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तपोनिधि, बहुभाषाविज्ञ आचार्य श्री देशभूषण जी भारतीय साहित्य के गम्भीर अध्येता एवं मर्मज्ञ विद्वान् हैं। भारतीय साहित्य की आध्यात्मिक एवं दार्शनिक निधियों को जन-जन तक पहुंचाने में उन्होंने स्वयं को समर्पित कर दिया है। इस भविष्यद्रष्टा, अनासक्त कर्मयोगी ने राष्ट्र के रचनात्मक निर्माण और उत्तर एवं दक्षिण के रागात्मक सम्बन्धों को विकसित करने के लिए विभिन्न भारतीय भाषाओं यथा संस्कृत, तमिल, कन्नड़, बंगला, गुजराती आदि के भक्ति साहित्य को राष्ट्रभाषा हिन्दी में तथा हिन्दी के भक्ति-साहित्य को अन्य भारतीय भाषाओं में अनुदित किया है। आचार्य श्री देशभूषण जी की सतत साहित्य-साधना के कारण ही अनेक समर्थ ऋषियों की विभिन्न अज्ञात एवं महत्त्वपूर्ण रचनाएं प्रकाश में आ सकी हैं। आपकी गणना भारतीय भाषाओं के उन युगप्रमुख साहित्य-सेवियों में की जा सकती है जिन्होंने धर्म की रक्षा एवं साहित्य के अभ्युदय के लिए समर्पित होकर भारत के विभिन्न भाषा-भाषियों में प्रेम एवं सद्भाव की अविच्छिन्न कड़ियों को जोड़ा है। जिनवाणी के प्रचार-प्रसार के लिए आपने अनेक प्राचीन एवं दुर्लभ पांडुलिपियों को प्रकाश में लाने का अहर्निश प्रयास किया है । लुप्तप्राय धर्मग्रन्थराशि-गंगा के आप अभिनव भगीरथ हैं।
परम वन्दनीय, सिद्ध तपस्वी आचार्य देशभूषण जी सांस्कृतिक अनुचेतना के प्रमुख उद्बोधक महापुरुष हैं । आपके चरण रचनाधर्मी हैं । अनेक प्राचीन तीर्थक्षेत्रों के जीर्णोद्धार एवं नए तीर्थों की सृष्टि के मूल प्रेरक आप ही रहे हैं। आपके भागीरथ प्रयत्न से भारत की सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक राजधानी श्री अयोध्या जी में जैन धर्म के आद्य प्रवर्तक भगवान् श्री ऋषभदेव की बत्तीस फुट की कलात्मक मूर्ति की प्रतिष्ठा एवं भव्य मन्दिर जी का निर्माण सम्भव हो सका है। साधना स्थल चूलगिरि पार्श्वनाथ (जयपुर, खानिया जी) एवं गौरवमंडित शान्तिगिरि (कोथली) पूज्य आचार्यश्री के रचनात्मक क्रिया-कलापों का सजीव इतिहास हैं । आपकी पावन प्रेरणा से सैकड़ों जिनमन्दिरों, कालेजों, पाठशालाओं, पुस्तकालयों, वाचनालयों, औषधालयों एवं धर्मशालाओं का निर्माण एवं उद्धार हुआ है।
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी इस युग के सर्वप्रमुख दिगम्बर जैनाचार्य हैं । एक दिगम्बर सन्त के रूप में जीवन व्यतीत करते हुए भी आचार्य श्री अत्यन्त उदार एवं सहृदय हैं। भारत एवं विश्व के सभी धर्मों के प्रति उनके मन में समादर भाव है। उन्होंने प्रायः सभी धर्मों के प्रमुख ग्रन्थों का अध्ययन किया है। इसीलिए उनकी पवित्र वाणी में सभी धर्मों के सिद्धान्तों एवं आदर्शों का समावेश पाया जाता है। आचार्यश्री की सम्मति में जैन धर्म की पृष्ठभूमि अत्यन्त उदार है। वे जैन धर्म को आत्मा का धर्म मानते हैं। उनकी दृष्टि में जैन धर्म में ही विश्वधर्म होने की क्षमता है। इसीलिए आचार्यश्री अपनी साधना एवं तपश्चर्या से जैन धर्म को विश्वव्यापी बनाने में निरन्तर संलग्न हैं। वास्तव में वे नए युग की आस्था के सबल प्रतीक हैं । बहुमुखी रचनात्मक व्यक्तित्व एवं कृतित्व के धनी आचार्य श्री देशभूषण जी धर्म के सजीव एवं मूर्तिमन्त स्वरूप हैं।
धर्मप्राण मुमुक्षुओं के लिए आचार्यरत्न देशभूषण जी महाराज का व्यक्तित्व सहज आस्थामय रहा है । शरीरधर्मी होते हुए भी आप में रक्त-मांस की गंध नहीं है। अध्यात्म की शुभ्र-ज्योत्स्ना में परिव्याप्त प्रभा-मंडल आपके दिव्य शरीर को अलौकिक आभा प्रदान करता है । इसी कारण प्रतिकूल परिस्थितियाँ भी आपके सम्मुख नतमस्तक हुई हैं । आप उपसर्गजयी और महान् परिषहजेता हैं, एलाचार्य मुनि श्री विद्यानन्द जी महाराज सरीखे श्रमणों के परमगुरु और चिरन्तन मानवीय मूल्यों के सजग प्रहरी हैं, महान् अध्यात्मनायक, मनस्वी, मनीषी, उदार और उदात्त बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी तथा प्रेरणा के अक्षय अमृत-कोष हैं।
प्रस्तुत अभिनन्दन ग्रन्थ
जैन-समाज की शीर्ष अध्यात्ममणि, गौरव-शिखर आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज के महत्त्वपूर्ण अवदान से प्रेरित होकर उनके सर्वजन हिताय रचनात्मक कार्यों और धर्म-प्रचार की महान् सेवाओं को लक्षित करते हुए यह परमावश्यक था कि हम उनकी कीर्ति को मूर्त स्वरूप प्रदान करने के निमित्त एक विशाल अभिनन्दन ग्रन्थ को प्रस्तुत करके इस शलाका पुरुष का सारस्वत अभिनन्दन कर अपने कर्तव्य का पालन करें। इस प्रकार के युग-प्रमुख राष्ट्रीय संत का अभिनन्दन वास्तव में एक राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक आवश्यकता है। इसीलिए भारतवर्ष के जैन समाज ने योगेन्द्र-चूड़ामणि, परमहंस, धर्म-साधक आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी की दीर्घकालीन सेवाओं एवं प्रेरक व्यक्तित्व के प्रति विनम्र श्रद्धा व्यक्त करने के लिए एक विशाल अभिनन्दन ग्रन्थ जैन-धर्म के विश्वकोश के रूप में उनके कर-कमलों में समर्पित करने का पावन संकल्प किया था।
___ इस प्रकार आचार्यरत्न श्री १०८ देशभूषण जी महाराज का सारस्वत अभिनन्दन दिगम्बर मुनि-परम्परा का सात्विक कीति-आलेख है। यह व्यक्ति को नहीं, परम्परा को नमन है । व्यष्टि में समष्टि की प्रतिच्छवि है । इस ग्रन्थ को दो भागों में विभक्त किया गया है-(१) आस्था, और (२) चिन्तन । आस्था खंड के अन्तर्गत पांच उपखंड हैं-आस्था का अर्घ्य, कालजयी व्यक्तित्व, रसवन्तिका, अमृतकण, सजन-संकल्प ।
आस्था और चिन्तन
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