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प्रतिभासम्पन्न, आशुकवि, बहुविध व्यक्तित्व एवं कृतित्व के धारक, कलाविद्, परमधर्मिष्ठ श्री भंवरलालजी नाहटा का अभिनन्दन शीघ्र ही किया जाएगा-संवाद से मेरा मन-मयर थिरक उठा। क्यों न थिरके। किसी बहुश्रुत और उपकारक विद्वान् का अभिनन्दन हो तो थिरकना स्वाभाविक है ।
नाहटा बन्धुओं-१० आरचन्दजी ए श्री भंवरलालजी नाहटा से मेरा सम्पर्क आज का नहीं है । चार दशाब्दियों से भी अधिक समय से सम्पर्क रहा है, जो अब घनीभूत हो चुका है । इन दोनों के ही मेरे जीवन पर परम उपकार रहे हैं। इनके सम्बन्ध में पूर्व में भी मैं 'प्रतिष्ठा लेख संग्रह' एवं 'अगर चन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रन्थ' में अपने भावोद्गगारों को प्रकट कर चुका हूँ, तदपि उन स्मृतियों का अव भी मैं संवरण नहीं कर पा रहा हूँ, अतएव पुनः अंकन कर रहा हूँ।
वि० सं० २००० में मेरे परमाराध्य सद्ज्ञान चूड़ामणि परमक्रियापात्र पूज्य गुरुदेव श्री जिनमणिसागरसूरिजी महाराज के सान्निध्य में मेरा चातुर्मास शुभविलास, बीकानेर में था। उस समय मेरी अवस्था १५ वर्ष की थी। यहीं से मैं इनके सम्पर्क में आया, नहीं-नहीं, इन्होंने मुझे अपने सम्पर्क में लिया और कुशल शिल्पी की तरह मेरे जीवन का निर्माण करने की ठान ली। अपने पुत्र पारस के समान ही मुझ पर वात्सल्य/धर्मस्नेह रखते हुए, मेरी जीवन की गति/प्रवाह को मोड़ देना प्रारम्भ कर दिया।
सर्वप्रथम इन्होंने हस्तलिखित ग्रन्थों की लिपि को पढ़ने की ओर मुझे प्रेरित किया। अभ्यास बढ़ने पर पडि. मात्राओं का ज्ञान कराया । इसमें गति होने पर इन्होंने मूत्तिलेखों की लिपि का ज्ञान कराया और साथ में बैठकर अभ्यास करवाया। जब इसमें भी मेरी गति बढने लगी. तो मझे प्रोत्साहित करते हुए पाण्डुलिपि करने की कला भी सिखाई। प्रेरणा, परामर्श, सहयोग और प्रोत्साहन दे-देकर इन्होंने मेरी गतिविधि को साहित्य-सेवा की ओर उन्मुख कर दिया. सूत्रधार की तरह संचालन कर दिया । फलस्वरूप मेरे जीवन का लक्ष्य बदला और प्रयत्न करते हुए मैं कुछ बन गया । आज मैं जिस रूप में भी हूँ और जो कुछ भी हूँ. उसकी नींव इन्होंने ही डाली ।
मेरे जीवन का निर्माण करने में, योग्य बनाने में इनकी प्रबलतम् महती अभिलाषा थी कि मैं खरतरगच्छ का एक असाधारण विद्वान, लेखक और गच्छ का अभ्युदय करने वाला बनं । पर काश ! मैं ने उनकी अभिलाषा को पूर्ण करने के स्थान पर उसे आच्छन्न ही नहीं, बल्कि तहस-नहस भी कर डाला। इसमें मेरी ही त्रुटियां, दुर्बलतायें. आचरण और आवेश मुख्यतः दोषी हैं।
इतना सब कुछ घटित हो जाने पर भी मेरे प्रति तो उनका वात्सल्यवत् असीम स्नेह. गुरुतुल्य श्रद्धाभाव, सौहार्द और सन्मित्रभाव पूर्ववत् आज भी सुरक्षित है। इसमें तनिक भी कमी नहीं आने पाई है। इसे मैं इनकी महानता ही कह सकता हूँ। यह हुई आप बीती ।
वि० सं० १९८४ में सुप्रसिद्ध जैनाचार्य श्री जिनकृपाचन्द्रसूरिजी महाराज एवं उपाध्याय श्री सुखसागरजी म० के बीकानेर चातुर्मास में नाहटा-बन्धु अगरचन्दजी भंवरलालजी उनके घनिष्ठ संपर्क में आए । उनके संसर्ग में आने से इन दोनों की जीवनधारा में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुआ और तभी से ये दोनों श्रेष्ठीपुत्र से सरस्वतीपुत्र बनते हुए महान से महानतम् बनते चले गये।
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