Book Title: Devvandanbhashyam
Author(s): Devendrasuri, Dharmkirtisuri
Publisher: Rushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
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| हेतुद्वाद
शकम्
श्रीदे चैत्यश्रीधर्म संघाचारविधी ॥४०९||
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Acharya Shri Ka दिक्खं पवजइ महप्पा । चिइवंदणाइविहिणा अणसणसुविसुद्धपरिणामो ॥९३॥ पंचनमुचारपरो भुवणस्सवि विम्हयं जणेमाणो। मरिऊणं सिरिगुत्तो जाओ अमरो तइयकप्पे ॥९३।। कीरसुरोवि तहिं चिय पत्तो से काउ देहसकारं । चविउं तओ विदेहे दोऽवि | लहिस्संति सिवसुक्खं ॥ ९४ ॥ इत्थं महीधरतनूरुहवृत्तमेतच्चेतश्चमत्कृतिकरं भविका! निशम्य । क्लिष्टाष्टकर्माहतयेऽष्टनिमित्तशुद्धे, सच्चैत्यवंदनविधौ सततं यतध्वम् ।।९५॥ इति श्रीगुप्तश्रेष्ठिकथा । इत्युक्तं 'निमित्तट्ठति सप्तदशं द्वारं, सांप्रतं 'बार हेऊ यत्ति अष्टादशं द्वारं व्याख्यानयत्राह
चउ तस्सउत्तरीकरणपमुह सद्धाइया य पण हेऊ । वेयावच्चगरत्ताइ तिमि इय हेउबारसगं ॥५३॥
चत्वारो हेतवः तस्योत्तरीकरणप्रमुखाः 'तस्स उत्तरीकरणेणं १ पायच्छित्तकरणेणं २ विसोहीकरणेणं ३ विसल्लीकरणेणं ४तिरूपा, कायोत्सर्गसिद्धये भवंतीति शेषः, तत्र 'तस्सालोयणपडिकम्मणमाइणा सोहियाइयारस्स । उत्तरकरणाईहिं हेऊहिं करेमि उस्सग्गं ॥१॥ पिंडीबंधणलेवाइ जह सलागाइसोहियवणस्स । हाणाइगयमलस्सव जहा विलेवाइसकारो ॥२॥ आलोयणाइणा तहऽसुद्धइयारस्स उत्तरीकरणंश कीरइ पच्छित्तेण व जह सगडरहंगगेहाणं ॥३॥ पच्छित्तं पुण उस्सग्गलक्खणं पंचमंर इह विसोही। अइयाराण अभावो ३ मायाइ विणा विसल्लत्तं॥४॥ इह हेउहेउमत्तं नेयं जह होइ उत्तरीकरणं । पच्छत्तेणं तंपिहु विसोहिओसा विसल्लत्ते ॥५॥ तथा 'श्रद्धादिका सद्धाए मेहाए घिईए धारणाए अणुप्पेहाए वडमाणीए' इत्यात्मकाः पंच हेतवः, तत्र "सद्धा निओमिलासो न पराणुग्गहबलमिओगाई । मेहा हेओवादेयबुद्धिपडुया न य जडत्तं ॥१॥ मेहा वा मजाया जिणभणिया नासमंजसत्तंपि ॥ मणपणिहाणा पीई घिई न रागाइआउलया ॥२॥ धारण अरिहाइगुणाविस्सरण न उण सुन्नचित्तत्तं । अणुपेहा
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॥४०९||
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