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धवला उद्धरण
दलिय - मयण - प्यावा तिकाल - विसएहि तीहि णयणेहि । दिट्ठ-सयलट्ठ- सारा सुदद्ध-तिउरा मुणि-व्वइणो ।। 24।। ति-रयण-तिसूलदारियमो हंघासुर - कबंध - बिंद-हरा । सिद्ध-सयलप्प-रूवा अरहंता दुण्णय - कयंता ।। 25।। जिन्होंने मोहरूपी वृक्ष को जला दिया है, जो विस्तीर्ण अज्ञानरूपी समुद्र से उत्तीर्ण हो गये हैं, जिन्होंने अपने विघ्नों के समूह को नष्ट कर दिया है, जो अनेक प्रकार की बाधाओं से रहित हैं, जो अचल हैं, जिन्होंने तीनों कालों को विषय करने रूप तीन नेत्रों से कामदेव के प्रताप को दलित कर दिया है, जिन्होंने सकल पदार्थों के सार को देख लिया है, जिन्होंने त्रिपुर अर्थात् मोह, राग और द्वेष को अच्छी तरह से भस्म कर दिया है, जो मुनिव्रती अर्थात् दिगम्बर अथवा मुनियों के पति अर्थात् ईश्वर हैं, जिन्होंने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र इन तीन रत्नरूपी त्रिशूल के द्वारा मोहरूपी अंधकार रूप असुर के कबन्ध को विदारित कर लिया है, जिन्होंने संपूर्ण आत्मस्वरूप को प्राप्त कर लिया है और जिन्होंने दुर्नय का अन्त कर दिया है, ऐसे अरिहंत परमेष्ठी होते हैं।।23-25।।
सिद्ध परमेष्ठी का स्वरूप
णिहय-विविहट्ठ-कम्मा तिहुवण - सिर- सेहरा विहुव- दुक्खा | सुह- सायर - मज्झ गया णिरंजणा णिच्च अट्ठ-गुणा।।26।। अणवज्जा कय-कज्जा सव्वायवेहि दिट्ठ- सव्वट्ठा । वज्ज-सिलत्थब्भग्गयपडिम वाभेज्ज - संठाणा।।27। मासुण-संठाणा वि हु सव्वावयवेहि णो गुणेहि समा । सव्विदियाण विसयं जमेग - देसे विजाणाति ।। 28 ।।
जिन्होंने नाना भेदरूप आठ कर्मों का नाश कर दिया है, जो तीन लोक के मस्तक के शेखर स्वरूप हैं, दुःखों से रहित हैं, सुखरूपी सागर में