________________
या निदर्शक हैं, अत: उनके दर्शन वंदन स्तुति पूजन से आत्मा में धीतरागता जाग्रत हुआ करती है जिससे कि आत्मा का स्वाधीन निर्मल स्वभाव प्रकट होने में सहायता मिलती है । इसी सिद्धि के लिये देव शास्त्र गुरु की भक्ति का राग कोरा राग न होकर संसार से छुड़ाने वाला वीतरागता मिश्रित राग होता है । उस मिश्रित वीतरागता के अंश द्वारा मिथ्यात्वका संवर होता है, सम्यक्त्व प्राप्त होता है और कर्मों की असंख्यात गुणी निर्जरा होती रहती है
धवल सिद्धान्त ग्रन्थ में श्री वीरसेन आचार्य ने लिखा है...
"जिणविम्ब-दसणेण णिवत्तरिणकाचिदस्स वि मिच्छत्तादिकम्मकलावस्स खयदंसरणादो।"
अर्थ-जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमा का दर्शन करने से निधत्तनिकाचित रूप मिथ्यात्व आदि कर्म समूह क्षय हो जाते हैं । श्री कुन्दकुन्द देव ने देव शास्त्र गुरु को बोधबाहुड़ ग्रन्थ की २५ वीं गाथा में भव्य जीवों का कल्याण-उदय करने वाला बतलाया है (उदययरो भव- जीवाणं)
क्या इन आर्ष ग्रन्थों पर कान जी स्वामी को श्रद्धा नहीं है ? __ समय सार के प्रवचन में कान जो स्वामी ने प्राचीन प्रामाणिक टीकाकारों की पद्धति का परित्याग करके स्वतन्त्र पद्धति को अपनाया है, अत: वे अनेक जगह जैन सिद्धान्त की अवहेलना करते गये हैं, मैंने यहाँ पर उपरिलिखित तीन गाथाओं के उदाहरण ही प्रस्तुत किये हैं।
मुनि और कसाई बराबर हैं ? कान जी ने पं० टोडरमल जी लिखित मोक्ष मार्ग प्रकाशक ग्रन्थ की सहायक पुस्तक मोक्षमार्ग की किरण नामक लिखी है, उसमें उन्होंने बहुत सी सिद्धान्त-विरोधी निराधार बातों का समावेश कर दिया है जिनको पढ़कर साधारण स्त्री पुरुष भ्रान्त हो सकते हैं । यहाँ उसके कुछ उद्धरण देता हूँ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org