Book Title: Bhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Author(s): Ganesh Lalwani
Publisher: Bhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti

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Page 423
________________ फतेहपुर सीकरी में मिले थे। पद्मसुन्दर का निधन निश्चय छोड़ कर विद्याधर-नगरी में शरण लेता है। द्वितीय सर्ग ही इससे पूर्व हो चुका था। पद्मसुन्दर का प्रमाणसुन्दर में एक हंस, कनका के महल में आकर, 'यदुकुल के गगन शायद सम्बत् १६३२ की रचना है । इस आधार पर पण्डित के सूर्य' वसुदेव के गुणों का बखान करता है । वसुदेव का नाथूराम प्रेमी ने उनकी मृत्यु सं०१६३२ तथा १६३६ के बीच चित्र देखकर कनका अधीर हो जाती है। हंस उसकी मानी है । परन्तु यदुसुन्दर की प्रौढ़ता को देखते हुए यह मनोरथपूर्ति का वचन देकर उड़ जाता है। विरहव्यथित पदमसुन्दर की अन्तिम कृति प्रतीत होती है। हीर सौभाग्य कनका को सच्चिदानन्द से सान्द्र ब्रह्म के अद्वत रूप की में जिस मार्मिकता से सम्राट के भावोच्छवास का निरूपण तरह सर्वत्र वसुदेव दिखाई देता है। ततीय सर्ग के किया गया है, उससे भी संकेत मिलता है कि पद्मसुन्दर प्रारम्भिक ३३ पद्यों में कनका के विप्रलम्भ का वर्णन है । का निधन एक-दो वर्ष पूर्व अर्थात् सं० १६३७-३८ धनपति कुवेर बाह्योद्यान में आकर वसुदेव को कनका के (सन् १५८०-८१) के आस-पास हुआ था । यदि पास, उसका प्रणय निवेदन करने के लिये दूत बन कर जाने पद्मसुन्दर का देहान्त सं० १६३७-३८ में माना जाए, को प्रेरित करता है। कुबेर के प्रभाव से वह, अदृश्य रूप तो यदुसुन्दर को सम्वत् १६३२ ( प्रमाण सुन्दर का रचना- में, बेरोक अन्तःपुर में पहुँच जाता है ( भवतु तनुः परेरवर्ष) तथा १६३८ को मध्यवर्ती काल में रचित मानना लक्ष्या ३.७२)। वहाँ वह वास्तविक रूप में प्रकट होकर सर्वथा संगत होगा, यद्यपि काव्य में प्रान्त प्रशस्ति का कुबेर के पूर्वराग की वेदना का हृदयस्पशी वर्णन करता है अभाव है तथा अन्यत्र भी इसके रचनाकाल का कोई सूत्र और कनका को उसका वरण करने के लिये प्रेरित करता हस्तगत नहीं होता। है (श्रीदं पति ननु वृणुष्व ३.१४७)। दूत उसे देवों की उपाध्याय पदमसुन्दर अपनी बहमुखी विद्वता के शक्ति तथा स्वर्ग के सुखों का प्रलोभन देकर, कुवेर की कारण ख्यात हैं। उन्होंने काव्य, ज्योतिष, दर्शन, कोश, और उन्मुख करने का प्रयत्न अवश्य करता है पर कनका साहित्यशास्त्र आदि के ग्रन्थों से साहित्यिक निधि को अडिग रहती है। दूत धनपति को छोड़ कर साधारण समृद्ध बनाया है। शृङ्गार दर्पण के अतिरिक्त उनकी प्रायः पुरुष ( वसुदेव ) का वरण करने के उसके निश्चय की अन्य सभी रचनाएँ अप्रकाशित हैं। पार्श्वनाथ काव्य के बालिशता की कड़ी भर्त्सना करता है। उसकी अविचल कुछ सर्ग 'सम्बोधि' में प्रकाशित हुए हैं। देवविमल ने निष्ठा तथा करुणालाप से दूत अन्ततः द्रवित हो जाता है हीरसौभाग्य की स्वोपज्ञ टीका में पद्मसुन्दर के और वह दौत्य को भूल कर सम्भमवश अपना यथार्थ मालवरागजिनध्रवपद से उद्धरण दिये हैं,५ जो अभी तक परिचय दे देता है। पति को साक्षात देखकर कनका अज्ञात तथा अनुपलब्ध है। 'लज्जा के सिन्धु' में डूब गयी। वसुदेव वापिस आकर कुबेर को वास्तविकता से अवगत कराता है। चतुर्थ सर्ग कथानक में देवता, विभिन्न द्वीपों के अधिपति और पृथ्वी के दृप्त यदुसुन्दर की कथावस्तु यदुवंशीय वसुदेव तथा एवं प्रतापी शासक, कनका के स्वयंबर में आते हैं । कुवेर विद्याधर राजकुमारी कनका के विवाह तथा विवाहो- की अंगूठी पहनने से वसुदेव भी कुबेर के समान प्रतीत परान्त क्रीड़ाओं के दुर्बल आधारतन्तु पर अवलम्बित है। होने लगता है और सभा को दो कुबेरों का भ्रम हो जाता पौरांगनाओं के प्रति अपने उच्छखल आचरण के कारण, है। सर्ग के शेष भाग तथा पंचम सर्ग में वेत्रधारिणी दस अग्रज समुद्रविजय की भर्त्सना से रुष्ट होकर वसुदेव देश आगन्तुक राजाओं का क्रमिक परिचय देती है। छठे सर्ग ३ जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ३६६ । ४ सम्बोधि, १०११-४ । ५ हीरसौभाग्य, ११.१३५, टीका : 'जिनवचन पद्धतिरुक्ति चंगिम मालिनी' इति पद्मसुन्दर कृत मालवराग जिनध्रुवपदे। ७४ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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