Book Title: Bruhatkalp Sutram Pithika Part 01
Author(s): Sheelchandrasuri, Rupendrakumar Pagariya
Publisher: Prakrit Granth Parishad
View full book text ________________ 154 बृहत्कल्पचूर्णिः // [पीठिका पंचण्डं समणाणं अट्ठाए कया / महासावज्जा जा इमेसिं चेव समणाणं कता / जा खलु जहुत्तदोसेहिँ वज्जिया कारिया सअट्ठाए। परिकम्मविप्पमुक्का, सा वसही अप्पकिरिया उ॥६०२॥ "जा खलु०" गाधा / कंठा / इदाणि जयणं दरिसेउकामो इमं आहहेट्ठिल्ला उवरिल्लाहि बाहिया ण उलभंति पाहण्णं / पुव्वाणुण्णाऽभिणवं, च चउसु भय पच्छिमाऽभिणवा // 603 // "हेडिल्ला०" गाधा / अप्पकिरिया कालातीया उवट्ठाणा अभिक्कंता अणभिकंता जाव महासावज्जा / अप्पकिरिया णिद्दोस त्ति कातुं आदीए ठविज्जति / ततो कालादीयादयो जाव महासावज्ज त्ति / तत्थ हेट्ठिल्ला अप्पकिरिया भवति / तत्थ जति अतिरित्तं कालं अच्छंति, ततो सा कालातिकंताए बाधिया भवति / कालातिकंतं जति दुगुणा दुगुणं अपरिहरित्ता उवागच्छति ततो सा उवट्ठाणाए बाधिता भवति / एवं जधासंभवं णेतव्वं / 'पुव्वाणुण्ण'त्ति, पुव्वा अप्पकिरिया तीसे अणुण्णा जं भणितं सा अणुण्णाता पढमं / तीसे अभावे सेसाणं पुव्वा कालातीता तीसे अणुण्णा / तीसे अभावे सेसाणं पुव्वं उवट्ठाणा, तीसे अणुण्णा / एवं जा जा पुव्वा तीसे तीसे अणुण्णा जाव सावज्ज-महासावज्जाणं पुव्वा सावज्जा तीसे अणुण्णा। एवं पुव्वाए पुव्वाए अभावे पराए वि अणुण्णा भवति / 'अभिणवं च चउसु भय'त्ति, अभिणवो त्ति दोसो अभिसंबज्झति / कालातीतोवट्ठाणाभिक्तासु पुव्वपरिभुत्तत्तणातो अभिणवदोसो ण भवति / सेसासु अणभिक्कंत-वज्ज-महावज्ज-सावज्जासु चउसु कयमेत्तासु अभिणवदोसो भवति / चिरकयासु अभिणवदोसो न भवति / तेण 'अभिणवं च' / च शब्दात् अणभिनवं च। चउसु भय, भयत्ति वियारेहिं जं भणियं होति / अणभिक्कंताए अपरिभुत्त त्ति काउं चिरकयाए वि अभिणवदोसो भवति / वज्जादिसु जाओ परिभुत्ताओ तासु अभिणवदोसो ण होज्जा / एस विचारणा / 'पच्छिमे( मा? )ऽभिणव'त्ति, पच्छिमो महासावज्जोवस्सओ तम्मि अभिणवकए वा, चिरकते वा, परिभुत्ते वा, अपरिभुत्ते वा अभिणवदोसा चेव भवंति एगपक्खणिद्धारणातो / एतेहिं मूलगुणादीहिं दोसेहिं जो जाणति परिहरिउं सो गहणे कप्पिओ होति / तं पुण कधं जो जाणति परिहरिउं ? उच्यते उग्गम-उप्पायण-एसणाहिँ सुद्धं गवेसए वसहिं। तिविहं तीहिँ विसुद्धं, परिहर णवगेण भेदेणं // 604 // "उग्गम०" गाधा / उग्गमेण सुद्धं / उप्पादणाए सुद्धं / एसणाए सुद्धं / गवेसए त्ति वसधिं, अट्ठ भंगा / एवं जो जाणति असुद्धं सत्तसु उवरिमभंगेसु परिहरिउं सो गहणे कप्पितो होति / तिविधं ति, खातादी / तीहिं ति मणादीहिं / खातादिता तिण्णि वसधीतो उग्गमादि
Loading... Page Navigation 1 ... 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250