Book Title: Chaturvinshati Jin Stuti
Author(s): Vinaysagar
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 6
________________ अमि, सूर्य प्रादि की स्खति रूप ऋचाओं में पाया जाता है, परवर्ती साहित्य में कमाया बहुत से नवीन देवों की कल्पना बढ़ती गई और उनके स्तुति स्तोत्र विपुल परिमाण में बनने लगे। रामायण, महाभारत भागवतादि विशालकाय चरित ग्रन्थ भी इसी महित्वाद के विकास की देन है। रघुवंश. कुमारसंभव. किरातार्जुनीव. शिशुपालवध भादि काव्य ग्रन्थों में भी प्रसंगवश कृष्ण. महादेव. चंडी आदि की स्तुति की गई है, पुराणों के जमाने में तांत्रिक प्रभाव बढता चला. फलतः शिवकवच, शिवरचा. विष्णुपंजर आदि संज्ञक रचवायें उपलब्ध होती है। इसी प्रकार अष्टोतर शत. सहस्र नामवाले स्तोत्रों का एवं दुर्गासप्तशती. चंडी, दुर्गा. सरस्वती आदि के स्तव सैकड़ों की संख्या में उपलब्ध है. जिसमें शिवमहिन्न. चंशतक. सूर्यशतक. देवीशतकादि एवं शंकराचार्य के स्तोत्र बहुत प्रसिद्ध हैं। बौद्ध साहित्य में भी विद्धता पूर्ण अनेक स्तोत्रों की उपलब्धि होती है। इन सब स्तोत्रों का परिमाण विशाल होने पर भी जैन स्तोत्र साहित्य, भारतीय स्तोत्र साहित्य में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है। कइ दृष्टिकोण से उनका वैशिव्य असाधारण प्रतीत होता है पर उस पर विस्तृत विवेचन करने का यह स्थान नहीं है। जैन स्तोत्र साहित्य का विकाश • जैन धर्म में उसके उद्धारक एवं प्रवर्तक तीर्थकरों का श्रादर होना स्वाभाविक ही है। मूख भागमों में वीरस्तुति अध्ययन एवं अन्य ग्रन्थों में भी तीर्थकरों की सुन्दर शब्दों में स्तुति की गई है. और देवों द्वारा १०८ पयों में स्तुति करने का निर्देश पाया जाता है । मौखिकरूपसे दि. समंतभद्र *-विशेष जानने के लिये देखें, शिवप्रसाद भट्टाचार्य के प्राचीन भारत का स्तोत्र साहित्य' देख के आधार से लिखित भाकामर-कल्याणमंदिर-ममिळण की प्रो.हीरालास कापडिया शिसित प्रस्तावना एवं शोमनात सति चतुर्वियातिका की भूमिका ।

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