Book Title: Devvandanbhashyam
Author(s): Devendrasuri, Dharmkirtisuri
Publisher: Rushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
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श्रीदे० चैत्य०श्री
धर्म० संघा चारविधौ ॥४४१ ॥
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इय थोउ सुरे विरए कंतिसिरी कहर पहु ! कहं अहयं । अहुणा नहु वयउचियत्ति १ तो गुरू भणइ सुण भद्दे ! ||७०॥ सोवक्कमनिरुवकमभेया कम्मं दुहा इहं तत्थ । परिणामवसेण भवे सोवकमकंमुणो नासो ॥ ७१ ॥ निरुत्रकम्मं तु कम्मं जिज्झइ जीवाण वेइयं चैव । दुक्करतव चरणेणं निकाइयत्ता जओ भणियं ॥ ७२ ॥ | " सव्वासि पयडीणं परिणामवसादुवकमो मणिओ । पायमनिकाइयाणं तवसा उ निकाइयापि ||७३ ||” तथा “ खलु भो कडाणं कम्माणं पुव्वि दुच्चिन्नाणं दुप्परिकंताणं वेत्ता मुक्खो, नत्थि अवेइत्ता, तवसा वा झोसइत्त" ति । तुमए पुण कम्ममिणं विहियं सोवकमं तओ गमिही । मज्झिमवयंमि चिदणाइसुकयाणुभावेण ॥ ७४ ॥ भणियं च-पुव्वभव विहियजहविहिचिइवंदणमाइसुकय उपपन्नं । सुहभोगफलं पुत्रं उदइस्सह तुह असामन्नं ॥ ७६ ॥ तत्तो पहणो इट्ठा पहूयरसुहभायणं बहुअवच्चा । होहिसि अवच्चसहिया य संभया पउरलोयस्स ||७७|| इय सोउ सहा सयला सहलं सह लायसंजया धम्मं । गहिय सविसेसं चिदणाइरम्मं गया सगिहं ॥ ७८ ॥ कंतिसिरीविहु गहिउं सगवेलाचेइवंदणासहिअं । गिहिधम्मं सा उजुया गया। गिहं विजयसिट्ठिस्स ||७९ | डिंडीरपिंडपंडुरगुरुजसभरपंडुरीकयतिलोओ । भयवंतु पुंडरीओ काउं बहुलो यउवयारं ||८०|| बहु| समणकोडिजुत्तो पत्तो विमलायलंमि अयलपयं । मासपरिचत्तभत्तो पत्तो पुंनिमदिणे चित्ते ॥ ८१|| निव्वाणगमणमहिमा हिट्ठेहिं सुरासुरेहिं तस्स कया। पुंडरियसिद्धिकाला सो भन्नइ पुंडरीयगिरी || ८२ ॥ अह मरहचकिणा पढमधम्मच किस्स पुंडरीयस्स । पडिमाइ अलंकरियं कारवियं पवरजिणभवणं ॥ ८३ ॥ पढमणिपढमगणहरसिद्धीइ पवित्तियं तयं जायं । अवसप्पिणीइ भरहे तित्थं तित्थाण पढमंति ॥ ८४ ॥ कंतिसिरीवि तिसंझं पूयंती जिणवरं उभयसंझं । आवस्सयंमि निरया सुइरं पालेवि गिहिधम्मं ॥ ८५ ॥ सिरिधम्म घोससूरिस्स चरणमूलंमि गहियपन्न । सगवारं चिड़वंदणकरणमणा विजियकरणमणा ॥ ८६ ॥ उप्पन्नविमलनाणा सार
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कान्तिश्रीकथा
॥४४१ ॥

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