Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi

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Page 16
________________ ( ग ) प्रसूत बताते हुए कहा गया कि बौद्ध दृष्टिकोण में तात्त्विक स्वलक्षणता के रक्षार्थ व्यक्ति समाज के बीच सम्बन्ध में तात्त्विकता नहीं मानी जा सकती ( पं० आनन्द झा)। इसी दृष्टि में व्यक्ति और समाज और उसके सम्बन्ध तीनों की तात्त्विकता न्यायवैशेषिक में पूर्ण रूप से, और अद्वैतवेदान्त में कथञ्चित बनती है। व्यक्ति की सामाजिक चेतना का विकास अतार्किक ढंग से घटित है। इस मत को स्पष्ट करने के लिए बौद्धों की पदार्थशास्त्री स्थिति प्रस्तुत की गयी। कहा गया कि बौद्धों की 'कुर्वद् रूप' सत्त्व के सिद्धान्त से व्यक्तित्व का निर्धारण होता है। बौद्ध कहते हैं अणुओं पर दृश्य विश्व की संरचना वासनावश व्यक्ति किया करता है। यह उसकी अविचारित रमणीय रचना है जिसमें उसकी तर्कना शक्ति बिल्कुल काम नहीं करती। समाज रचना तथा समाज स्थिति के नियमन में तार्किक प्रक्रिया का विशेष स्थान नहीं है ( डॉ० नारायण शास्त्री द्राविड )। ___ व्यक्ति और समाज में कौन प्रथम ? इसके समाधान में परम्परागत बौद्ध दृष्टि के अनुसार व्यक्ति को प्राथमिकता को स्वीकार करते हुए भी व्यक्ति और समाज के सुख में अद्वयता तथा उसकी अन्योन्याश्रयता के आधार पर इस प्रश्न के एकतर पक्ष पर आत्यन्तिक जोर देना बौद्ध सम्यग्दृष्टि के विपरीत है, यह बताया गया। किन्तु आज व्यक्तिवादी या समाजवादी पद्धतियों के कारण व्यवस्था में जो महान अन्तर आ जाता है इसलिए प्राथमिकता या श्रेष्ठता की बौद्ध दृष्टि क्या है ? इस पर विचार करते हुए कहा गया कि बौद्ध दृष्टि से पद्धति का प्रश्न तो क्रम का प्रश्न है, फल का नहीं। व्यवहार में काम करने का एक सिलसिला बनाया जा सकता है। लेकिन कामकाजी क्रम से व्यक्ति या समाज में से एक या दूसरे पर आत्यन्तिक बल नहीं पड़ता। यहाँ यह या वह का प्रश्न नहीं, दोनों ही का है। सत्त्वों के चरित में भेद हो सकता है, कोई व्यक्ति-चरित तो कोई समष्टि-चरित । इस दृष्टि से उनकी चर्याओं में भेद भी हो सकता है किन्तु इन चर्याओं के भेद से सिद्धि में भेद नहीं। सिद्धि से तो उस अद्वय, युगनद्धदशा को ही प्राप्त करना है जिसमें स्वपर का भेद नहीं है (प्रो० कृष्णनाथ)। ___ अन्य विद्वानों के निबन्ध से उक्त बात कुछ और स्पष्ट होती है। व्यक्ति तथा समाज की असत्ता की परमार्थता को स्वीकार करते हुए कहा गया कि इस प्रकार व्यष्टि और समष्टि दोनों की एकता का अधिगम होता है। इसी दृष्टि को ध्यान में रखकर व्यष्टि समष्टि के बीच अभिन्नता अधिगम हो सकती है ( डॉ० लालमणि जोशी )। व्यष्टि समष्टि की अभिन्नता के प्रश्न पर कुछ और विचार भी प्रगट किये गये हैं। समष्टि व्यष्टि के बीच कोई ऐसा सम्बन्ध होना चाहिए, जिसका आधार परस्पर का आदान-प्रदान हो और उसके आधार पर अधिकार एवं कर्तव्य की व्यवस्था बन सके। माध्यमिक या अन्य बौद्धदर्शन के प्रस्थानों में ऐसा सम्बन्ध सम्भव नहीं है, क्योंकि माध्यमिक दर्शन में आदान-प्रदान के लिए कोई स्थान नहीं है। व्यष्टि और समष्टि अन्योन्य सापेक्ष होने के कारण स्वयं स्वभाव शून्य है। सर्वदृष्टिप्रहाण के द्वारा उनके बीच दृष्टि सापेक्षता समाप्त हो जाती है । वेदान्त और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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