Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 1
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi

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Page 15
________________ ( ख ) 1 आधार है । इसके लिए यह आवश्यक है कि बौद्ध दृष्टि से सत्य को अवधारणा की समीक्षा की जाय । गोष्ठी के प्रायः सभी विद्वानों ने व्यष्टि और समष्टि की सत्ता समान स्तर को है, इस मत को प्रगट किया है; किन्तु उन्होंने जब उसे संवृत्ति सत या व्यावहारिक सत्ता आदि शब्दों के द्वारा अभिव्यक्त किया है । इस स्थिति में ऐसा लगता है कि ये विद्वान व्यक्ति और समाज को परमार्थ की अपेक्षा एक निम्न स्तर की सत्ता या तुच्छता प्रदान कर रहे हैं । इस स्थिति में अनायास हो यह भ्रम खड़ा हो जाता है कि बौद्ध भी जीव और जगत एवं व्यक्ति और समाज के प्रति मायावादी दृष्टि रखते हैं । फलतः सामाजिक समस्याओं के प्रति ये भी उदासीन और पलायनवादी हैं । इस स्थिति में आधुनिक सन्दर्भ में व्यक्ति एवं समाज सम्बन्धी समस्याओं की जटिलता को सुलझाने में बौद्ध चिन्तन की प्राथमिकता एवं प्रामाणिकता समाप्त होने लगती है । व्यक्ति और समाज दोनों परमार्थ सत्य नहीं हैं, बौद्धदृष्टि में इस वाक्य का अभिप्राय क्या है ? क्या इस वाक्य से यह निकलता है कि दोनों असत्य हैं ? स्पष्ट है कि संवृति सत्य कभी असत्य नहीं है, सत्य यथार्थता है । इसलिए परमार्थ सत्य की तरह संवृत्ति सत्य को भी यथार्थता से भिन्न करके समझा नहीं जा सकता । यथार्थता के बोध के लिए एक विशेष प्रशिक्षण की आवश्यकता है, जो सर्वसुलभ नहीं है । इसलिए अप्रशिक्षित स्थिति में उस यथार्थता के बोध का एक भिन्न प्रकार होगा, जिसे संवृत्ति सत्य के द्वारा कहा जाता है । इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि एक ही तथ्य को समझने के लिए संवृति और परमार्थ ज्ञान के केवल प्रकार भेद हैं, वस्तुभेद नहीं । इस प्रकार व्यक्ति और समाज समान स्तर के दो तथ्य हैं जिन्हें संवृति और परमार्थ दोनों प्रकारों से समझा जा सकता है। इ प्रकार ज्ञान के प्रकार-भेद से मात्र मूल्यबोध में भेद आयेगा । इस द्विविध मूल्यबोध को स्पष्ट करने के लिए संवृति एवं परमार्थ का संकेत आवश्यक है । विद्वानों ने व्यक्ति और समाज का समान स्तर स्वीकार करते हुए भी उनके बीच साध्य - साधन, तात्त्विकता एवं कल्पना आदि के आधार पर स्तर भेद एवं मुख्य-गौण भेद करना आवश्यक माना । इस सम्बन्ध में कहा गया कि व्यक्तित्व की स्वीकृति एवं उसकी इदन्ता की रक्षा एक व्यावहारिक आवश्यकता है, जिसकी स्वीकृति के बिना न तो मानव जीवन के वैयक्तिक और न सामाजिक पहलू की व्याख्या की जा सकती है । बौद्ध दृष्टि में व्यक्ति साध्य एवं समाज साधन है । दोनों सांव्यावहारिक हैं, परन्तु दोनों में जो मूलभेद हैं, वह यह कि व्यक्ति प्राथमिक स्तर की रचना है जबकि समाज गौण स्तर की ( प्रो० सिद्धेश्वर भट्ट ) | बौद्धों के पदार्थ शास्त्रीय मान्यता के आधार पर व्यक्ति को पदार्थ की स्वलक्षणता अर्थात् उसकी असाधारणता के आधार पर तात्त्विक और उन असम्बद्ध एवं स्वतन्त्र व्यक्तियों को पुंज के रूप में समाज को स्वीकार करके उनके बीच सम्बन्ध की कल्पना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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