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क्ला के हजारों प्रतीक भारतीय चित्रकला के इतिवृत्त में अपना स्वर्णिम पृष्ठ अंकित करने को सर्वदा प्रस्तुत हैं। संप्रति 'उत्तराध्ययन' एवं 'ज्ञातासूत्र' की कुछ सचित्र प्रतियाँ प्राप्त हैं। पंद्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी से भाषा-ग्रंथों-रास, चौपई आदिका प्रचुरता से प्रचार हो जाने से वे ग्रंथ भी सचित्र बने। भक्तामर काव्य कथा, कल्याणमंदिर कथा. ढोलामारू चौपाई. चंद राजा नो रास. प्रियमेलक (सिंहलसुत) रास आदि ग्रंथों की प्रतियाँ भी चित्रों से अलंकृत होकर जनता के सामने आई और इस प्रकार
उदयपुर का सचित्र विज्ञप्तिपत्र चित्रकला को अधिकाधिक प्रश्रय मिलने लगा।
प्राचीन भारतीय चित्रकला में जैन चित्रकला अपना एक स्वतंत्र स्थान रखती है। अतः भारतीय चित्रकला के अध्ययन के हेतु जैन चित्रकला का सम्यक परिज्ञान होना अत्यंत आवश्यक है। भारत में मुसलमानी काल के पूर्व के संधिकालीन चित्रों का प्रायः अभाव ही पाया जाता है, परंतु जैन चित्रकला हमारे समक्ष उस काल की ताड़पत्र, वस्त्र एवं काष्ठफलकों पर चित्रित अनुपम सामग्री प्रस्तुत करती है। खेद है कि जैन समाज की संकुचित मनोवृत्ति एवं उपेक्षावृत्ति के कारण इस चित्रकला को उचित न्याय नहीं मिल सका है। इसी से यद्यपि पाटण, खंभात
और जैसलमेर के ज्ञानभंडारों से 'कल्पसूत्र', 'उत्तराध्ययन' 'कालकाचार्य कथा' आदि पर चित्रित अनेक चित्र प्राप्य हैं और कालकाचार्य कथा' एवं 'कल्पसूत्र' के चित्र अमरीका से तथा देवचंद लालभाई पुस्तकोद्धार फंड एवं साराभाई नवाब द्वारा प्रकाशित हो चुके हैं तथापि जैनेतर विद्वानों का उधर ध्यान नहीं गया है।
कथा-साहित्य की ही भाँति. बल्कि उससे भी अधिक, चित्रांकन की आवश्यकता भौगोलिक साहित्य में रहती है. क्योंकि उसकी सहायता से सुदूर और परोक्ष क्षेत्रों को भी हृदयंगम किया जा सकता है। क्षेत्रसमास, संग्रहणी.. लोकनाल इत्यादि के चित्र इस विषय के तथा कर्मग्रंथादि की सारणी आदि तत्वज्ञान के परिशीलन के लिये अनन्य सहायक हैं। वस्त्रपटों के चित्र भी इसी प्रकार भावपूर्ण, ज्ञानवर्धक और कलापूर्ण रहे हैं। पंचतीर्थी पट, शत्रुजय तीर्थादि पट. वर्धमान विद्या पट, सूरिमंत्र पट, ढाईद्वीप
और जं द्वीप पट तथा चित्रकाव्य पटों के अतिरिक्त पूठे. पटड़ी एवं डाबड़ों की सुंदर कलाभिव्यक्ति भी अत्यंत आकर्षक है।
जैनों ने शिल्पकला की भाँति चित्रकला में भी मुक्तहस्त होकर धन का सद्व्यय किया है। आज भी देवसापाड़ा-अहमदाबाद में स्थित जैन-ज्ञानभंडार के एक सचित्र कल्पसूत्र का मूल्य एक लाख रुपया आंका जाता - है। इसी प्रकार विभिन्न ज्ञानभंडारों में प्राप्य जैन चित्र-
टिप्पणाकार लंवे चित्र और विशेषतः विज्ञप्तिपत्र अपना अलग वैशिष्ट्य रखते हैं। इनका अस्तित्व जैनों के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं नहीं पाया जाता । बौद्धपरंपरा में अवश्य इस प्रकार के कतिपय महत्त्वपूर्ण अंग विद्यमान हैं जो कथावस्तु को चित्रों द्वारा सरलता से व्यक्त कर देते हैं, परंतु विज्ञप्तिपत्रों की ऐतिहासिक परिपाटी का उसमें सर्वथा अभाव है। यह परिपाटी श्वेतांबर जैन संघ से संबंधित है और पचासौं विज्ञप्तिपत्र आज भी ज्ञानभंडारों में सुरक्षित पाए जाते हैं। इन कला पूर्ण विज्ञप्तिपत्रों में से कुछ का परिचय महाराजा गाय
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