Book Title: Chaturvinshati Jin Stuti
Author(s): Vinaysagar
Publisher: ZZZ Unknown
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KERANIXXXXXXXXXXXX m end PART श्री चतुर्विंशति-जिम स्तुतिः । m श्रीहिनदीजैनागमाशक सुमतिकार्यालय अन्धा श्रीसुन्दरस्तुनयः SHARMA मुनि-विनयसागर meetirementire Aasalisha - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - SEarn Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर सेवा मन्दिर दिल्ली क्रम संख्या काल नं0 खण्ड Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीहिन्दीबेनागम प्रकाशक सुमतिकार्यालय प्रन्यांक-३. . SA विद्यावारिधि-श्रीसुन्दरगाण-प्रणीत-स्वोपज्ञ-) वृत्त्यासह-यमकालंकारविभूषिता श्रीचतुर्विंशति-जिन-स्तुतिः। हिन्दी आगमोदारक खरतरगच्छाधिराज-श्रीमजिनपणिसागरसूरीधराणां शिष्यरत्न-मुनि विनयसागरेण संशोधिता कोटा उपधान सत्क ज्ञान द्रव्य साहाय्येन वीर सं० २४१] [वि. १.०४ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक: श्रीहिन्दीजैनागमप्रकाशक सुमतिकार्यालय जैन प्रेस कोटा ( राजपूताना) प्रथमा वृत्तिः २५. मुदक: Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व के सभी सभ्य समाजों में अपने से अधिक गुणवान. विद्यावान् . वयोवृद्ध के प्रति आदर एवं भक्तिभाव रहा करता है, और उनकी अविद्यमानता में-तिरोहित हो जाने पर उनके स्मारक के रूप में मंदिर,मूर्ति-पादुका, चित्र आदि का निर्माण होता है जिससे शिल्प स्थापत्य मूर्तिकला चित्रकला का विकाश एवं उत्तरोत्तर अभिवृद्धि व उन्नति हुई, और उनके गुणानुवाद के रूप में चरित काव्यों, भक्ति साहित्य-स्तुति स्तोत्रादि विशाल साहित्य का निर्माण हुआ। कोई भी वस्तु उत्पत्ति के समय साधारण रूप में होती है पर विशिष्ट व्यक्तियों के हाथों में जाकर कलापूर्ण एवं असाधारण रूप में परिवर्तित हो माती है । मंदिर मूर्तियों के पीछे श्रीमानों एवं कुशल कलाकारों के सहयोग से अरबों खरबों द्रव्य या असंख्य धनराशि का व्यय हुआ है। समय समय के राज्य विप्लव एवं प्राकृतिक प्रलयों से ध्वस्त होते होते जो सामग्री बच पाई है या खुदाइ से प्राप्त हुई है, उससे उपर्युक्त कथन पूर्णरूपेण समर्थित है। इसी प्रकार असाधारण प्रतिभासंपन विद्वानों के भक्तिसित हृदयों से जो उद्गार निकले वे साहित्य की छटा से पूर्ण. विविध छंद अलंकारों से सजित, श्रृंगार. दर्शन. अध्यात्म से सराबोर. विविधरली की असंख्य उदात्त रचनाओं के रूप से आज भी सुरक्षित है। स्तोत्र साहित्य की प्राचीनता एवं जैनेतर स्तोत्र भारतीय साहित्य में सब से प्राचीन अन्य वेद माने जाते हैं, उनके अवलोकन से तत्कालीन लोक मानस के मलिभाव का मुकाव, इन्द्र. वरुण. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमि, सूर्य प्रादि की स्खति रूप ऋचाओं में पाया जाता है, परवर्ती साहित्य में कमाया बहुत से नवीन देवों की कल्पना बढ़ती गई और उनके स्तुति स्तोत्र विपुल परिमाण में बनने लगे। रामायण, महाभारत भागवतादि विशालकाय चरित ग्रन्थ भी इसी महित्वाद के विकास की देन है। रघुवंश. कुमारसंभव. किरातार्जुनीव. शिशुपालवध भादि काव्य ग्रन्थों में भी प्रसंगवश कृष्ण. महादेव. चंडी आदि की स्तुति की गई है, पुराणों के जमाने में तांत्रिक प्रभाव बढता चला. फलतः शिवकवच, शिवरचा. विष्णुपंजर आदि संज्ञक रचवायें उपलब्ध होती है। इसी प्रकार अष्टोतर शत. सहस्र नामवाले स्तोत्रों का एवं दुर्गासप्तशती. चंडी, दुर्गा. सरस्वती आदि के स्तव सैकड़ों की संख्या में उपलब्ध है. जिसमें शिवमहिन्न. चंशतक. सूर्यशतक. देवीशतकादि एवं शंकराचार्य के स्तोत्र बहुत प्रसिद्ध हैं। बौद्ध साहित्य में भी विद्धता पूर्ण अनेक स्तोत्रों की उपलब्धि होती है। इन सब स्तोत्रों का परिमाण विशाल होने पर भी जैन स्तोत्र साहित्य, भारतीय स्तोत्र साहित्य में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है। कइ दृष्टिकोण से उनका वैशिव्य असाधारण प्रतीत होता है पर उस पर विस्तृत विवेचन करने का यह स्थान नहीं है। जैन स्तोत्र साहित्य का विकाश • जैन धर्म में उसके उद्धारक एवं प्रवर्तक तीर्थकरों का श्रादर होना स्वाभाविक ही है। मूख भागमों में वीरस्तुति अध्ययन एवं अन्य ग्रन्थों में भी तीर्थकरों की सुन्दर शब्दों में स्तुति की गई है. और देवों द्वारा १०८ पयों में स्तुति करने का निर्देश पाया जाता है । मौखिकरूपसे दि. समंतभद्र *-विशेष जानने के लिये देखें, शिवप्रसाद भट्टाचार्य के प्राचीन भारत का स्तोत्र साहित्य' देख के आधार से लिखित भाकामर-कल्याणमंदिर-ममिळण की प्रो.हीरालास कापडिया शिसित प्रस्तावना एवं शोमनात सति चतुर्वियातिका की भूमिका । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं थे. सिबसेब बाध विकार माने जाते है । समेतमा के देवागम स्तोत्र. स्वयंभूस्तोत्र एवं जिन शतक, और सिद्धसेन की शानिशिकायें और कल्यामामंदिर बडे ही मंमीर एवं भावपूर्ण स्तोत्र हैं। देवानम एवं हात्रिशिकामों में दर्शनशास्त्र कूट कूट के भरा है। इसके पश्चात् मानतुंगसी व भक्तामरस्तोत्र, शोभनमुनि रचित स्तुति चतुर्विशतिका, धनपाल रचित ऋषभपंचाशिकादि ११वीं शताब्दि तक संख्या में कम पर महत्वपूर्ण स्तोत्र निर्मित हुए। १२-१५ वी शती से स्तोत्र साहित्य की संख्या में जोरों से अमिवृद्धि हुई, जो अब तक चालु है । लेख विस्तार के भय से यहां उनका विवेचन नहीं किया जा रहा है* । स्तुति स्तोत्र छोटे छोटे होने के कारण इनकी संग्रह प्रतियें लिखी जाने लगी. पर फुटकर पत्रों की रक्षा की ओर उदासीनता रहने प्रादि के कारण हजारों स्तोत्र नष्ट हो चुके है। फिर भी हजारों की संख्या में उपलब्ध विशिष्ट स्तोत्रों से जैन स्तोत्र साहित्य का महत्व भली भांति जाना जा सकता है। जैन स्तोत्रों का प्रकाशन कुछ वर्ष हुए यशोविजय प्रन्थमाला ने इसके प्रकाशन की ओर कुछ ध्यान दिया, और दो भागों में कई सुन्दर स्तोत्र प्रकाशित किये । मेयस्करमंडल म्हेसाणा ने भी कुछ स्तोत्र प्रकाशित किये, पर सबसे अधिक श्रेय मुनि चतुरविजयजी को है. जिनोंने 'जैन स्तोत्र संदोह' नामक बृहदाकार ग्रन्थ के २ भाग प्रकाशित किये. एवं अंत में समस्त स्तोत्रों की सूची प्रकाशित की। आपने जैन पत्र में लेखमाला भी प्रकाशित की थी। स्तोत्रों को सटीक विस्तृत विवेचन सह प्रकाशन x करने का कार्य देवचन्द्र लालभाई पुस्तकोद्धार फंड की भोर से प्रो. हीरालाल कापडिया ने किया। भीमसी माणेक ने भी प्रकरण *-विस्तार के लिये देखें, हीरालास कापड़िये की भामरादि स्तोत्र त्रय की प्रस्तावना. एवं शोभन चतुर्विशतिका की भूमिका x-प्रकाशित ग्रन्थ-१-२-१ शोमन, बम्पट्टि. मेरुविजय रचित स्तुति चतुर्विशतिका, ४-धमपाल कृत ऋषभ पंचाशिका. ..- मानमरादि Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नाकर में बहुत से स्तोत्रों को प्रकाशित किया. एवं अन्य फुटकर संग्रह प्र. न्थों में कई स्तोत्र प्रकाशित हुए, फिर भी स्तोत्र साहित्य * की विशालता को देखते हुए ऐसे प्रयत्न अभी ओर होते रहने आवश्यक है। मुनि-विनयसागरजी ने इस ओर ध्यान देकर एक आवश्यकता की पूर्ति करना प्रारंभ किया है. यह सराहनीय है। खरतरगच्छीय स्तोत्र साहित्य जैन स्तोत्र साहित्य की श्री वृद्धि करने में खरतरगच्छाचार्यों एवं विद्वानों की सेवा विशेष रूप से उल्लेखनीय है। १२ वीं शती से इसका प्रारंभ अभयदेवसूरिजी से होता है। देवभद्राचार्यजी के भी कई स्तोत्र प्रकाशित हैं पर जिनवालभसरिजी एवं जिनवजसूरिजी ही इस शती के उल्लेखनीय स्तोत्र रचयिता हैं। जिनवल्लभसूरिजी प्रकांड विद्वान थे, उनके विद्वतापूर्ण एवं विशाल स्तोत्रों से परवती विद्वानों को काफी प्रेरणा मिली है। आपके अधिकांश स्तोत्र प्राकृत में है । २४ तीर्थंकरों के अलग २ स्तवन रूप चौवीसी एवं पंचतीर्थी स्तव, कल्याणक स्तवन सर्वप्रथम श्रापके ही उपलब्ध हैं। उल्लासि. भावारिवारण. दुरियर स्तोत्रादि आपके विशेष प्रसिद्ध हैं. इन पर कई टीकायें भी प्राप्त हैं । जिनदत्तसूरिजी के स्तोत्र बडे चमत्कारी माने जाते हैं और सप्तस्मरणादि स्तोत्रत्रयम् , ६-७-भक्तामरपादपूर्ति काव्यसंग्रह भा. १-२।८-जन धर्म वर स्तोत्रादि ४-ऊपर केवल प्राकृत-संस्कृत स्तोत्रों की ही चर्चा की गई है। गुज राती. राजस्थानी. हिन्दी आदि में रचित स्तुति साहित्य बहुत ही विशाल है। साराभाई प्रकाशित स्तवन मंजूषा में ११५१ स्तवन और चौवीसी वीसी संग्रह. आनन्दधन. यशोविजय. शानविमलसूरि. देवचन्द्र श्रादि के स्तवन संग्रह में हजारों स्तवन प्रकाशित हैं, अप्रकाशित तो असंख्य हैं । मराठी. बंगला. पारशी. सिन्धी भाषा में भी स्तवन पाये जाते हैं। