Book Title: Digambar Jain Sahitya me Vikar
Author(s): Vidyanandmuni
Publisher: Jain Vidyarthi Sabha Delhi

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Page 14
________________ sarfr. देवोऽपि देवः श्वा जायते धर्मकिल्विषात् । कापि नाम भवेदन्या सम्पद्धर्माच्छरीरिणाम् ॥ के पूर्वार्द्ध का है । श्री मुख्तार जो प्रसिद्ध साहित्य-शोधक विद्वान हैं किसी भी ग्रन्थ की सूक्ष्म गलती को भी वे पकड़ लेते हैं, फिर भी वे अपने ग्रन्थ में यह त्रुटि कैसे छोड़ गये । साधारण व्यक्ति इस गलती द्वारा भ्रम में पड़ सकता है । इसी ग्रन्थ के ११२ वें पृष्ठ पर ग्रन्थकार श्री समन्तभद्र आचार्य का परिचय देते हुए आपने निम्नलिखित श्लोक लिखा है वन्द्यो भस्मकभस्मसात्कृतपटुः पद्मावतीदेवतादत्तोदात्त-पव स्वमन्त्रवधन- व्याहूत चन्द्रप्रभः । प्राचार्यस्त समन्तभद्रगरणभृद्य नेह काले कलौ, जैनं वर्त्म समन्तभद्रमभवद् भद्रं समन्तान्मुहुः ॥ पृष्ठ ६४ " इस पद्य में यह बतलाया गया है कि जो भस्मक रोग को भस्मसात् करने में चतुर हैं, पद्मावती नाम की दिव्य शक्ति के द्वारा जिन्हें उदात्त पद की प्राप्ति हुई; जिन्होंने अपने मन्त्र वचनों से (विम्ब रूप में ) चन्द्रप्रभ को बुलवा लिया और जिनके द्वारा यह कल्याणकारी जैन मार्ग (धर्म) इस कलि काल में सब ओर से भद्र रूप हुआ, वे गणनायक आचार्य समन्तभद्र पुनः पुनः वन्दना किये जाने के योग्य हैं ।" यहाँ पर श्री मुख्त्यार जी ने पद्य में आये 'पद्मावती देवता' शब्द का अर्थ ठीक नहीं किया । भगवान् पार्श्वनाथ की शासन देवी का नाम पद्मावती है। उसी देवी का उल्लेख उक्त पद्य में पद्यकार ने किया है । उस पद्मावती देवी का स्पष्ट उल्लेख न करके पं० जुगलकिशोर जी ने 'पद्मावती देवता' शब्द का अर्थ पलट दिया । 'पद्मावती देवी' को 'पद्मावती नाम को दिव्य शक्ति' लिख दिया है । 'दिव्य शक्ति' गुरणवाचक शब्द है जबकि पद्य में व्यक्तिवाचक संज्ञा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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