Book Title: Digambar Jain Sahitya me Vikar
Author(s): Vidyanandmuni
Publisher: Jain Vidyarthi Sabha Delhi

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Page 22
________________ पुण्य के विषय में जब विश्लेषण करके विचार किया जावे तो पुण्य के तीन वाच्यार्थ सिद्ध होते हैं-१-पुण्य आचरण, २-पुण्य कर्म३-पुण्य फल । इनमें से पंच पापों का त्याग करके सम्यग्दृष्टि गृहस्थ के लिए अहिंसा सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रह-परिमाण रूप पाँच अणुब्रत और मुनियों के लिए महाबत पुण्य आचरण है । यह पुण्य' आवरण गृहस्थ तथा मुनि दोनों को अपने अपने पद-अनुसार ग्राह्य (ग्रहण करने योग्य) प्रत्येक 'शास्त्रकार ने बतलाया है । क्योंकि पापों की विरक्ति के कारण अणुब्रत महाब्रतों से असंयम-निरोध के कारण संवर तथा असंख्यातगुणी निर्जरा भी हुआ करती है। इसके सिवाय महाब्रती मुनि ही आत्मध्यानस्थ होकर सातिशय अप्रमत्त सातवां गुण-स्थान प्राप्त करते हैं, उसी सातिशय अप्रमत्त द्वारा अन्त मेंशु द्धोपयोगी चारित्र वाला पाठवें गुण-स्थान का पहला शुक्लध्यान प्राप्त करते हैं, जिससे अन्तमुहूर्त में मोहनीय कर्म का क्षय करके यथाख्यात चारित्र पा लेते हैं। तदनन्तर अन्तर्मुहूर्त में ज्ञानावरण दर्शनावरण और अन्तराय कर्म का नाश करके केवल ज्ञान पाकर अर्हन्त बन जाते हैं। - 'इस तरह अशुब्रती-पुण्य परम्परा से और सातिशय महाबती-पुण्य आचरण शुद्धोपयोग का साक्षात उपादान कारण है। ___तथा च-अब्रती श्रद्धालु श्रावक जो मांस भक्षण, मदिरापान, वेश्यागमन, शिकार खेलना, जुआ खेलना आदि दुर्व्यसनों का त्याग करके जो शुद्ध खान-पान, न्याय व्यवहार, दया, दान आदिक पुण्य करता है वह भी त्याज्य नहीं है। पुण्य अपरनाम सरागचारित्र या व्यवहारचारित्र है,उसे भी क्या ज्ञानी विष्ठा के समान समझ छोड़ सकता है ? सराग, विराग का मिश्रित परिणाम ही सम्यग्दृष्टि (वीतराग देव, निम्रन्थ गुरु और जिनवाणी के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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