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में । स्तोत्र तो नित्य पाठ किये जाते हैं। १३ वीं शती में मणिधारी जिनचन्द्रसूरि. जिनपतिसूरि. पूर्णभद्र गणि. जिनेश्वरसूरि (द्वि० ) के स्तोत्र उपलब्ध हैं। १४ वीं शती के पूर्वार्द्ध में जिनरत्नसूरि. उ. अभयतिलक, देवमूर्ति, जिनचन्द्रसूरि (तृ.) एवं उतरार्द्ध में जिनकुरालसरि. जिनप्रमसूरि,तरुणप्रभसूरि. उ.लब्धिनिधान. जिनपद्मसूरि राजशेखराचार्य श्रादि स्तोत्रकार हुए, जिनमें जिनप्रभसूरि समस्त जैन स्तोत्रकारों में शिरोमणि हैं। कहा जाता है कि प्रतिदिन नूतन स्तोत्र बनाये बिना श्राप आहार ग्रहण नहीं करते थे. फलतः ७०० स्तोत्रों की रचना हो गई, पर अभी तो आपके ७०स्तोत्र ही उपलब्ध है । आपके रचित स्तोत्र यमक-श्लेष.चित्र. धंदादि विविध विशेषताओं से परिपूर्ण हैं । १५ वीं शताब्दि में जिनलब्धिसूरि. लोकहिताचार्य. *भुवनहिताचार्य उ.विनयप्रभ. मेरुनन्दन,जिनराजसूरि, जिनभद्रसरि. उ०जयसागर. नयकुंजर, कीर्तिरत्नसूरि आदि, १६ वीं में क्षेमराज. शिवसुन्दर. साधुसोम, गजसार आदि, १७ वीं में जिनचन्द्रसरि उ• समयराज, सूरचन्द्र. पद्मराज. उ० समयसुन्दर. उ०गुणविनय. सहजकीर्ति. श्रीवल्लभ श्रादि, एवं १८ वी में धर्मवईन, ज्ञानतिलक, लक्ष्मीवल्लभ. और १६ वीं में रामविजय. क्षमाकल्याण आदि स्तोत्रकारों के स्तोत्र उपलब्ध हैं । खरतरगच्छीय स्तोत्रों की कई सुन्दर संग्रह प्रतियें भी प्राप्त हुई हैं जिनका संग्रह प्रन्थ प्रकाशन होना परमावश्यक है। *-इनकी 'जिन स्तुतिः' संग्राम नामक दंडकमयी वाचनाचार्य पद्मराज गणिरचित वृत्ति के साथ मुनि विनयसागरजी ने 'स्वोपज्ञवृत्ति सहित-भावारिवारण पादपूर्ति-पार्श्वजिनस्तोत्रं एवं जिनस्तुतिः सटीका' में प्रकाशित करदी है। ____x-दो हमारे संग्रह में, २ बरे ज्ञान भंडार में २ जेसलमेर पंचायती ज्ञानभंडार में, १ विजयधर्मसूरि ज्ञानमन्दिर आगरे में है। जिनभद्रसूरि स्वाध्याय पुस्तिका अभी मिली नहीं, कई प्रतियें त्रुटित प्राप्त है। पाटण आदि में भी ऐसी प्रतियें अवश्य होंगी। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) स्तुतिकार श्रीसुन्दर प्रस्तुत " चतुर्विशति जिन-स्तुतिः" के रचयिता कवि श्रीसुन्दरगति सम्राट अकबर प्रतिबोधक खरतरगच्छाचार्य यु• श्रीजिनचन्द्रसूरिजी के शिष्य हर्षविमल के शिष्य थे। हमने अपने ऐतिहासिक बैन काव्य संग्रह (पृ.१०॥ ३)में इनके रचित जिनचन्द्रसूरिजी के गीतद्वय प्रकाशित किये थे,एवं अपने यु.जिनचन्द्रसूरि अन्य के पृष्ठ १७२ में आपके रचित अगडदत्त प्रबन्ध = का उमेख किया था। जैन धातु प्रतिमा लेख-संग्रह भा० २० ३२९ में प्रकाशित सं० १६६१ के मार्गशीर्ष कृष्णा ५ के लेख को प्रापन लिखा था। इसी प्रन्य के पृष्ठ १३४ में श्रीसुन्दर रचित विमलाचल स्तवन गा. ६ (सं. १६५६ माधव सुदि २ संघ सह यु• जिनचन्द्रसूरिजी की यात्रा के उस वाला) का भी निर्देश किया गया था। हमारे संग्रह में एवं बीकानेर के अन्य भंडारों में आपके अन्य कई गीत प्राप्त होते हैं जिनकी सूचि नीचेरी जा रही है * यद्यपि स्तुति चतुर्विंशतिका में श्रीसुन्दर के गुरु का नाम नहीं पर प्रति लेखक श्रीवल्लभ गणि १७ वीं शती के सुप्रसिद्ध खरतरगच्छीय विद्वान हैं एवं अन्य कई बातों पर विचार करने पर हमारी राय में ये हर्षविमल के शिष्य ही संभव हैं। सुन्दर नंदी पर विचार करने पर आपकी दीक्षा सं. १६३५ के बगभग संभव है और जन्म सं० १६२५ । इनके गुरु हर्षविमलजी का नाम सं. १६२८ के पत्र में आता है। और नंदी अनुक्रम से भी उनकी दीक्षा सं. १६१७-२० के लगभग संभव है। - इसकी । पत्रों की प्रति हमारे संग्रह में है। सं० १६६६ के कार्तिक ११ शनिवार को भागवड में शाह यांपसी, पूजा, मंत्रि रडिया सुश्रावक के भाग्रह से इसकी रचना की गई है। उत्तराध्ययन सूत्र के व्य भाव जागरण के अधिकार से २६५ पद्यों में यह रचना हुई है। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९) १-इरियावही मिच्छामि दुक्कडं विचार गर्भित स्तवन गा. ४ (पादि चड़वीसमा जिनराय.) २-पार्व स्तवन गा० ५ (आदि-पुरसोदय प्रधान ध्यान तुमारडो.) ३ नेमी गीत गा. ६ ( -सामखिया सुन्दर देहा.) ४ आदीश्वर गीत गा. ६ (,-नयर विनीता-सजीयउजी.) ५-नेमि राजुल गीत गा.( -जोड २ बहिनी हियइ विचारी नइ.) ६-वैरागी गीत गा. ६ ( -चेतन चेतर जीड चित्त मइ.) ७ दसवैकालिक गीत गा.६( -चतुर्विधसंघ सुणउ हितकारक.) ५-जिनचन्द्रसूरि गीत गा.५ ( , सुणउ रे सुहागण को कहइ.) t- , , .( ,-अमृत वचनपूज्य देखणा० ) १. , , .६(,-तुम्हारे वांदिवउ मुझ मन धायउ०) ११- , , .५ ( ,-श्रीखरतरगच्छ गुणनिलउ.) १२-जिनसिंहसूरिजी गीत गा. ३ (आदि-जिनसिंघसूरि जगमोहण.) १३- , , ५(,-रंगलागडजी मोहि जिनसिंघसूरि०) स्तुति चतुर्विशतिका की प्रस्तुत शैली की अन्य रचनायें प्रस्तुत 'स्तुति चतुर्विशतिका' यमकालंकार विभूषित विद्वतापूर्ण कृति है, इसमें द्वितीय चरण की पुनरावृत्ति चतुर्थपाद में मिनार्थ के रूप में की गई है, यमकालंकार का इसमें अखंड साम्राज्य है, एवं शार्दूल विक्रीडित-स्रग्धरा आदि १३ छंदों मेंxस्तुति की गई है। देववंदन भाष्य के अनुसार प्रत्येक स्तुति -*नं०१४-१५में प्रथम तृतीयपाद समानता रूप एव नं० २३ वी स्तुति में मिन्न प्रकार का यमकालंकार भी है। -शार्दूल विक्रीडित में नं० १.१२. १६.२२, उपेंद्रवज्रा २. ६, शालिनी ३, १६, द्रत विलंपित ४. १०. १४, स्रग्विणी ५, वसंततिलका , मालिनी ७.१७, मंदाक्रांता ८, हरिणी ११, पृथ्वी १३.२०, अनुष्टुन् १५, शिखरिणी १८. २१. मगधरा २३. २४, वीं जिन स्तुतियें हैं। इससे स्तुतिकार का संस्कृत भाषा छंद एवं अलंकारों की विद्वता और Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के चार पचों में से प्रथम में विविधित किसी एक तीर्यकर की स्तुति, दूसरे में सर्वजिनों की स्तुति, तृतीय में जिनप्रवचन और चौथे में शासन सेवक देवों का स्मरण किया गया है। ऐसी यमकालंकार चतुर्विशतिकामों में सर्व प्रथम रचना आचार्य बप्पभट्टसूरिजी की है, इसके पश्चात शोभनमुनिजी की सर्वश्रेष्ठ लेने से बहुत ही प्रसिद्ध है। इसकी प्रेरणा से रचित इनके अनंतर मेरुविजयकी जिनानंदस्तुति चतुर्विशतिका, ४-यशोविजय उपाध्याय की ऐन्द्रस्तुति चतुर्विशतिका ५-हेमविजय रचित (अप्रकाशित) और एक अज्ञात कर्तृक (दिशसुख मरिवल-श्राविपद वाली तीर्थकरों की ही प्राप्त) प्रकाशित है। अभी तक यमकालंकार ६६ पद्य वाली ५ रचनायें ही ज्ञात श्री * प्रस्तुत कृति के प्रकाशन द्वारा इसकी संख्या में अमिवृद्धि होती है। स्तुतिकार ने स्वोपज्ञ वृत्ति द्वारा भावों को स्पष्ट कर दिया है। इसकी एक मात्र प्रति-मुनिविनयसागरजी को प्राप्त हुइ बी अतः इसके प्रकाशन के लिये मुनि श्री को धन्यवाद देते हुवे भूमिका समाप्त की जाती है। अगरचन्द नाहटा आषाढ़ पूर्णिमा .२००४ बीकानेर उस पर अधिकार असाधारण सिद्ध होता है। *-पय २७ से ३६ की अन्य यमकालंकारमयी स्तुति चतुर्विशतिकाओं के लिये देखें ऐन्द्र स्तुति की प्रस्तावना । --प्रति के लेखक श्रीवल्लभ स्वयं बडे विद्वान अन्धकार थे, आपकी पर नाथ स्तुति भी विद्वतापूर्ण कृति है, जिसके प्रकाशन का भी मुनि विनयसागरजी विचार कर रहे हैं। श्रीवल्लभ के अन्य ग्रंथो के संबंध में जैन सत्यप्रकाशवर्ष ७ अंक में प्रकाशित मेरा लेख देखना चाहिये। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) शुद्धाशुद्धिपत्रकम् । अशुद्धिः शुद्धिः क्रमां क्रमा संखीकरोऽमोदितो सद्धीकराऽमोदितो थियो धियः प्रया जितोरुदिशं जितोरूदिश मच्छन् यच्छह दे वीतारा हार सारा धिका रा=दे वीताराहारसाराऽधिकाऽऽरा ऽया प्रासा प्राशा जिनवरान जिवरान् सुमत्पाह ईदाना नुतास्तां संया दितछिनः रोगसमः धरतीत सौरभी ददाना नुताऽस्ता साया दिनेछिन्नो रोगशमः धरतीति सैरिभी यन् यत् कारमाका उपात्या दानेभ्योहिता निका परिभवतु का रमाः का: त्रपां ताा दानेभ्यो हिताऽनिकामं २७ परिभवं तु Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशुद्धि बलम् यन्ति दमितामानमला मकतं चरे तारकां समरस्तेन (१२) शुद्धिः मलम् यान्ति दमिता मानमायामला २६ मकर करं तारक समरसस्तेन राप्ताभावाः तु काम नु कामं Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अहं नमः। महाकवि पंडित श्रीसुन्दर-गणि-प्रणीता स्वोपज्ञ-वृत्त्या च सुशोभिता श्रीचतुर्विंशतिजिन स्तुतिः। श्री युगादिदेव स्तुतिः । (शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम्) नित्यानन्दमयं स्तुवे तमनघं श्रीनामिसनुं जिनं, विश्वेशं कलयापलं पर-महं मोदात्तमस्तापदम् । नित्यं सुन्दर भाव भावितधियो ध्यायन्ति यं योगिनो, विश्वेऽशंकलयामलं परमहं मोदात्त-मस्तापदम् ॥