Book Title: Devvandanbhashyam
Author(s): Devendrasuri, Dharmkirtisuri
Publisher: Rushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
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सुदर्शननृपकथा
श्रीदे० चैत्य श्रीधर्म संघाचारविधौ ॥४१०॥
अस्थाईचिंता न पवित्तिमित्तं तु ॥३॥ पंचसुवि इमेसु पुढो संबज्झइ वइढमाणयत्ति जहा । सद्धाइ वड्ढमाणीइ ठामि उस्सग्गमिचाई ॥४॥ इय पाढो लाभकमा एसिं सद्धा सईइ जह मेहा । तोवि घिई इच्चाई वुडीवि इमाण एमेव ॥ ५॥ कारणरहियं कर्ज घडाइयं जह न सिज्झइ कयावि । इय सद्धाईहिं विणा काउस्सस्स नहु सिद्धी ॥६॥ तथा वैयावृत्यकरादयश्च त्रयो हेतवः, उक्तं च-"पवयणवेयावच्चं पवयणसंतिं च पवयणसमाहि । सम्मदिट्ठी देवा करंति जे तेसिमुस्सग्गं ॥१ ।। पवयणवेयावच्चाइवत्तियाइहिं ठामि हेऊहिं । अविरयभावा तेसिं नउ वंदणवत्तियाईहिं ॥२॥ वेयावचं संघाइरक्खणापमुहकिचमिह संती । उवसग्गाइविणासो मणाइदुहवारण समाही ॥३॥" सद्धाइ यत्ति चशब्दादुत्तरीकरणाद्याः पापक्षपणादिफलेर्यापथिक्यादिकायोत्सर्गस्य सामान्येन श्रद्धाद्या वंदनादिप्रत्ययस्य वैयावृत्त्यकृत्वादयस्तु सुदृष्टिसुरस्मरणादिफलोत्सर्गस्येति ज्ञेयं ॥ आसी वसंतपुरपहू सुदंसणरओ सुदंसणो राया। जियसुरगुरुमइविभवो भवदत्तो तस्स वरसचिवो ॥१॥ देसंतरवणियाणीयहयवरेसुं कयावि निवसचिवा। आरुहिउँ नियनयरा विणिग्गया रायवाडीए॥२॥ विवरीयसिक्खयाए दुरंतकंतारखित्तमंतिनिवा। ते तुरया दढसंताखणेण पंचत्तमणुपत्ता ॥३॥अह मंतिनिवा मिल्लेहि बंधिया ताडिया बहुपयारं । उद्दालियऽलंकारा जीवियसेसा विमुक्का य॥४॥ कहकहमवि चेयन लहिउँ अन्नुन्नमन्नुमलिणमुहा। परिभाविउ पयट्टा मग्गपलुट्टा मणे एवं ॥५॥ कजाण गई विसमा अहह अहो विसममावयापडणं । संपत्तीओऽवि हहा तडिव किह दिट्ठनट्ठाओ|६|| रजंगाइतुरंगाइणोऽवि इह विसमनित्थरणहेउं । जुजंति किहणु? तेऽविहु विहुरपयं ही पणामंति७॥ दुट्ठमहिलव्य पावा रायसिरी उयह कट्ठसंठप्पा । अहवा विहिमि विमुद्दे अन्नपि विसं धुवं होइ ॥८॥ इय झूरता भमिरा पत्ता ते एगसिंगसेलंमि। केवलमहिमनिमित्तं नियंति तत्थागए अमरे ॥९॥ भत्तीइ कोउगेण य गंतुं मुणिपयजु पणिवयंति । तेसिं देवनराणं भयवं वागरइ इय धम्मं ॥१०॥"भवजल
॥४१०॥
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