Book Title: Digambar Jain Sahitya me Vikar
Author(s): Vidyanandmuni
Publisher: Jain Vidyarthi Sabha Delhi

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Page 10
________________ ॐ नमः सिद्धेभ्यः दि ० जैन साहित्य में विकार कुन्दकुन्दो गुरुर्जीयात्, कलावध्यात्मबोधकः । भव्याम्भोरुहमार्तण्डो मोहाज्ञाननिवारकः ॥ विश्ववन्द्य श्री जिनेन्द्र भगवान् के मुखकमल से प्रगट हुई जिनवाण समस्त जगत की कल्याणकारिणी माता है । उस जिनवाणी की सेवा हमारे पूर्वज महान विद्वान वीतराग ऋषियों- श्री धरसेन आचार्य, गुणधर, पुष्पदन्त, भूतबली, कुन्दकुन्द, उमास्वामी, समन्तभद्र, पूज्यपाद, अकलंक देव, विद्यानन्दि, वीरसेन, जिनसेन आदि ने की है । उन्होंने गुरु-परम्परा से प्राप्त जिनवाणी को अविकृत रूपसे ज्यों का त्यों अपने अमूल्य ग्रन्थों में निबद्ध कर दिया है । ग्रन्थ लिखते समय यही रहा कि - उनका ध्येय 'न्यूनमनतिरिक्त, यायातथ्यं विना च विपरीतात् ।' [ रत्नकरण्ड श्रावकाचार ] यानी — गुरुमुख से प्राप्त जिनवाणी को ग्रन्थ में लिखते समय न तो कुछ न्यूनता ( तत्वविवेचन में काट छाँट रूप से कमी) हो, न अधिकता ( अपनी कल्पना से कुछ और मिलावट ) हो, न कोई विपरीत बात लिखी जावे, जितना जैसा जाना गया है, वैसा उतना ही लिखा जावे | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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