१॥ ते यच्छन्तु जिनेश्वराः शिवसुखं त्रैलोक्यवंचक्रमां, ये भव्यक्रमहारिणोऽसमयशोभावर्द्धनाः कामदाः । तन्वाना नवमङ्गलान्य-नवमाः श्रीसंघलोके सदा-. ये भव्यक्रमहारिणोऽसमयशो मा वर्द्धनाः कामदाः ॥२॥ श्रीसार्वप्रभवा भवस्य विभवद्भावारिभेदे भृशं, गी-णिप्रखरा सतां प्रतनुतामत्यन्तकामासुहृत् । पापच्यापहरा धुताऽपिनिकरा संद्धीकराऽमोदितोवीर्वाणप्रखरा सतां प्रतनुतापत्यन्तकाऽमासुहत् ॥ ३ ॥ देयाच्छं श्रुतदेवता भगवती सा हंसयानासना, Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नालीकालयशालिनीतिकलि तापायाऽपहारक्षमा । धते पुस्तक-मुत्तमं निजकरे या मोरदेहा सदा, नाऽलीकालयशालिनीतिकलितापायापहारक्षमा ॥ ४ ॥ व्याख्या-अहं तं नामिसूनुं जिन स्तुवे। किंभूतं ? नित्यो यः श्रानन्दस्तन्मयं अनघ-पापहीनं विश्वरां-विश्वखामिनं कलं-याम-यमसमूहं लाति ददातीति, तं रा ला दाने । परं-प्रकृष्टं मोदात्-हर्षात् । पुनः किंभूतं ? तमस्तापदं-तमसः पापस्य तापं ददातीति तं । तं के ? यनदोनित्यः सम्बन्धः, विश्वे सर्वेयोगिनो, यं नित्यं ध्यायन्ति । किंभूतं ? अरांकलयामल-प्रशंक:-शंकार हितो यो लयो ध्यानविशेषस्तेनामल-निर्मलं । पराः प्रकृष्टा महायस्मात्तं । मया बिया उदातं अस्तापदं-अस्ता आपदो येन तं। किंभूता ? सुन्दरभावभावितधियो-सुन्दर भावेन भाविता धीर्येषां ते ॥१॥ ते जिनेश्वराः शिवसुखं यच्छन्तु-दिशतु । त्रैलोक्येन वंद्याः क्रमा येषां ते। ते के ? ये भव्यक्रमहारिणो-भव्याचारमनोज्ञाः । यशश्च भा च यशोमे असमे च ते यशो मे च असमयशोमे ते वर्द्धयन्तीति । कामदा:-वांछितदाः । पुन: किंभूता? श्रीसंघलोके-मंगलानि तन्वानाः । किंभूताः ? पतनरहिताः । किंभूते ? सदाये सत् प्रधान आयो-लाभो यस्य तस्मिन् । किंभृताः ? भव्यक्रमहारिणो भविनां अक्रमं अनाचारं हरन्तीति । पुनः किंभृता: ? असमयशोभावनाःपरमतशोभा'छेदकाः कन्दर्पच्छेदकाः ॥१॥ गीवाणी सतां-भवस्य प्रतनुतां-कृशत्वं प्रतनुतां विस्तारयतु । किंभूता ? भावारिमेदे-भाववैरिविनाशे बाणप्रखरा-बाणतीक्ष्णा । अत्यन्तकामा अत्यन्तकामानां असुहृन्-अमित्ररूपा । पामोदितोद्गीवाणप्रखरा-मामोदितोगीर्वाणा चासौप्रखरा-प्रकर्षण खं सुखं राति-दत्ते इति । 'समिद्रियवर्गशूनम्' इत्येकाक्षरामिधानान् । पुन: किंभूता? असतां अत्यन्तका-अतिक्रान्तयमा मासुहत् रोगप्राणहारिणी ॥ ३ ॥ सा श्रुतदेवता शं देयात् सदासना। किंभूता? नालीकालयशाविनीनालीकं कमलं तस्याऽलयेन शोभमाना । पुनः किंभूता ? इति कलि तापंऽया Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधीः, तेषां अपहारे क्षमा समर्था । सदाना दानसहिता । पुनः किंभूता ? भखीकालयशा-अलीक-असत्यं अलयोऽपध्यानं श्यति-चिनत्ति । नीत्या कहिता। अपायापहा-विग्रह: अरं प्रत्यर्थ क्षमा यस्याः । “नानुस्वरविसर्गों तु, चित्रभंगायसंमतौ ॥ ४॥ श्री अजितजिन स्तुतिः। (उपेन्द्रवज्रावृत्तम् ) जितारिजातं नमतो हरन्तं, स्मराऽजितं मानव मोहरागम् । जयत्यलं यो यशसो-ज्वलेन, स्मराजितं माऽननमो हरागं । जिना जयं ते त्रिजगममस्या, दिशन्तु मे शंसितपुण्य मेदाः । यद्वार विधत्तेऽत्र नरं जितोर दिशं तु मे सितपुण्यभेदाः। जिनागमानन्दितसत्त्व स त्वं,दिशानिश कल्पित कंदलालम्। कपालता येन छता त्वयाऽत-दिशानिशं कल्पितकंदलालऽम् पर्वि दधानाच्छविभाषिताशं, सामानसीमा मवता-सताशा। यास्तूयतेऽलं मुशा विशासत, सामानसीमाऽमवतात्तताशा। व्याख्या-हे मानव ! अजितं जिनं स्मर । मोहरागं हरन्तं, जितारेः सुतं स्मरेण अजितं स्वयशसा हरागं कैलासं जयति । किंभूतः ? मानवमः मया श्रियाऽनवमो रभ्यः ॥१॥ ते जिना जयं दिशतु । मे मह्यं शंसिताः कथिताः पुण्यभेदायैस्ते। यद्वार येषां वाणी नरं, मेशं-लक्ष्मीशं विधत्ते । तु पुनः जितोगदिशं विधत्ते जिता अयों दिशो येन तं। किंभूता वाग् सितपुण्यभा-सिता उज्वला पुण्या पवित्रा भा यस्याः । किंभूताः ? ईदाः- श्रीदाः ॥२॥ हे जिनागम ! स त्वं मे-मयं शं सुखं दिश देहि । किंभूतं अनि न विद्यते इ. कामो यत्र तत् । कल्पितः छेदितः दलस्य कलहस्य थालः उपक्रमो येन तत् । येन त्वया कृपालताऽसं मुशं कल्पितकंदला निर्मितकंदाकृता । किंभूतेन Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राप्तविशा प्राप्ता दिशो येन सर्वदिक् ख्यातत्वात् ॥ ३ ॥ सा मानसी मां अवतात् रक्षतु, किंभूता तताशा विस्तीर्णवांछा या सुदृशा विशा सम्यगहशा मानवेन स्तूयते । कीदृशेन अमवता ज्ञानवता, किंभूता सत्सा प्रधानश्रीः । मानसीमा अहं कृतेः सीमा मर्यादा । पुनः किंभूता भात्तताशाआत्ता गृहीता-ता यैस्ते पात्तताः शत्रवस्तान् अनाति भक्षयति या ॥४॥ श्री संभवजिन स्तुतिः। (शालिनी वृत्तम्) वन्दे देवं संभवं भावतस्तं, सेनाजातं योजिताशं सदालम् । बाबाबासं विद्विषां चाजयद्धे, सेनाजातं यो जिताशं सदालं। सल्लोकं तेऽवंतु क्त्वेऽतिसत्वाः, सर्वज्ञा-लीन-दिताशाविचित्रा: स्तोत्यानंदाद्यानमानप्रमाणान्, सर्वज्ञालीनंदिताशाविचित्राः सघो-वयं हंतु हृद्यार्थ सार्थः, सिद्धान्तोयं सजनानामपारः। बुद्धिं यच्छन् कुड्मलध्वंसने सत्, सिद्धांतोयं सजनानामपा-र: दद्यान्मोदं श्रृंखला वजपूर्वा, देवी तारा हार सारा-धिकारा। पोवासं संदधाना सदानं, दे-वीताराहारसाराधिका रा॥४॥ व्याख्या-सेनादेवी सुतं संभवं अहं वन्दे । किंभूतं योजिताशं योषिता प्रासायेन तं, सदाऽलं सदुपक्रमं यो भगवान् बाह्यं चाऽतरंग सेनाजातं सैन्यवृन्दं अजयत् । जिताशं सदा अलं भृशम् ॥ १॥ ते सर्वज्ञाः सल्लोकं अवंतु । किंभूतं लोकं तत्त्वे लीनं अतिसत्वाः बहुसाहसाः दिताशाः छिन्नतृष्णाः पंचवर्णाः । ते के-यान् सर्वज्ञाली सर्वविद्वत् श्रेणी स्तौति । किंभूता नंदिताशा हर्षितदिक । किंभूतं विशिष्टं विज्ञानं त्रायंते इति विचित्राः ॥ २॥ अयं सिद्धान्तः सज्जनानां अवयं पापं हन्तु । मनोज्ञार्थसमूहः न विद्यते Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारो यस्य सः । किंकुर्वन् सिद्धां प्रसिद्धो बुद्धि यच्छन् । किंभूतं क्रोधमलध्वंसनेतोयं नीरं । किंभूतः सज्जाश्च ते नानामाच रोगाः ते सज्जनानामास्वेभ्यः पां रक्षां राति ददातीति सज्जनानामपारः ॥३॥ वजशृंखला मोदं दद्यात् । तारा उज्वला हारेण सारोऽधिकारो यस्याः सा हारसाराधिकारा । किंभूता पझे वासं संदधांना । किंभूते सदानंदे सत् प्रधान आनन्दो यत्र तस्मिन् । वीतारा गतवैरिव्रजा आहारश्च सा च आहारसे । ते च राति ददाति या। अधिका उत्कृष्टा पारा दीप्ति र्यस्याः सा ॥४॥ श्री अभिनन्दनजिन स्तुतिः। (छुतविलवितछन्दः) तममिनन्दनमानमतामलं, विशदसंवरजं तुदितापदम् । यह धर्मविधि विभुरभ्यधा-द्विशदसंबर-जंतु-दितापदम् ।। जिवरामवराग निवारकान, नमततानवभावलयानरम् । वितशिवं रचयंति हि ये द्रतं, नमतता नवभावलया-नरम् ।। शममयः समयो विलसम्बयो, भवतुदे वनरोचित सत्पदः । तव जिनेश कुवादि मदापहो, मवतु देवनरोचितसत्पदः ॥३॥ सशरचापकरा किल रोहिणी, जयति जातमहा भयहारिणी । गविगता सततं विगलन्मनो-ज यति जात महाभय हारिणी४ व्याख्या-तं अभिनन्दनं भानम | विशदश्चासौ संवरो नृपस्तस्माजातं । तुदिता व्यथिता आपदो येन तं । विशत् अंसवराणां जन्तूनां दितानि खंडितानि अपदानि उत्सूत्राणि येन तं ॥१॥ ___ तान जिनवरान् नमत । किंभूतान अवभावलयान् अवभावे रक्षाभावे लयो येषां ते तान् । अरं मृशं ये जिना नरं श्रितशिवं रचयन्ति । किंभूता:नमतता नमता न वल्लभा ता श्री र्येषां ते सारंभत्वात् । नवभावलया नवं भावलयं भामंडलं येषां ते ॥२॥ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हे विनेश ! तब समयो भवतुदे, संसार स्फेटनाय भवतु । किंभूतः देवनरयोः उचितानि शक चक्रित्वादीनि संति प्रधानानि पदानि यत्र सः। पुनः किंभूतः अवनरोचित-सत्पदः-अवनेन रक्षया रोचितानि शोमितानि संति, विद्यमानानि पदानि या सः॥३॥ ' जाता महा यस्याः सा जातमहा, अभयदानेन शोभमाना, पुनः किंभूता विगलन मनोजः कामो येषां ते विगलन्मनोकाः विगलन्ममोजाच ते यतयक्ष विगलन्मनोजयतयस्तेषां आतः समूहस्तस्य महाभयं हरतीति ॥४॥ श्रीसुमतिजिन स्तुतिः। (सग्विणी छन्दः) पीसुमत्पाहमीशं प्रभूतभियं, तं सरामो हितं मानसेनारतम् । यं नमस्सन्ति देवाः शिवाहविभातं सरामोहितं मानसेनारतम् ॥१॥ सार्चवारं चिरं ध्यायतोऽध्यानहं, मानवा धामलं सज्जयामोदितम् । यं जुषते हरंतं सतां योगिनो, मानवाचामलं सज्जयामो दितम् ॥२॥ सिद्धविद्याधरैः संस्तुत: सोस्तु नः श्रीकृतांतोऽभवाया/महाविक्रमः । यः प्रदत्ते सतामीहितं नाशिता, श्रीकृतांतो भवायामहा विक्रमः ॥ ३॥ दुष्टरक्ष क्षमा संदधाना गदा, Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सास्तु काली वराया-मरालीकला । भाति यत्कीर्ति हरदाना समा, सा-स्व कालीवरायामरालीकला ॥४॥ तं सुमतिं वयं अनारतं निरन्तरं मानसे चित्ते सरामः । किंभूतं स्मरेण अमोहितं । पुनः किंभूतं कल्याणदिनप्रभातं मानस्य सेनायां भरतं अनासक्तं ॥१॥ हे मानवाः । सार्चवारं सर्वज्ञसमूहं ध्यायत । किंभूतं धामं तेजो लाति ददातीति तं । किंभूतं -सजयेन प्रधानजयेन पामोदितं हर्षितं । किंभूतं सतां मानवाधामलं हरतं । सज्जयामोदितं सजे यामे व्रतसमूहे उदितं उदयं प्राप्तम् २ स श्रीकृतांत: सिद्धान्तः अभवाय मोक्षायास्तु । मोऽस्माकं किंभूतः भा सामस्त्येन महान् विक्रमो यस्य सः । पुनः किंभूतः नाशितो अभीकृतांती दारिद्रषयमी येन स । भवस्य आयामं विस्तारं हन्तीति । पुनः किंभूतः विक्रमः विशिष्टः क्रमः आधारो यस्य सः ॥ ३ ॥ ___ सा काली देवता वराय अस्तु भूयात् । किंभूता अमराली कला श्रम राल्याः देवत्रेणेः कं सुखं लाति ददातीति । यत्कीर्तिर्यस्याः कीर्ति भांति। किभूता समाः समस्ताः साः श्रियो ददाना । वर आयो लामो यस्याः सा बराया। पुनः किंभूता कालीवरईश्वरः पा सामस्त्येन या लक्ष्मीः मराखी राजांची तद्वन् मनोहरा ॥ ४ ॥ श्री पद्मप्रभजिन स्तुतिः। (वसंततिलका छन्दः) पाचप्रमी भवतु मूर्तिरिय मदे मे, या परागविमया रुचिरा-जितेना। भयांसि या च तनुते विनता-नुता स्तां, यापपरा गविमयारूचिराऽजितेना ॥१॥ सा बैनपद्धति-रनुद्धत इबिरसाद , Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालं कलंकविकला मुदितप्रभावा । या संस्तुता सुखचयं तनुते च दीर्षकालं कलं कविकला मुदितप्रभावा ॥२॥ श्रीमजिनेश ! शिवदा गदितार्थसार्था, गौ रातु शं सितमहा भवतो समोहा । प्रोत्तारयेच्छ्रितजनानिह यानव-या, गोरा तु शंसित महाभवतोऽसमोहा ॥३॥ गांधारि पातु भवती नवती रिताका, सं-या महारि हरिणी नयनादरामा । पाण्योः सुवज्रमुशले दधती द्विरूपे, सायाम हारिहरिणी नयना-दरा-मा ॥४॥ ब्याख्या-पद्मराग विभया पद्मराग कात्या रुचिरा । अतएव जितेना जितसूर्यारकत्वात् सा मूर्तिः यासि तनुते । विनता प्रणता नुता स्तुप्ता च सती। किंभूता अस्तायापारा अया अत्रीः आपत् कष्टं मरो मरणं एतानि अस्तानि निरस्तानि यया सा । अस्तायापद्मरा अजिता अपराभूता इना स्वामिनी ॥१॥ ___ सा जैनपद्धतिः जिनश्रेणिः कालं अस्यात् क्षिपतु । किंभूता अनुद्धता बुद्धिर्यस्याः सा। किंभूता कलंकरहिता पुनः किंभूता हर्षितातिशया या स्तुसा। सुखसमूहं विस्तारवतीति । दीर्घकालं मोक्षलक्षणं च । अपरं कविकलां तनुते । कलं मनोशं उदयवतीं प्रभां भवतीति उक्ति प्रभावा ॥२॥ हे जिनेश ! भवतस्तव गौर्वाणी शं सुखं रातु ददातु । किंभूता सितमहा सिता उज्वला महा उत्सवाः यस्याः सा। किंभूता असमोहानसमोहा असमोहा हेशंसित ! हे स्तुत ! या गौः महाभवतः महासंसारात् श्रितजनान् प्रोत्तारयेत् बानवत् पोतवत । गौरा उज्वला । किंभूता असमोहा असमा ऊहा वितर्का यस्याः Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सा॥३॥ हे गांधारि ! ख मकनी पातु । इनवती स्वामिवती । ईरितं कंपितं बाई दुः गया-सा । किंभूता महारिहरिणी महतः अरीन् हरतीति । पुनः किंभूता नयमादरामा न्वायशब्दमनोहरा । विभूता सायामहारिहरिणीनयना सह पायामेन वर्तते ये , ते सायामे , सायामे च ने हारिणी च सायामहारिली हरिणी नमने.इव नयने यस्थाः सा । अदरा भयरहिता । मा मां कर्मतापनम् ॥ ॥ श्री सुपार्श्वजिन स्तुतिः।" (मालिनी सन्दः) हरतु दुरिवहन्ता श्रीसुगावः स पापं, शपयति मम तापं कार्यमालामहयः । इह महदविनाशं यस्य भक्त्या जनो वै, श-पयति ममतापंकाऽर्यमाऽलामह ॥१॥ जयति जिनवगलीसामलालातिकाला, जनयति कृतकामा यामदाना गतारा । कतकलिमलनाशं संस्मृता या विशां श्रा, अन यति कृतकाऽमायाम-दा नागतास ॥२॥ निहत सकलसन्द्रं श्रीजिनेन्द्रागमं मो!, पह तमिह तमोदं अप्रभावंचितामम् । परम वरवचोमिनित्यशो दुर्जनाना महत-मिहतमोदं सुप्रमा चितामम् ॥ ३ ॥ दिशह सुखमदारं श्रीमहापानसी ! मे, पा-मतिशयसारासारदानाऽसमाना। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रुचिरकचिभृताशा पाणिना शं दधाना, पर मतिशयसारा सारदाना समाना ॥४॥ __व्याख्या-स श्रीसुपार्श्वः पापं हरतु । मम यः तापं शमयति । कि लक्षणः कार्यमालाभहृद्यः कार्य च मा च कार्यमे तयोर्लाभेन हृद्यः यस्य भवस्या अनः सं सुखं श्रयति गच्छति। किंभूतं ममताकार्यमा ममतापके तृष्णा कई मेऽर्थमा सूर्यः भलाभ हानि हरतीति ॥ १॥ अमलयालः उद्यमो यस्याःसा । जनानां यतीनां च कृतः कामो भिलाषो यया सा । यामदाना यामस्य व्रतसमूहस्य दानं यस्याः सा । गतारागतं ारे अरिवन्दं यस्याः सा । सा का? यो विशां मानवानां कृतकलिमलनासं जनयति रचयति स्मृता । किंभूता कृलकामायामदा कृतकाच ते अमाश्च कृतकामास्तेषां पायामं विस्तारं यति खंडयति या सा । पुनः किंभूता नागताग पद्मवत्तारा उजाला नागः । मगजेपो चेत्यनेकार्थः ।। २ ॥ भो भव्य ! इह तं श्रीजिनेन्द्रागमं मह पूजय । कीदृशं तमोदं पापच्छेदकं सुप्रभावंचितामं सुप्रभया सुकांत्या, वंचिता श्रमा रोगा येन तं । दुर्जनानां पर मवरवचोभिः। अहतं अक्षतं इहतमोदं ए: कामस्य हतो मोदी येन स तं । सष्ठप्रभावं चितामं चितं स्फीतं श्रमं ज्ञानं यत्र तं ॥३॥ श्री महामानसी ! मे मस्यं परं प्रकष्टं सुखं दिशतु । कीदृशी अतिशयसारा अनिशयेन साः श्री: राति दत्त या मा। भासारदाना आसारो वेगवान् वर्षः तहहानं यस्याः मा । असमाना गुरुतरा परौ च तो मतिशयौ च परमनिशयो ताभ्यां सारा रुचिरा । सारदाना सारदायाः अाना प्राणरूया सखीन्यात् समाना साईकारा ॥४॥ श्री चन्द्रप्रभजिन स्तुतिः । (मन्दाक्रान्ता छन्दः) देवं चन्द्रप्रभजिन-मिमं चन्द्रगौरांगभासं, मन्दे मायासह-मह-महो! राजिताशं तमीम् । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की योऽलं जयति जगदानंदकंदोमवेत्रा पन्देऽमायासहमहमहोराजिताशं तमीम् ॥१॥ सार्वव्यहो विनस्तु परं विश्वविश्वप्रशखा, वो भण्या ! लयहमकरो दक्षपालोपकारी । कामारि यो हतमद-मलं भाववैर्यद्रिीदे संबोमव्यालयद-मकरो-दक्षमालोपकारी ॥२॥ श्रीसिद्धान्तो धृतधनरसः सिन्धुवत्पूरिताशा, स्तादस्ताघः सुरचितमहा जीवनोदी नसार । योऽर्थ पत्ते किल बहु पहावी वधाढ्यं तथाष स्ता-दस्तापः सुरचितमहाजीवनोदीनतारः॥३ पायादिव्यांशपविधरा सिन्धुरारूढदेहा, सायाऽलीलामुदितहदयानी तिमत्तापराशा । वजांकृश्याश्रितसुखकरा हेमगीगस्तविना , सा यालीलामुदितहृदयानीतिमत्तापराशा ॥४॥ व्याख्या-अहो । इति सम्बोधने । अहं तं देवं चन्द्रप्रभं मन्दे स्तुवे । किंभूतं मायासह राजिताशं रेण कामेनाऽजिता श्राशा वांछा यस्य तं । तं ईशं यः कीर्त्यातमीशं चन्द्र जयति । भवे अमन्द प्रचुरे । किं लक्षणं अमायासहमहमहोराजिताशं अमो-रोगः आयासः खेदः तो हन्तीति अमयासहा महा उन्सवाः महस्तेजस्ताभ्यां राजिता भाशा दिशो येन सः । पश्चात् कर्मधारयः ॥१॥ __ हे भव्या सार्वव्यूहो जिनगणो वो युष्मभ्यं शं वितरतु । किंलक्षणः लयदमकरः लयश्च दमश्च तो करोतीति । दक्षमालाया विच्छेणेः उपकारी यः। कामारि कामवैरिणं हृतमदं अकरोत् । माववैरिण एवाद्रयस्तेषां मैदे शंबः पविः । पुनः किंभूतः अक्षमालोपकारी अक्षमा लोपकर्ता । प्रभम् पालयं नरकाचं ददा Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ तीति तं । कामारे विशेषणं ॥२॥ श्रीसिद्धान्तः पूरिताशः स्तात् । अस्तापः अस्तानि अधानि पापानि येन सः । सुरश्चितं व्याप्तं महस्तेजो यस्य सः। जीवान नोदयति प्रेरयति धर्मविधौ स जीवनोदी । न तं पार यस्मात् स नतारः यः,बई मर्थ थी। किल क्षणः अहावी मार विकार रहितः तथा वधात्य जंतुं अधस्तान् नरकादिषु धत्ते । अस्ताषः अगाधः । पुनः किंभूतः सुरचितमहाजीवनः सुष्ठु रचितं महागीननं रक्षा येन सः । श्रीननार: नदीनता रानि दवातीति । सिन्धुपचे पुरचितो देवन्याप्तो महाजीवनोडी महाजीवप्रेरकः ननार : श्याम इति यः । महावीवधाय महाभारादपं अधस्तात् धत्ते । महाजीवनं जलं नदीना हीनः तो श्रियं रातीति अवीनतारः । कर्मधारयः ॥ ३ ॥ __ मा बज्रांकुशी पायात् । नील्यामत्ता पराशा परान् शत्रून् अन्नातीति । मह थायेन लामेन वर्तते या सा साया। पुनः किंभूता बालीडामुदितहत् श्रालीनां पसीनां ईडा स्तुतिः तस्या या मुदः हर्षाः, तत्र इतं गतं हृद् हृदयं यस्याः मा । पुनः किंभूता अयानीतिमत्तापराशा अया अश्रीः म तिमान अन्याय. वान् तबोस्नापरा तापदात्री आशा यस्याः मा ॥