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ग्रन्थ लिखकर अन्त में उन्होंने अपनी छद्मस्थ अवस्था प्रगट करते हुए लघुता का भी प्रकाशन किया है और सम्भव त्रुटियों को सुधारने का निवेदन विज्ञ पाठकों से किया है |
संस्कृत भाषा में सिद्धान्त के आद्य सूत्रकार श्री उमास्वामी तत्वार्थसूत्र ग्रन्थ के अन्त में लिखते हैं
अक्षरमात्रपदस्वर होनं,
व्यञ्जनसन्धिविवजित रेफम् । साधुभिरत्र मम क्षमितव्यं, को न विमुह्यति शास्त्रसमुद्र ।
अर्थ - इस तत्वार्थ सूत्र की रचना में यदि मैंने कहीं पर किसी अक्षर, किसी मात्रा, किसी पद, किसी स्वर की कमी की हो अथवा किसी व्यञ्जन, किसी सन्धि या रेफ के बिना कहीं कुछ लिख दिया हो, तो विज्ञ साधु जन मुझको क्षमा करें। इस कौन व्यक्ति गलती नहीं कर सकता ?
प्रगाध शास्त्र समुद्र में
सूत्रकार ने इस श्लोक द्वारा अपनी अल्पज्ञता को कितने सुन्दर ढंग से प्रकाशित किया है ।
श्री अमृतचन्द्र सूरि अपने प्रख्यात अहिंसा धर्म के विशद विवेचक ग्रन्थ पुरुषार्थ सिद्धि- -उपाय के अन्त में अपनी लघुता प्रगट करते हुए - लिखते हैं
वर्णै: कृतानि चित्र, पदानि तु पदेः कृतानि वाक्यानि । वाक्यैः कृतं पवित्र शास्त्रमिदं न पुनरस्माभिः ॥२२६॥
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अर्थ – मैंने इस ग्रन्थ में कुछ भी नहीं किया । विचित्र वर्णों ( अक्षरों) से पद बने हैं और पदों से वाक्य बने हैं तथा वाक्यों द्वारा यह ग्रन्थ बना है ।
श्री पं० टोडरमल जी मोक्षमार्ग प्रकाशक नामक महाग्रन्थको लिखते हुए कहते हैं
"मैं तो बहुत सावधानी रखोंगा। पर सावधानी करते भी कहीं सूक्ष्म अर्थ का श्रन्यथा वर्णन होय जाय तो विशेष बुद्धिमान होइ सो
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