Book Title: Digambar Jain Sahitya me Vikar
Author(s): Vidyanandmuni
Publisher: Jain Vidyarthi Sabha Delhi
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१५
करने योग्य धन-सम्पत्ति का लाभ आदि सामग्री मिलती है।
उस पुण्य कर्म के फल को भी न तो किसी ग्रन्थकार ने विष्ठा के समान त्याज्य कहा है, धन सम्पत्ति के सिवाय पुण्य कर्म के फल रूप मनुष्य भव, उच्च कुल, स्वस्थ सुन्दर शरीर, तीर्थंकर पद, तथा साता वेदनीय के उदय से प्राप्त मुनिदशा का भी साता रूप सुख किसी तरह त्याग नहीं किया जा सकता और न अब तक किसी भी ज्ञानी ने इस तरह के (मनुष्य भव आदि का) पुण्य फल का कभी त्याग ही किया है। - विरक्त सम्यग्दृष्टि गृहस्थ दशा में पुण्य कर्म के उदय से प्राप्त धन सम्पत्ति का दान रूप में त्याग किया करता है, परिग्रह का परिमाण रूप सीमित त्याग करता है । और परिवार पोषण के लिये समर्थ भाई पुत्र आदि के हो जाने पर घर वार से भी विरक्त होकर समस्त आरम्भ परिग्रह का त्याग करके मुनि बन जाता है परन्तु पुण्यकर्म के फल से प्राप्त अपने मनुष्य शरीर, उच्च कुल एवं स्वस्थ सुन्दर शरीर को तो मुनि-अवस्था में भी नहीं छोड़ सकता। __ कानजी स्वामी भावुकता-वश पुण्य को विष्ठा की हीन उपमा देकर दूसरों को जहां पुण्य त्याग देने का उपदेश दे रहे हैं वहां स्वयं उस पुण्य आचरण को कर रहें हैं, पूर्व-संचित पुण्य कर्म का फल रुचि के साथ उपभोग कर रहे हैं तथा भविष्य के लिये कर्म का बन्ध कर रहे हैं। इसके सिवाय वे उक्त तीनों प्रकारों में से किसी भी तरह के पुण्य का त्याग कर भी नहीं सकते । फिर भी वे पुण्य को त्याज्य कहते हैं ?
पर-पदार्थ कानजी स्वामी के कथन अनुसार जब पर-पदार्थ किसी का कुछ भला नहीं कर सकता तो कान जी स्वामी प्रवचन किस लिये करते हैं ? ग्रन्थ किस लिये प्रकाशित कराते हैं ? और मन्दिर क्यों बनवाते हैं ? क्योंकि प्रवचन, ग्रन्थ प्रकाशन और मन्दिर प्रतिमा आदि पर-पदार्थ हैं।
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