४॥ श्रीसुविपिजिन स्तुतिः। (उपेन्द्रवजा बन्दः) समाधिलीना सुविधिर्जिनेशः, पायात् सदा नोऽमदनोदितभी।। कर्पूरगौरांग विराजमानो पायात्सदानो मदनोदित श्रीः ॥ १॥ जिनवजःस्ताव मीतिहन्ता, विज्ञानरो! बोषिकरो रमारः। यत्सेवयावादखिलेटलामो, Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञानरोपोषितो रमास ॥२॥ आमागमोऽयं भवतादित्यै। विदारिताको इमारोमः। जिनेन यो नै अगदे त्रिकाल, विदारिताशोऽहतमावरोगः ॥३॥ भूयान मुदे मे ज्वलनायुधा सा, विभातिसोमासमसाहसारम् । मुरीषु यावं च वचा सुधावत् , विभाति सोमाऽसमसाह सारम् ॥४॥ व्याख्या-सुविधिः सदा नोऽस्मान् पायात्। श्रमदनः भारतश्री: अखंड लक्ष्मीः अपात्यात् विघात् मदस्यनोबिता स्फेटिता श्रीः शोभा येन ॥ १॥ हेवरः! हे पुरुषाः! जिनवजः वो युष्माकं बोधिकर:स्तात् भवतु। किंतचणः अधिकरोरमारः अधिकरं रोरं दारिद्रयं मारयतीति । विज्ञानरः विशिष्ट शामेन प्रः रमारः रमा राति ददातीति ॥ २ ॥ अयं प्राप्तागमो विभूत्यै भवतात् । किलक्षणः विदारिताशः विदारिता पाशा तृष्णा येन सः । हता भावरोगा येन स हतभावरोगः । यो जिनेन जगदे त्रिकालविदा श्रीन् कालान वेत्तीति तेन । किंलक्षणः भरिताशः परीणां भावोऽरिततिां श्यति विनाशयतीति । महता या भा कान्तिस्तया वरः। अगः न गरखतीवि अनो निधलः ॥ ३ ॥ सा ज्वखनायुधा ज्वालामालिनी मे मुदे भूयात् । विभातिसोमा विभया ऽतिकान्तः सोमो यया सा । असमसाहसा । भर भृशं या सुरीषु अलं विभाति शोभते । चः पुनः या सुधावत् सारं वचः श्राह ब्रूते । किसक्षणा सोमा सह समया की वर्तते या सा सोमा । समसा असमा सा श्री यस्याः सा ॥४॥ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री शीतलजिन स्तुतिः । (एलक्लिवित कपा) सरन शीतल-मीशामिहेनसा मजयदं चितमोद-मपालयम् । स्पररिफिल यो निलयो विदा मजयक्तिमोऽदयपालयम् ॥ १॥ विरचयंतु जयं. मम कम्णां जिनका गतमोडमा पनाः । सुजन कानन पाक्ने परा जि-नवसमतमो हरणा पनाः ॥२॥ तब जिनेश ! मतं विगतैनसो, समयते हदयं गमकामितम् । निहत संतमस वितरत् सतां, सपय ते हृदयंगम ! कामिनम् ॥ ३॥ विजयते सततं भुवि मानवी, प्रवरदा नवमानवगऽजिता । जिन पदांबुल्हे अमरीस्तमा, प्रवर-दानव-मानव-गजिता ॥४॥ व्याख्या-शीतलं शं स्मरत । किंलक्षणं एनसां पापानां अजयदं चितमोदं न्याममोदं अपासयं अपगतः अलयो ध्यान यस्व । यः स्मररिपुं कन्दर्ष माजवत जिगाय । किंलक्षणः यः अचिनमः चिता पृजिता मा लक्ष्मीयस्य । किंसचा स्मारिपुं प्रदम्साल अदमपा अविरता त एव पालको य Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्य तं ॥१ ॥ जिनवरा ! मम कर्मणां जयं विरचयन्तु । गतमोहरणा गती मोहरणों येषां ते । घना निचलाः परश्वासी आजिः पराजिः पराजिश्च नवरागच तमश्च पराजिनवरागतमासि, नानि हियंते यैस्ते । घना मेधाः ॥२॥ . हे जिनेश ! नव मतं विगतनसां मतपापानां हृदयं समयते प्रामोति । गमकामितं । हे हृदयंगम ! सनां काषितं वांछितं वितरत् वदत् ॥ ३ ॥ मानवी भुवि विजयते । किसाणा प्रवरदा प्रकृष्ट बरं ददातीति । नवमानवरा नवेन मानेन चरा प्रधाना । अविना प्रवरा ये दानव-मानवाः यो मध्ये विशेषेण राजिता ॥ ४ ॥ श्री श्रेयांसजिन स्तुतिः। (हरिणी छन्दः) अतिशयवरं श्रीश्रेयांसं जिनं वृजिनापहं, अमितममलं भा-मा-गेहं महामि तमंचितम् । यमिहमुदिता ध्यायतीन्द्रादयोऽपि दिवानिशं , शमित-ममलंभामागेहं महामित-मंचितम् ।।१।। जिनगणमिमं वन्दे भक्त्या गुणैः प्रवरैरलं कृत-मह-मायासं सज्जातमोद-मदारुणम् । चरणमचरत्तीनं योत्र स्तुतो जगदीश्वरी, कृतमह-मायासं सज्जातमो दम दारुणम् ॥२॥ जिनमत-मदो वन्दे यच्छत् सदाच्छविराजितं, विदितकमनं ताभोगं वारिवाशमरीतिदम् । वितरति पदं सद्यो यदै सुरासुर संस्तुतं, विदितक-मनन्ताऽभोगंधाऽरिताच-मरीतिदम् Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवतु महाकाली सौख्यं शवान् दधती गुरुन, पर-मधुभदाहीनाकारा यतीहितराजिता। परपविफलावालीषण्टाघरानमरोनता, परममदाहीनाकाराऽऽपतीहितराजिता ॥४॥ ध्यात्म अहं तं श्रीश्रेयांस महानि पूजयामि। समितमं प्रकृष्टः शमीसमितमस्त भामागेहं भा कान्तिामा श्रौतयोगेंहं चितं पूजितं शमितं शातं। अमलंभामागेहं भामस्त्र कोपस्स अगेई अस्थानं महामितं महः उत्सर मिसं अंचितं अं पर ब्रह्म तेन चितं म्याप्तं । ॐ परब्रमणि इत्यनेकार्थः ॥ १ ॥ महंजिनगणं इमं वन्दे । गुणैः प्रवरैः अलंकृत अपायासं अपगतखेदं मज्जातमोदं सत् प्रधानो जातो मोदो यस्य तं । अदालणं सौम्यं यश्चरणं चारित्रं अचात् । कृतमहं कृतोत्सवं यथास्यात् । अपाथासं पायान् विधान् अस्यति यत् तत् । सज्जातमः सज्ज तमः पुण्यं यत्र तत् । दमेन इन्द्रियदर्मन दा. अहं दो जिनमतं वन्दे । विदितः रितः कमनः कामो येन तत् विवितकमनं । ताभोगं यच्छन् ददत् तायाः त्रियो भोगं । पारिताशमरीसिदं वारितः अशमः कोपो क्या सा पारिताशमा तां रीति ददातीति । यत् सद्भपः पदं वितरति । विदितकं विख्यातसुखं अनन्ताभोगं अनन्ताभोगो विस्तारो यत्र तत्। वा समुचये । भरिताशं रितां श्वनि विनतीति । परीतिदंबरीति यति खंडयतीति ॥३॥ काखी! सौख्यं वितरतु । परं प्रकृष्टं । अशुभदा अशुभच्छेत्री महीनाकारा भहीनः सर्पः तद्न् श्राकारो यस्याः । यतीहित्तराजिता यतीनां हितेम बाहितेन राजिता परमशुभदा प्रकृष्ट कल्याणदात्री। अकारा कारा गुप्तिगृहं तेन रहिता। आयताहिरा भावती उत्तरकाले : श्री हितं च ते राति दक्ते या सा । अजिता श्रीवासुपूज्य जिन स्तुतिः । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (शार्दूलविक्रीडितं वचम् भीमम्धीवसुपूज्यराजतनय श्रीवासुपूज्य प्रभो!, नवा केवलिन सदार्यमसमं भव्या मह पावनम् । विमापी समन्ति नोचमतमं देखावली सेवितं, . ... नवा के बलिनं मदायमसमं मव्यामहं पावनम् ॥ १॥ बर्हन्तोदरात पोधिषीजजलदा देवासुरुः समे, "ते क्त्वानि भृतंप्रमावनिकरा विज्ञातमोदानि में। ये विश्वे सुविधीन् ययुः शिवपदं खाज्ञारमासभिशां: दे तथा निभृतप्रमावनिकरा विज्ञातमोदानि मे ॥२॥ वाणी ते जिननाथ ! कल्मषहरा देयादमंदा-सदं, "सघोगांगदकामला भवपरा भूतिप्रदाऽनाविला ।। या तापं प्रणिहन्ति संतत महोदनेमता निर्वृत्ति, मयोगांऽगद कामलाऽभवपरा भूतिप्रदानाऽबिला ।।३। देवी शान्तिकदस्तु मा सुग्नरै यो स्तूपते नित्यशः, श्रीशान्ति वरलामनाऽसरहिता वित्रासितासऽजस...पाणौ राजति कुण्डिकामृतभृता यस्या परा निर्मिताश्री शान्ति वरला सनाऽमरहिता विस्था-सिताराजरा॥४॥ व्याख्या हे श्रीवासुपूज्य-! के गराः पावनं पवित्रं महं-उत्सवं न लभमित किन्तु सर्वेऽपि । त्वा-वां नत्वा प्रणम्य केवतिनं सदार्यमसमं सदा अर्यम्णा सूर्येण सम-तुल्यं भव्यामहं भविनां मामान्-रोगान हन्तीति । पावन पाया रक्षाया वनं उद्यान बसिन बलसहिन सनां मार्य-स्वामिनम् ॥ १॥ ते इमे ममे सर्वेऽहन्तो मे-मह तत्वानि देयासुः । किशक्षणाः मृतभावनिकरा: प्रभाक्सहा किलानि तत्वानि विज्ञातमोदानि-विहातो मोदः पर. Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानन्दो येतानि ये विश्व सुविधीन शोमनाचारान् तत्त्वा विस्तार्य शिम ययुः,स्वाशारमायाः सनिशान्ते- सहे निभृतप्रभावनिकराः निभृता निवासमा कान्तिर्यस्यामवनी धगयां तस्याः कं सुखं राति ददति ये ते मुक्तिमुखपदा हति भावः । विज्ञातमोदान् विहेभ्योऽतमः पुण्यं ददति ये ते तान् ॥२॥ हे जिननाथ ! ते नव बाखी मुदं देयात् । सघस्तकालं गांगदमक्षा अंगाया इदं गार्ग दकं नीरं तद्वदमला भवपराभूतिप्रदा भवस्य पराभूति पराम नथति छिनति । अनापिला शुद्धा सन् प्रधानो योगः सयोगः तस्यागानि प्रा. णायामादीनि ददातीति, तस्य सम्बोधनम् । कामला काम लुनातीति । चमबपरा मोचपरा,भूतिप्रदाना भूतेः प्रदानं यम्यां सा । अषिला न विद्यते पिक२कं यस्यां सा ॥३॥ बरखा हंसी श्रासनं यस्याः सा । अमर हिता रोगरहिता बित्रासितारा वित्रासितं भारं अरिसमूहो यया सा । अजरा निर्मिता श्री शान्तिः निर्मिताकता अभियाः मलदम्याः शान्ति र्यया सा । बरला वर खाति दत्ते या सा । सदासना अमरहिता अमरेभ्यो हिता वित्रा विद्ज्ञानं त्रायते या सावित्रा । खिता उज्ज्वला राजरा राजाचन्द्रस्तद्वत् रा रीप्ति यस्याः ॥ ४॥ श्रीविमल-जिन-स्तुतिः । (पृथ्वी छन्दः) जगज्जनितमंगल कलितकीर्निकोलाहलं, नवानि विमलं हितं दलितविग्रहं भावतः । सुखानि वितरत्यलं चरणपंकजं यस्य सद, नवानि विमलं हितं दलितविग्रहं भावतः ॥१॥ जिना अनितविस्मया जगति विस्फुरस्कीर्तिमि जयंति कलमामलाः शमनदीनसादायिनः । यदंत्रिवरसेवया मुखपशासि भव्या जनेऽ-- जबम्ति कलमामला शमनदीनवादा यिनः ॥२॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मस जिनवोदित अति विस्कुरद वादिसत् , समाऽजित-मसंषनं परमताप यामरम् । मनोमिलपिता ददमरसुरासुरमेक्तितः, समानित-मलं धनं परमतापहं यामरम् ।। ३ ।। शरासनवरासिभृजयति जात-मोदासदा, पराऽमरहिताऽऽयता सुरवराजिता रोहिणी । विश्वसुरमी-महो। मुरुचिराक्षमालाधरापराऽपरहिताऽऽयता सुरवराजितायोहिणी ॥४॥ म्याख्या-अहं तं विमलं नवानि स्वीमि । दलितविग्रहं विकसितम. रीरं भावता शुभभावात् यस्य चरणपंकजं सुखानि नवानि विनरति दत्त । - दृशं दलितो विग्रहः संप्रामो येन तत् । कीदृशस्य यस्य भावतः कान्तिमतः॥१ बिना जयग्नि। किलक्षणः कलमामलाः कखां रम्यां मां श्रियं मलं धार• यन्तीति रामनदीनतादायिनः शमनस्य यमस्य हीनतां ददतीत्येवंशीलाः । भव्याः यत्यादसेक्या सुखयशांति अजयन्ति । कलमामला: कलमः शावितद्वदमला: शपनीनतादा शमस्य नहीनता समुद्रत्वं ददतीति नदीनामिनः नहीनस्तस्य भाषः । यिनः या श्री बिद्यते येषां ते यिनः ॥ २॥ मतं जिनोहं जयति । वापिसत्सभाजितं वादिनां सत्सभयाऽजितं मल. धनं संघमितुमशक्यं परमतापहं परमं तापं हन्तीति तं । यामं व्रतसमूहं राती तं । मनोभीष्टां यां लक्ष्मी सभाजितं पूजितं मलं भृशं धनं परमतापहं परमत अपहन्तीति । यां श्रियं अरं अत्यर्थ ददत् ॥ ३ ॥ रोहिणी जयति । परा प्रकृष्टा अमरहिता रोगरहिता पायता विस्ती पुरवराजिता सुरवरैरजिता विशुद्धसुरभी धेनुं आरोहिणी । अपरा न विद्यन्ते परे शत्रयो यस्याः सा । श्रमरहिता देवेभ्यो हिता भायता, सुरवराजिता पायो साभस्ता श्री प्रसवः प्राणाः रवः शब्दस्तै राजिता ॥४॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअनन्त-जिन-स्तुतिः । (द्रतविलंबित बन्दः). अतनुतापद-मेन-मदारुणं, जिनमनन्त-मनन्तगुणं श्रये. अतनुता-पदमेन मदारुणं, य इह-मोह-महो ! विभुरस्मयम् ।। १.॥ अशमिनो मतिदानरमाभृतः, . . शमयता-जिनराजगणः स नः । अशमिनोऽमतिदानरमाभृतः, ममजयय इहात्मरिपून क्षणान् ।। २ ।। अकृतकं दलिनाहितसम्पदं, जिनवरागम-मेन-मुपास्महे । अकृत कं दलिताऽऽहितसंपदं, य इह वादिगणं न पदाग्शिनम् ॥ ३ ॥ समरसादितदानवतानवाऽ-- वतु नतान् धृतदीप्तिरिहाच्युता । . समरसाऽदितदा नवताऽनवा, सदसि चापकरा हयगामिनी ॥४॥ व्याख्या---एनं अनन्तं जिनं अहं श्रय संवे। किलक्षणं अतनुनापदं . तनोः कामस्य तापं ददातीति तं । अदामग्ण अस सौम्य एनं कं ? यो विभुमहिं । अहो ! इति आश्चर्ये अस्मयं निरहंकारं अतनुत अकृत, किलक्षणं अपदमनमदारुणं अपगतो दमो यस्मात् स: अपदमः तसा इनः स्वागी । मदेन अहमः महामणः अपदमेनश्वासो मदारुणश्च तं ॥१॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धिनराजगणः नोऽस्माकं अशं असुखं शमयतात् । इनः स्वामी फिलपण मतदानरमाभृतः मतिश्च दानं च रमाच ता विभनौति । भून शन्दः स्वरान्तो व्यंजनांतश्च । य इह आन्मरिपून अन्तरद्विषः समंजयत् जिगाय । किलक्षणान् मंशमिनः अशमो विद्यते अशमिनः तान् अमतिदान । पुनः किंलक्षणान अरमाभृतः अरमां बिभ्रतीति अरमाभृतः तान् ॥ २ ॥ ब-एनं जिनवरागमं उपास्मह सेवामहे । कीदृशं प्रकृतकं नकृतकं शाश्वत इलिनाहितसंपदं दलिता खंडिनाऽहितानां वैरिणां संपदः श्रियो येन तं । यो जिनागमः के वादिगण मटवर्जिजन मदरहितं न अकृत न चकार अपितु सर्वमपि । कीदृशं तं दलिताहितसंपदं दलिता विकसिना आहिता निश्चलाः संपदः पर विशेषाः यत्र तं ॥ ३ ॥ . अच्युता अच्छुप्तादेवी ननान् अवतु । किंलक्षणा समरमादितदानबतानवासमरेमादिनं खेदिनं दानवानी तानवन्तयो र्भावो यया सा। समरसा समः मधीको यो यस्याः सा ।अदिनता अदिता अखंडिता ता श्री यस्याः सा । अनचा गुराणा ॥ ४॥. ___.. श्रीधर्म-जिन-स्तुतिः । 7 (अनुष्टुप् छन्दः) भवतेऽकलितापाय, श्रीधर्म ! नमतीह यः। . भवतेऽकलितापाय ! स नरः पदपव्ययम् ॥ १ ॥ नयेहन्त-मुदारामं, जिनस्तोमं स्मृति सदा। ' नयेहन्त मुदागर्म, रतः शिश्राय यः शिवम् ॥२॥ भविकन्दर्पहन्तारं, श्रये सिद्धान्न-मेतकम् । भविकं दप्पेहन्तारं, लभन्ते यजुषो द्विषाम् ॥३॥ पराभूतिकराऽरीणां , प्रवासी पातु नः समा। पराभूति-कमरीणा, दधानाऽसि लता करे ॥४॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या-हे भोधर्म ! यो बरः भवते तुभ्यं ममात अकवितापाय कविध तापच तीन विद्यते वायस कलिताप तलाशी तापाय हे गतषित ! सना अध्ययं पदं भवते प्रायोति ॥ ___उदारामं उदारमानं यो मोक्ष प्राश्रितवान् । न्यायस्विता माराम - ण रामं रम्यं ॥ ३॥ भविनां कादर्प हन्तारं सिदाम्न आये । यो भपका रियाल सभन्ते । द्विषां दर्पह, सारं उज्यसं ॥३॥ अरीणा पराभूति करोतीति । परीशां अचीमा मासलता पाना . भागा ॥४॥ श्री शान्ति-जिन-स्तुतिः। (शार्दूलविकीरितं सचम्) . विद्यापीचर विचसेनतनय स्तुत्वा भवन्तं न के, शान्ते ! नोदितमार ! तारकलया धाराबनामोदकम् । सौख्यं के परमं लमन्ति नबुषाः कामानिशान्ती सदा, शान्तेनोदितमार! तारक बयापाराबामामोदकम् ॥१॥ अहेन्तो ददता-ममन्द-मसमानन्दाः सदानन्दनाः, मोदंते जनितानवप्रशमनादा नाम सामावराः। नुत्वा यानिह कामिताति यतो विद्वाना निर्भर, मोदन्ते जनितानव प्रशमना दानामलामावराः ॥३॥ जीयाजन्तुहितं करे बिनवरै-कौगोता . सिद्धान्तो दितमावरोगविसरो जन्मप्रमारामकः । शद्धादि विविधार्थ सार्थ रुचिरो सहाविदोष, .. सिदान्तोऽदितमावरो गवि सरोजन्यामाराम Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पपरोऽववाद स-माता श्रीयशान्तिः सतां, बन्यो परदामराभितरो राबावली शोमितः । या जीवन्त हापरे नेवितरे तुष्टः पराया थियो। पईन्यो बरदाऽमराजित करो राजा बलीयोऽमितः ॥४॥ पाल्पा-हे शान्तेनोदितमार ! के के बुधाः परमं सौख्यं न समन्ति ? अपितु पर्ने । भवंतं स्तुत्ला, कीदृशं तारकलया रम्यकलया, धारामनामोद-पारा चोषी तस्था अनान प्रामोदयतीति । पुनः कीदृशं कामानिशान्तौ नाम इति सत्ये, उदकं नीरं हे शान्तेन ! शान्तानां मुनीनां इन स्वा. मिन् ! हे उरितमार ! उदिता मां नियं राति पदातीति । हे नारक ! हे लयाभार ! हे मज ! जन्मरहित ॥१॥ ते पहन्तो जिना मोदं वदतां कीदृशाः जनितानवप्रशमनादाः जनितः अननः प्रसमस्य नादो यैस्ते नाम । साभावरा लाभश्च अवश्व तौ राति ददति ये। मोदन्ते हर्षन्ते । जनितानवप्रशमनाः अनिर्जन्म तानवं कृशत्वं ते प्रशमयन्ति इति । दानामसाभावरा:-दानेन अमंला भयावराः प्रधानाः ॥१॥ सिद्धान्तो जीवात् । कीदृशः हितभावरोगविसरः वितछिनो भावरोगविसरः समूहो येन सः । पुनः कीदृशः जन्मप्रभारामक: जन्मनां प्रभारसमूहः लत्र भमकः रोगसमः भक्तिभावरा अंदिता अखंडिता या मा कान्तिः तयावरः, पनि पृषिव्यां ससेजम्मप्रभारामकः सरोजन्म कमलं तस्य प्रभावत् रामको रम्यः निर्मला मादि स्व नानार्मसमूहरम्यः परवाविमद स्फेटकः निष्पनः अन्तो सत्ता मूर्दन्यो मुकुटः बरेणदाम्ना राजितो करौं यस्य सः । 'यक्षः पुण्यअनो राजा' इत्यनिधानतः। राजाबली-यचणि तया शोमितः दंडच्छो घरतीस तुषः, इह अमू श्रियो वितरेत् दंत । कोहशा परवाचौ श्रमरचितः अमराजितब सुखं राति दो यः सः । पश्चात्कर्मधारयः। राजा 'बचाधिपः बस्तीमा पसिना प्रभुः अमितः खामस्त्येन H४॥ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .२४ श्रीकृम्यु-जिन स्तुतिः (मालिनी :): प्रणमत भवमीतिच्छेनकं कुन्यु-मामा जिन-मिन-मितमानं मावधानं दधानम् । सुरनरनुतपादं विनदैत्य प्रणाशे, जिन-मिनमिसमान मावधाऽऽनंदवानम ॥१॥ जिननिचयमुदार नौमितं प्राप्नपारं, विशदशम-मपारं भंदमालोपयुक्तम्.। वचनमिह यदीयं संयम गति सदयोs विशदशम-मपारंभ दमालोपयुक्तम् ॥ २॥ वितरतु मतिभारं मेति-भारं जिनानां , मतमसमऽलयाऽलंकार-मायामतारम् । हरति यदिह वेगादाति नोवाश्रिताना मतमसमऽलयालं कारमा यामतारम् ॥ ३॥ . पुति-तति निभृताशा सौग्मी वाहनं या, कलयति नादत्ता शासिता-राति-जाता। भवतु मम मदे मा मर्चदोदारदेहा , कलयति-नर-दत्ताशाऽसि तागऽतिजाता ॥४॥ व्याख्या हे जनाः ! कुन्धुंजिनं प्रणमत। इनं इतमानं, गनाहंकारं सालभानं अप्रमत्तं भाभाः कान्ती दधानं जिनं नारायणं अंतरायदैत्यनारो इनमित, मानं ए: कामस्य नमितं मानं प्रमाणं येन स तं । पुनः किलक्षणों सावधानदभानं यह अवधेन अहिंसालक्षणेन वर्तते इति सावधः भानन्दस्य पानं पश्चात Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मधारयः॥१॥ निर्मशारामं अपार गतवैरिममूह भंदमानोपयुक्र कल्याणमालासहितं । कीदृशं संयमं अविशत अशमं अपारंभं गतारंभं दमालोपयुक्तं दमस्य अलोपेन युक्तं ॥ २ ॥ जिनामा मतं कर्तृ । कीदशं असमो लयोऽलंकारो भूषणं यस्य तत् । , आयामेन तारं उज्ज्वलं यत मनं आश्रितानां श्रलयानं अपध्यानोबम हरति । कारमाकाः श्रियो न राति न दत्ते किन्तु सर्खा अपि । यामतारं वामतां यमममूहतां राति दत्ते तत ॥३॥ सा नगदत्तादेवी मम मुदे भवतु । शिचित-वैरिवर्गा या महिनीवाहनमंगीकरोनि । कलयतीनां नराणां बताशा । असिना नारा उज्ज्वला अतिजाता कुमीना ॥ ४॥ श्री अर जिन स्तुतिः । __ (शिखरिणी छन्दः) सदारं तीर्थेशं तमिह तमसा-मुत्तमतम, ___ महामो हन्तारं निदलित-कला-केलिम-फलम् । निहत्योच्चानं विशद ममजापावलमहो!, महा-मोहन्तारं विदलितकलाकेलि मकलम् ॥१॥ जिनानं-चाम स्तान् विशदमभजन ध्यानमिह ये, सदाहंसारामं कृत-कमल-मानन्दितरसम् । जहू राज्यं प्राज्यं सुरनरभृताज्ञी च सहसा मदाह साजरामं कृतकमलमानन्दितरसम् ॥ २॥ जिनोतं व्यक श्री निचितमनमापनि, मतं पाता-व्यान-रममावन्द्रमवर Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रदत्ते यस्सद्वषः पर-मदहरं हवमानसा, मतं पाताव्यानरममलमानन्द्रमवरम् ॥ ३ ॥ सुखं दधात् सा मे विशदमिह चक्रायुधधरा सुरीत्यताऽश्री-राकृतिसुरचितारातिविमया । उपांत्ययारूढा नमसि शशिनो या प्रवरया, सुरीत्यक्ता भीरा कृतिसुरचिता राति विमया ॥४॥ व्याख्या-नित्यं पर जिनं महामः पूजयामः । तमसा हन्तारं विदलित कन्दर्पाकलं कलायितुमशक्यं । कीदृशं विदलिता विकशित कलायाः केलि यंत्र तं अकडं मदरहितं । कहङ्मदे ॥१॥ इंसस्य परमात्मनः पारामं कृतं कमलाना आधारादीनां मानं यत्र तन । राज्यं सारामं भीरम्यं कृतकं अलं आनन्दितरसम् ॥ २ ॥ भव्यान् पातात् पतनात् रक्षतु। अरं अमलमानं भव्यानरं भविनां श्रा. नान् प्राणान् राति दत्ते यत् । यन् आनन्दं प्रदते । मतं रक्षाप्रदं श्रमलं आमान रोगान् लातीति ॥ ३ ॥ चक्रायुधधरा चक्रेश्वरी सुरी मे सुखं दद्यान् । कीटक त्यक्ता ऽश्री: त्यक्ताऽ लक्ष्मीः आकृतिसुरचिता-अराति विभया आकृत्या सुरचितं निष्पादित अरातीना वैरिणां विशिष्टं भयं यया सा । या प्रवरया विभया कान्त्या शशिनश्चन्द्रस्य अपांराति दो। कीर सुरी त्यला सुयुक्तिमहिता श्रीरा लक्ष्मीप्रदा कृनिसुर चिता कृतिमिः सुरैश्चिता व्याप्ता ॥ ४ ॥ श्रीमल्लि-जिन-स्तुतिः। (शालिनी छन्दः) भीमलिमीडे कसनीलकायं, विभामयं योग विमासमानम् । निराकरोन्मोहबलं धणेन, विभामयं योगवि माऽसमानम् ॥१॥ जयन्ति ते बस्ततमोविकारा, विरा-जिना-नोदितमानतारा। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यजन्ति यानत्र नरामरेशा, विराजिनानोदितमानताराः ||२|| जिनेश! वाहते वरनीस्यमे-या देयादमंदानि हितानि कामम् । विस्तारयन्ती ददती च विषा, देया दमन्दानिहितानिकामम् । ३ यक्षाधिपः पातु सहस्तियानो, विभातिरामोऽहितकत्सुरावः। श्रीसंघ रक्षा करणोधतो यो, विभाति रामो हितकुत्सुरावः ॥१॥ ब्याख्या--श्रीमल्लि ईडे स्तुवे । विभामयं कांतिमयं योगेन विभासमान यो मोहबत निराकरोत् , विभामयं विशेषेण भामस्य कामस्य या श्री यंत्र । गवि पृथिव्यां भया रुचाऽसमानम् ॥१॥ ते जिना जयन्ति । कीदृशाः विराः विशिष्टा रा दीप्ति येषां से । मोदि. नमानतारा: नोदितः स्फेटितो मानो यैस्ते, नोदितमानाश्च ते ताराब नो-. दितमानताराः यान् नरामरेशा यजन्ति । कीदृशाः विराजिमानोदितमाः विराजिनी नानाप्रकारा उदिता मा येषो ते विराजिनानोरितमाः। पुनः किसक्षणाः नताराः नतं प्रारं येभ्यस्ते नताराः ।। २॥ हे जिनेश! ते तव वाक् हितानि देयात् । वरनीत्या मातु-मशक्या । भ. मंदानि गुरूणि कामं भृशं । कीदृशी दमं विस्तारवन्ती । वानिहिता दानिभ्योहिता निकामं ददती। पानिनां प्राणिनां काम वांछितं ददती ॥ ३ ॥ स यचाधिपः पानु । किंलक्षणः विभातिरामः विभया कान्या अतिरामा श्यामः "स्यादामः ऐयामतः श्यामः" । अहितकृत् रिपुच्छेदक सुरावा शोभनशब्दः सः कः यो विभाति शोमते रामो रम्यः हितकृत् सुरावः मुरान अवतीति सुरावः ॥ ४॥ श्रीमुनिसुव्रत-जिन-स्तुतिः । (पृथ्वी छन्दः). नमामि मुनिसुव्रतं जिनमिनै र्नुतं विनमै जरामरणमेदिनं शमितमानवायापदम् । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारन्ति जनपारनं भवननायकं यं हि दु* बरामरणमेदिनं शमितमा नपा-धामदम् ॥१॥ जना निजमनो-हिये जिनपती-नरं निर्मलान, नवन्ति सुकृतादरान विशदकेवलभीवरान् । भये परिभवंतु वै विभवदायकाबायकान् , न पन्ति सुकृताऽदरान विशद के बलश्रीवरान ॥२॥ जिनेन जननापहं जनित संवर श्रीवरं, कृतं विकृतिनाशनं दमितमानमायावलम् । मतं वितरदुचकैः सह धनेन मामा-भ्यलं, कृतं विकृतिनाशनंदमितमान मायामलम् ॥३॥ स्फुरस्कमलराजिता रचयताच गौरी शिवं, विभूत्तमसमानता सुमतिभूरिताराऽदरा । करोति हितमत्र या प्रवरगोषिकावाहना, विभूत्तमसमाऽनताऽसुमति भूरितारादरा ॥४॥ व्याख्या-अहं मुनिसुव्रतं नमामि । कीदृशं जरामरणमेदिनं शमितमानपाधामद-मानश्च बाधा च पदश्च मानबाधामदा. शमिता मानयाधामदा येन तं। ते कं? शमितमाः साधवो यं म्मरन्ति । कीदृशाः ? नवाः नवीनाः कीदर्श धामदं तेजोदायकं पुनः कीदृशं दुजरामरणमेदिनं दुर्जरो योऽमोरोगः रणः संग्रामः तद्रूपे मे नक्षत्रे दिनं दिवसरूपं ॥१॥ ' ये जनाः जिनपतीन् निजमनो नयन्ति । कीदृशान सुकृतादारान पुण्यादरान् विशदायाः केवलभियो वरान् , ते जना भवे संसारे परिभवं न यान न प्राप्नुवन्ति । कीदृशान् सुकृतो निष्पादितोऽदरो मोक्षो यैस्ते सान् । कोदारी भवे विशदके विशत् अकं दुःखं यत्र । बलं च श्रीश्च ताभ्यं बरान रम्यान् ॥२॥ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हे वालम ! मायो ! मतं मागम । कीदृशं मिनेनहतं विनाशनं वि. कारहरे बमिसम्मानमला ग्रेन तत् । धनेन सह अशनं वितरत् । कीदशेन विकतिना विशेषण कृतिना कोहरां श्रायामलं आयेन लामेनाऽमलं ॥ ३ ॥ 'गौरी शिवं रचनात् । कोदशी विभत्तमसमानता विभूतमा गजानते नंता । मुमतिभूः इतारा इसं गतं प्रारं यस्याः, श्रदरा योऽसुमति प्राणिनि हिनं करोति । कोहग विभूत्तमममा विशिष्टं यत् भृत्तमं स्वर्ण नत ममा। अनता भरिनारादरा भार स्वर्णे तारे कप्ये च पादरो यस्या सा ॥ ४ ॥ श्रीनमि-जिन-स्तुतिः। (शिखरिणी वृत्तम् ) नाग नाई नानामयमयहरं विश्वविदुरं, सदा मन्देऽहं शमदमकर तारकमलम् । नवन्तीन्द्राः सर्वे यमिह सुख हे शुभ ! दृक्षा पदारं मन्दे शमद-मकलं तारकमलम् ॥१॥ विनम्यहं वीहंतमिह तत मोहापहमहं, श्रयेऽसंसारेशं सदमरहितं कामदमरम् । मविम्यो यो दत्त गुरुतरमहो ! सर्वविपदा भये संसारेशं सदमरहितं कामदमरम् ॥ २॥ सुसं दियाद्वाणी तव जिनपते ! धौसकलुषा, क्षमासाराऽकाराऽखरकरसमानो-भतिकग । समस्तोमध्यसे जन-जनज-बोधेव (१) गुरुणा, धमासाराकारा स्वस्करसमानोबतिकरा ॥ ३ ॥ क्रियात् काली साऽलं कमलनिलया लाभमतुलं, सुपामाधारा भाजितपरगदा राजितरणा । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घनश्यामा-यामा क्य-चय हरा दारितदरा, सुधामाधारा भाजितपरगदा राजितरणा ॥ ४ ॥ व्याख्या-अहं नर्मि नाथं मन्दे स्तुवे । मुदा हर्षेण अरं भूरां शमहमवरं तारकां अलं भृशं, कीदृशं उदारं मन्देहं मन्दा ईहा यस्य तं । शमदं शमं ददातीति । अवरं रक्षाप्रदं नारकमलं तारा कमला की यस्य तं ॥१॥ ___ अहं जिनव्यूह श्रये भजे । कीदृशं असंसारेशं असंसारो मोक्षस्तस्य नाथं । सत् अमेरहितं प्रधानदेवानां हितं, कामदमरं कामस्य इमं राति ददातीति तं । यः संसारेशं दशे । कीशं सदमरहितं संतो विद्यमाना ये अमारो. गास्तै रहितं कामदं अरे ॥२॥ हे जिनपते : ते तव वाणी सुखं दिश्यात । कीदृशी क्षमासारा अकाग न विद्यते काग गुप्तिगृहं यस्यां सा । अखरकरश्चन्दस्तस्ममाना उन्नतिकरा उ. प्राबल्येन नतिकरा, तमस्तोमध्वंसेखरकर समा-सूर्यसमा धानानां प्राणाना उभतिं कं च मुखं राति दत्त या सा ॥ ३ ॥ काली लाभ क्रियान् । कीदृशी सुधामाधारा सुधा भमनं मा श्री: नयोः धारा भृमि. । कीदृशी भाजितपरगदा भया कात्या-जिता परा प्रकृष्टा गदा रोगा यया सा । राजितरणा राजितसंग्रामा सुधामाधारा सुधाम शोभन तेजस्तस्य आधारा, भाजिनपरगदा भाजिता परा गदा आयुधविशेषो यस्याः ! राजितरणा रो दीपः अजितश्च रणः शब्दो यस्याः ॥ ४ ॥ श्री नेमि-जिन-स्तुतिः । (शार्दूलविक्रीवितं वृत्तम् ) श्रीनेमि तमहं महामि सहसा राजीमती श्रीयुतां, तत्पाजो-जितकामरामवपुर्ष यो गीतरागादराम् । मेजे मुक्तिवर्धू च कृतनुतिः सद्यादवानामलं, तत्या-जोऽर्जितकामरामवपुष योगीतरागाऽदराम्॥१॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नित्यं भक्ति जुषे जिनवज ! महानन्दं तमात्मालयं, मयं देहि विमोदितं वितमसं सारं समस्ताधिकम् । भीति यंत्र न जन्ममृत्युजनिता योगीश्वरैः सर्वदा ___ मह्यं देहिविमोदितं वितमसंसार समस्ताधिकम् ॥२॥ प्राणीत्राणपरायणा जिनपते ! ते भारती पातकं, धीराऽवद्यतु देव ! मे नवरसाऽपाग गमाराजिता । तापं हन्ति सुधेव या हतमला भव्यांगनाल्लसद्, धीराऽवद्यतु देव मेन ! वरसापा रागमाराजिता ॥३॥ यामा कंदफलावली श्रितकरा सिंहासनाध्यासिनी, विश्वांवावरताऽऽम्रपादपरमालीना सुनारोचिता । विनवातहराऽस्तु सा निजगुण श्रेणीभृत-प्रोल्लसद विश्वाम्बावरताम्रपादपस्माऽऽलीना सुतारो-चिता।।४।। व्याख्या-यःराजीमती तत्याज। कीदृशी अजितकामरामवपुषं जित कामन रामं वपु यस्या म्नां । गीतरागादरा गीती प्रसिद्धो गगादरौ यस्यास्तां । राजी• । किलक्षणा मुक्ति इतरागादरां गनरागाचासी अदरा च निर्भया तां यादवानां तस्या कृतनुतिः अजः जन्मरहिनः, कीदृशी मुक्तिब, अजिसकामरां अजितका चासी अमरा च मरणरहिता तां अवपुषं अवं तेजः पुष्णा नि या तां योगी ॥१॥ हे जिनब्रज : महयं मे तं महानन्दं देहि । भाल्मालयं आत्मनः स्थानं कीदृशं विभोदितं विभया उदितं, वितमसं निष्पापं, सारं समस्ताधिकं महयं पूज्य हे हिविभो : देहिनां स्वामिन् ! अदितं अखंडितं वितं विशिष्टतो यत्र तं । असंसारं न विद्यते संसारो यत्र नं । समस्ताधिकं सम्यक् अस्तो निराकृतः श्राधि यंत्र तं ॥ २ ॥ हे जिनपते ' ते तब भारता पातकं भवतु । हे देव ! मे मम नबरसा Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपारा पाररहिता, गमाराजिता गर्मः पाराजिता शामिता या नापं हन्ति । कीदृशी धीरा धीप्रदा अवद्यतुन , पापछेदिनी हे मेन ! मा श्री: तस्या इनः खामी, वरसापावरां सां श्रियं पाति या सा। रागमाराजिता रागमाराभ्यो अजिता ॥३ सांबा अंबिका विनवातहराऽस्तु । कीदृशी विश्वाम्बा विश्वमाता अवरता रक्षापराश्राम्रपादपरमालीना आम्रवृक्षरमायांलीना मुतारोचिता सुताभ्यां आरो चिता निजगुण भृन विश्वा पृथ्वी वरनाम्रणापरमा बरी तात्री यौ पादौ ताम्बा परमा श्राजीया बालीनां सखीना, स्वामिनी मुतारा उज्ज्वला उचिता ॥ ४ ॥ श्रीपार्श्व-जिन-स्तुतिः । ( स्नग्धरा छन्दः) विद्याविणाऽनवयः कमनकमनतामंगदोऽभंगदोषी:, कालोऽकालोपकारी करण कग्णता मोदितामोदितारम् । दिश्यादिश्यातकीर्ति विभवत्रिभवकर निर्ममोऽनिर्ममोह- . श्रेयः श्रेयः सपार्थः परमपरमताऽऽभोगहा मोगहारी ॥१॥ व्यहो ब्यहो जिनाना-मुदितमुदितधीमावरोऽभावरोगोऽपायात् पायात्मनामाऽकलिनकलिनमा कामदोऽकामदोषः। मयोऽमयोगहयोऽसमरसयरमाऽऽनन्दमो नन्दनोस्कः । पुण्योपुण्यो नितांत जनितजनितते करपनोऽकरुपनोऽनम् । मन्या मत्याऽऽरदीनाऽजननजननता सर्वदा सर्वदावः, साग माराऽभावाणी सुरव सुरवराऽऽनन्दिनी नन्दिनीय। मच्या भव्याप्तभावाऽनिपुणनिपुणताकचरा कत्तरागा, कामं कामं प्रदेयादमित दमितमा सातदा मा तदात्री ॥॥ वित्ता वित्रानि-दत्तेऽमुमतिसुमतिदाराषिताऽऽराषितारा Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साया मा या विमाया सुस्तमुकुन्धाराजिनी गजिनील्या । पातात् पाताद्वरेण्याऽशरमशरणकद्दानवीदानवीरोवन पड़ा पद्मावती नो निमृननिभृतताऽहीनमाऽहीनभार्या ॥४॥ च्याग्प्या--विद्या विद्याविदो ज्ञानस्य या विद्या नाभ्यां अनवद्यः कमनः कामस्तस्य कमनता-रमणीयता तस्या-भंगदः, अभंगदोः श्री:-अभंगवाहु लक्ष्मीः कालः कृष्णवर्णः अकालोपकारी-अकं दुःखं नस्य या सामन्त्येन लोपकारी। पुनः कीदृशः करण-चारित्रं तस्य करणता-कर्त्तत्वं नया मोदिनः। मोदिता-मया श्रिया उदितः अरंमपावः श्रेया मोक्षं दिश्यात् । उरु श्रेयः गुरुकल्याण विभत्रविभवकृन विभवों मोक्षस्तम्य विभवं करोतीति । निर्ममा निःस्पृहः कीदृशः अनिः नि:कामः मम षष्ठयन्तं । परमं प्रकृष्टं यन् परमनं तम्य प्राभोग विस्तार हन्तीति भोगहारी मार्पशरीरशोमिनः ॥१॥ जिनानां व्यूहः मनाशश्वत मा-मां अपायात् विप्नात पायात । कीदृशः ब्यू. हः विशिष्टकहो यस्य मः। उक्तिमुदितधीभावरः अभावगेगः भावरोगरहितः, अकलितकलितमा:-अकलितं कलेस्तमो येन सः। कामदः अकामदोषः सद्यस्तकालं असद्योगहृत् , कीदृशः असमरो यः । समरस्तेन भानन्दनः नन्दनोत्क: नन्दनं तत्वचिन्तनं नत्र उत्क:-उत्कंठितः, पुण्योपुगन्धः पुण्यस्य का रज्ञा नया पुण्यः पवित्रः, जनिनजनिततेः कल्पन:-छेदकः, अकल्पन:-कल्पना रहितः, अलं भृशं ॥२॥ आप्तवाणी वो युष्मभ्यं काम भूश कामं-बांचितं प्रदेयान् । कीदृशी सत्या सनी प्रधाना प्रारहीना अजननजननता-अजनना-जन्मरहिता ये जनाः अर्थाश्चरमशरीरिणस्तै नेता सर्वदा-सदा सर्वदा सर्वदात्री। सारा-तत्वरूपा मारा-सांश्रियं राति दवे या सा । सुरवा शोभनशब्दा ये सुरवरा-इन्द्रास्तान प्रानन्दयतीति । केव ? नहिनीव कामदन भव्याभन्यातभावा-भनिमिः संसारिमिराता यस्याः सा, अनिपुणनिपुणताकृत्तरा-अनिपुणानां निपुणताकृत्तरा निपुयाताकी कृत्तरागा Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृतः बिन्नो रागो यया । अमितदमिनमासातदा-अमिताये दमितमाः माधवस्ते. षामसातं दुःखं अति-खंडयति या सा तदात्री ॥३॥ मा पद्मावतीनोऽस्मान् पातात पतनात रक्षतामा कायापाराधिता सेविता सती वित्तानि दत। कीटग वित्ता-प्रसिद्धा पाराधितारा-पारस्याऽरिसमूहस्य प्राधितां-राति दत्त या सा । अपमति-प्राणिनि सुमतिदा माया-सलामा विमाया सकतमुक्तधीपाजिनी-सुष्कृता सुकृतधीः पुराणबुद्धि यया सा। ईराजिनीत्याराजिनी-ई:-श्रीस्तया राजिनी या नीतिस्तया राजिनी, अशरणशरणकृत-दानबस्येयं दानवी दाने-वीरा, उत्पमा-उत्कृष्टा पद्मा-श्री यस्यां सा । निभृता-पुता निमृतता-निश्चलना यया सा । अहीनभा-अहीना भा यस्याः । अहीनो धरणस्तस्य भार्या एवंविधा .॥ ४ ॥ श्रीवीर-जिन-स्तुतिः । (स्वग्धरा बन्दः) वीरवामिन् ! भवन्तं कुतसुकृततति हेमगौरांगभासं, ये मंदन्ते समानंदितविकमलं नाथ ! सिद्धार्थजातम् । संसारे दुःखपस्मिन् जितरिपनिकरा संश्रयन्ते धनापा. ये मन्दं ते समानं दितभविक्रम-लं नाथ सिद्धार्थजातम् ॥१॥ ते जैनेन्द्रा वितन्द्रा विहितभशता भूतये सन्तु नित्यं, पादा विचारमादा नरकविकलताहारिणो रीतिमन्तः । ये ध्याता अंशयन्ती हितसुखकरणाभक्तिमाजांस्फुरत्सत्पादा वित्ता वादा नर कवि कलता हारिणोजीतिमन्तः॥२॥ पांप-व्यापं हरन्ती प्रकटितसुकृतानेकमावा च सा भूपक्रे गा मोहापाऽचितमतिरुचिताऽनंतमौरानुकापम् । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हत्वा क्रोधादि चौरानरिनिकरहरा मुक्तिमार्गप्रकाशंचके या मोहहयाचित-पतिरुचितानंतगौरानु कामम् ।।३।। पायान्नो हंमयानामरनिकरनुता सारदा सारदाना, पाली नादरामा शुभहृदयमता राजिताधामदेहा । वीणादंडाक्षमाला कजकलितकरा सुंदराचारसारा, पबालीनाऽदरामाशुभहृदयमतारा जिताक्षाऽमदेहा ॥४॥ व्याख्या--हे वीरस्वामिन् ! ये नरा भवंत मंदंते स्तुवन्ति । कीदृशं तसुकृततति सुवर्णोखलकास्ति । पुनः किंलवणं समानन्दितभविकमलं समानंदिता वर्दिता भविनां कमला श्री येन तं । हे नाथ ! सिद्धार्थजातं-सिद्धार्थनृपतनयं, ते नराः अस्मिन् संसारे दुःखं न संश्रयन्ते । कीदृशास्तं समानं यथास्यात्तथा, जितरिपुनिकराः, कीडशे अमंदं, दितभविकं-छिनकल्याणं असं भृश । अथ पुन: सिद्धार्थजातं-सिद्धो निष्पन्नोऽर्थजातो यस्य तं ॥ १ ॥ ते जैनेन्दाः पादाः भूतये सन्तु । कीदृशाः वित्तारमादा:-वित्ताश्च ते परमादाश्च प्रसिद्धअलक्ष्मीछेदकाः नरकविकलताहारिण:-नरकेषु या विकडता शून्यता तां हरन्तीति, रीतिमन्तः-रीतियक्ताः.ते के ये पादाः अंतश्चित्त ध्याता: सन्तःअरीति अंशयंति, केषां भक्तिभाजां। परीणां ईतिः प्रचुरता तां । कीदृशाः स्फुरत्वत्पादाः-सरिकरणाः, वित्तारमादाः-बित् ज्ञानं तस्य या तारा मानी: तां ददतीत्येवं शीला: । नरकविकषिताहारिणः नरेषु कविषु च कलतया रम्यतया शोभमाना ॥२॥ सानन्सगौ जिनवाग् कामं रातु-ददातु । भूक्के-धरापीठे, कीटर या मोहहृद्या या म ऊहाभ्यां हृद्या आचितमतिः व्याप्तबुद्धिः उचिता-योग्या या मुक्किमार्गप्रकारां चक्र । मोहहृत् याचित-प्रार्थित अतिरुचिता अनन्तगौरा-शेषवद्गौरा काम-भृशं ॥३॥ मारदा न: पायात् । कीदृग् पद्माली-पदो मा पद्मा पयायाः प्राली: Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणि यस्याः सा । नादरामा शन्दरम्या शुभहृदयमता-शुभहृदया विद्वांसस्तेषां मता, राजिताक्षामडेहा-राजितः शोमितोऽक्षामो देहो यस्याः । पालीना-पद्मस्थिता अदरा अमाशुभहृत् रोगाऽकल्याणहरा अयमतारा-अमरणाप्रदा जिताचा-जितन्द्रिया, अमदेहा-मदरहिता ईहा यस्याः मा ॥ ४ ॥ इति श्रीमुन्दरपंडितप्रकांड नीमुन्द्ररमुनि विरचित श्रीमच्चतुर्विंशति-जिनाधिपति स्तुति वृत्तिः समाता ॥ लिखिता-पं० श्रीवल्लभगणिना ॥ श्रीः। आलेखि-मुनि-विनयसागरेण संशोधिताश्च । 411 A THAPA Ce -UNIL Page #51 -------------------------------------------------------------------------- _