तो समय सार के रचयिता स्वयं श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने अपने रयणसार ग्रन्थ में स्पष्ट लिखा है।
दारणं पूजामुक्खं सावयधम्मरण सावया तेण विणा ।११॥ । अर्थ-श्रावक (गृहस्थ) धर्म में दान करना और पूजा करना मुख्य है, दान, पूजा के विना श्रावक नहीं हो सकता। | जिन मन्दिर बनवाकर उनमें प्रतिमा विराजमान इसीलिये की जाती है कि उसकी पूजा करने से गृहस्थ श्रावकों को वीतराग धर्म को यांशिक प्राप्ति होती है। आप भी इसी भावना से मन्दिरों के बनवाने के लिये अपने भक्तों से दान कराते हैं और जिन प्रतिमा के दर्शन पूजा के शुभ भावों से धर्म होना नहीं मानते ! यह विचित्र बात है ।
समाधिमरण समय सार की १६ वीं गाथा की टीका में भी आप ऐसी ही अप्रकृत सिद्धान्त-विरुद्ध बात लिखते हैं । देखिए
कम्मे णोकम्मम्मिय अहमिदि प्रहकं व कम्म पोकम्मे । . या एसा खलु बुद्धी अप्पडिबुद्धो हवदि ताव ॥१९॥
अर्थ-जब तक यह आत्मा कर्म और नोकर्म (शरीर) को अपना पा स्वयं आपको उन कर्म नोकर्म रूप समझता है तब तक यह आत्मा प्रप्रतिबुद्ध (अनजान) रहता है।
परन्तु इस गाथा की व्याख्या करते हुए कानजी लिखते हैं
'मरण के समय यदि सत्पुरुषों का समागम उनकी उपस्थिति हो को वे मृत्यु को सुधार देंगे वे मेरे भावों में सहायक हो सकते हैं-इस
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