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उसी समीचीन धर्म-शास्त्र (रत्नकरण्डश्रावकाचार) के निम्नलिखित पद्यों की व्याख्या करते हुए श्री पं० जुगलकिशोर जी लिखते हैं
दानं वैयावृत्यं धर्माय तपोधनाय गुणनिधये । अनपेक्षितोपचारोपक्रियमगृहाय विभवेन ।११०॥ व्यापत्तिव्यपनोद: पदयोः संवाहनं च गुणरागात् ।
वैयावत्यं यावानुपग्रहोऽन्योपि संयमिनाम् ॥११॥.. अर्थ-.........."और गौणता स उन तपस्वियों का भी समावेश है, जो भले ही पूर्णतः गृहत्यागी न हों, किन्तु गृहवास से उदास रहते हों। भले ही आरम्भ परिग्रह से पूरे विरक्त न हो, किन्तु कृषि, वाणिज्य तथा मिलों के संचालनादि जैसा कोई बड़ा आरम्भ तथा ऐसे महारम्भों में नौकरी का कार्य न करते हों और प्राय: आवश्यकता की पूर्ति जितना परिग्रह रखते हों। साथ ही विषयों में आसक्त न होकर जो संयम के साथ जीवन व्यतीत करते हुए ज्ञान की आराधना, शुभ भावों की साधना और नि:स्वार्थ भाव से लोकहित की दृष्टि को लिये हुये धार्मिक साहित्य की रचनादि रूप तपश्चर्या में रात-दिन लीन रहते हों।"
पृष्ठ १४८-१४६ यहां पर श्री जुगलकिशोर जी मुख्त्यार ने वैयावृत्य करने के लिये संयमी मुनियों के समान साहित्य-सेवियोंको भी पात्र रूप से लिख दिया है जबकि मूल-ग्रन्थ में उनका उल्लेख नहीं है । टीकाकार को मूल ग्रन्थकार के उद्देश को बिगाड़ना उचित नहीं, ग्रन्थकार के शब्दों की व्याख्या टीकाकार विस्तृत कर सकता है, किन्तु उसकी सीमा से बाहर अपने पास से अन्य बातें लिखना उचित नहीं, क्योंकि इससे ग्रन्थकार के साहित्य में अवांछनीय विकार उत्पन्न होता है, जो कि साधारण जनता में भ्रम उत्पन्न करनेवाला बन जाता है । - इसके आगे आप क्षुल्लक श्रावक की व्याख्या में भी अपने उक्त नीति को अपनाते हुए लिखते हैं
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