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श्रद्धालु उपासक) का पुण्य है । उस पुण्य के राग-अंश के कारण जहाँ शुभ कर्मों का बन्ध होता है वहां ही उसी पुण्य के विराग-अंश से कर्मो का संवर और कर्मो की निर्जरा भी होती है।
२-सम्यग्दृष्टिको कर्म-बन्धरूप पुण्य यानी-शुभकर्म-आस्रव-शुभकर्म-बन्ध त्याज्य है, परन्तु जब तक सम्यग्दृष्टि जीव समस्त आरम्भ परिग्रह का त्याग करके मुनि नहीं बन जाता और मुनि होकर भी जब तक सातिशय अप्रमत्त आत्मधानी नहीं बनता तब तक वह शुक्लध्यानी नहीं बन सकता । शुक्लध्यान की शुद्ध उपयोगी दशा में भी दशवें गुणस्थान तक राग-अंश रहने से उसके पुण्य कर्म का बन्ध होता ही रहता है। इस तरह दशवें गुणस्थान तक पुण्य-बन्ध से छुटकारा नहीं मिलता। अतः पुण्य कर्म-बन्ध संसार का कारण होने से त्याज्य होने पर भी सहज में नहीं छूटता । __अभव्य जीव तथा दूरातिदूर भव्य जीव के तो योग्यता न होने से पुण्य कर्म-बन्ध कभी भी (अनन्त काल तक) नहीं छूटता ।
इसके सिवाय पुण्यकर्म प्रकृतियों में त्रिलोकवर्ती जीवों का संसार सागर से उद्धार कराने वाली, सबसे श्रेष्ठ पुण्य रूप तीर्थकर प्रकृति शास्त्रों में सोलह कारण भावनाओं द्वारा उपादेय बतलाई है। . इस तरह पुण्यकर्म-बन्ध सर्वथा त्याज्य नहीं है, पापबन्ध की अपेक्षा वह उपादेय भी है। पंचमकाल में भरतक्षेत्र के जीवोंको जब मोहनीय कर्म के क्षय करने की योग्यता नहीं है, मुक्ति प्राप्त करने का या शुक्लध्यान का निमित्त कारण भूत बज्रऋषभ नाराच संहनन नहीं होता तो उस दशा में तो पापकर्मबन्ध से बच कर पुण्य कर्म का उपार्जन लाचारी से भी उपादेय है । यदि इस पुण्यकर्मबन्ध को आज का मनुष्य छोड़ दे तो उसके पापकर्म का ही बन्ध होता रहेगा। . .
३-पुण्य कर्म के उदय से मनुष्य भव, उच्च कुल, सुन्दर स्वस्थ शरीर, अच्छा गुणी परिवार, गृहस्थाश्रम का संचालन सुविधा के साथ
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