Book Title: Digambar Jain Sahitya me Vikar
Author(s): Vidyanandmuni
Publisher: Jain Vidyarthi Sabha Delhi

View full book text
Previous | Next

Page 17
________________ हुए वसतिकाओं गृह चैत्यालयों (मकानों) में तथा मन्दिरों में ठहरा करते थे, तब आज भी मुनि यदि वसतिका रूप धर्मशालाओं या मन्दिरों में कुछ थोड़े समय के लिए ठहर जाते हैं। फिर वहाँ से विहार कर जाते हैं, उस धर्मशाला पर अपना स्वामित्व नहीं जमाते, न वहाँ सदा रहते हैं, मुनि-भक्त गृहस्थों द्वारा ठहराने की व्यवस्था अनुसार ही वहाँ ठहरते हैं तो इससे उनका अनगारित्व धर्म कैसे छूट गया। जब कि इस समय न तो मुनि-भक्त राजाओं का शासन है, न वन पर्वतों में मुनियों के ठहरने की सुव्यवस्था है। ___ श्री जुगल किशोर जी मुख्तार सरीखे वयोवृद्ध ज्ञानवृद्ध अनुभवी विद्वान भी मूल श्लोकों के भाव से स्खलित हो गये हैं, तो फिर सामान्य विद्वान यदि इससे भी अधिक स्खलित होकर साहित्य में विकार उत्पन्न करें, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। इसी प्रकार शुद्ध साहित्य में नईनई त्रुटियाँ उत्पन्न होकर मौलिक ग्रन्थ अपने टीकाकारों की कृपा से विकृत बन जाता है। _कविवर श्री पं० दौलतराम जी का छहढाला ग्रन्थ प्रसिद्ध है, उसके मूल रूप में तथा उसकी हिन्दी टीका में भी इस समय हेर-फेर की जा रही है । इस हेर फेर से कोमलमति साधारण जानकार स्त्री पुरुष भ्रम में पड़े बिना न रहेंगे। छहढाला की दूसरी ढाल में गृहीत मिथ्या ज्ञान का स्वरूप बतलाने वाला निम्नलिखित पद्य है एकान्तवाद दूषित समस्त, विषयादिक पोषक अप्रशस्त । कपिलादि-रचित श्रुत को अभ्यास, सोहै कुबोध बहुदेन त्रास ॥१३॥ श्री पं० दौलतराम जी का छहढाला 'सिंघई बन्धु, देवरी (सागर) (म० प्र०) द्वारा प्रकाशित हुआ है, श्री नेमचन्द्र जी पटोरिया द्वारा इसका सम्पादन हुआ है। इस छहढ़ाला में उपरिउक्त पद्य इस तरह छाप दया है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50