Book Title: Digambar Jain Sahitya me Vikar
Author(s): Vidyanandmuni
Publisher: Jain Vidyarthi Sabha Delhi

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Page 18
________________ एकान्तवाव दक्षित समस्त, विषयादिक पोषक अप्रशस्त । रागी-कुमतिन-कृत-श्रुत को अभ्यास, सोहै कुबोध बहु देन त्रास ।१३ यहाँ तीसरे चरण को एक दम बदल डाला है। इस तरह मूल ग्रंथ में परिवर्तन करने का दुःसाहस किया गया है। __ एक अभी नया छहढाला सोनगढ़ के तत्वावधान में गुजराती टीका से हिन्दी में अनुवादित होकर प्रकाशित हपा हैं। प्रकाशक श्री सेठी दि० जैन ग्रन्थमाला, ६२ धनजी स्ट्रीट, बम्बई नं० २ है । पुस्तक मिलने का पता दि० जैन स्वाध्याय' मन्दिर ट्रस्ट, सोनगढ़ (सौराष्ट्र) है । छहढाला की गुजराती टीका किसने की है, यह ज्ञात नहीं हो सका परन्तु उसका हिन्दी अनुवाद श्री मगनलाल जी जैन ने किया है। इस नवीन हिन्दी टीका में सोनगढ़ की पद्धति को अपना कर अनेक अनर्थ किये गए हैं जो मूल ग्रन्य की भावमयी भावना से भिन्न प्रकार के हैं। मैं यहाँ नमूने के लिए उसकी दूसरी ढाल के उक्त पद्य को ही रखता हूँ। . इस १३ वें पद्य का अन्वयार्थ तो टीकाकार ने ग्रन्थ के अनुकूल ठीक किया है परन्तु भावार्थ अर्थ का अनर्थ करके गड़बड़ कर दिया है। टीकाकार अपने भावार्थ के छठे परिच्छेद में लिखता है__"दया दान महाब्रतादि के शुभभाव-जो कि पुण्यास्रव है उससे, तथा मुनि को आहार देने के शुभभाव से संसार परित (अल्प मर्यावित) होना बतलाये, तथा उपदेश देने के शुभभाव से धर्म होता है-आदि जिनमें विपरीत कथन हो वे शास्त्र एकान्त और अप्रशस्त होने के कारण कुशास्त्र हैंक्योंकि उनमें प्रयोजनभूत सात तत्त्वों को यथार्थता नहीं है। जहां एक तत्व को भूल हो वहाँ सातों तत्त्वों की भूल होती ही है, ऐसा समझना चाहिये।" ऐसा लिखकर सोनगढ़ के टीकाकार ने मूल ग्रन्थकार श्री दौलतराम जी के सरल सीधे अभिप्राय को ही बदल डाला है । ग्रन्थकार ने जेनेतर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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